हरिनाम के अनुकूल विषय-ग्रहण और प्रतिकूल विषय-वर्जन
भजनेर अनुकूल सर्वकार्य करि’।
भजनेर प्रतिकूल सब परिहरि’ ।।
कृष्णेर संसारे थाकि’ काटाये जीवन ।
निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण ।।
भजन के अनुकूल जितने कार्य हैं, उनको स्वीकार करते हुए तथा भजन के प्रतिकूल जितने कार्य हैं, उनको त्याग करते हुये श्रीकृष्ण के संसार में रहकर जो जीवन यात्रा निर्वाह करता है, उसके हृदय में निरन्तर श्रीकृष्णनाम उदित होता है। शुद्ध हरिनाम करने वाला श्रीकृष्ण के संसार में रहकर अपना जीवन निर्वाह करता है और निरन्तर भगवद् – स्मरण के साथ हरिनाम करता रहता है।
अनन्य-बुद्धि के साथ हरिनाम करना
आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे।
स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे ।।
कृष्णनाम, भक्तसेवा सतत करिबे।
कृष्ण – प्रेम – लाभ ता’र अवश्य हइबे ।।
श्रीनामाचार्य हरिदास ठाकुर जी हरिनाम करने वालों को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हरिनाम करने वाले को चाहिए कि वह हरिनाम के इलावा और कोई धर्म-कर्म न करें। श्रीकृष्ण से स्वतन्त्र भी कोई और ईश्वर है, इस भावना से किसी की भी पूजा न करें। बस, कृष्ण नाम और भक्त-सेवा’ हमेशा करते रहें। ऐसा करने पर श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति अवश्य होगी।
हरिदास काँदि’ प्रभु – चरणे पड़िया।
नामे अनुराग मागे चरण धरिया ।।
हरिदासपदे भक्तिविनोद याहार।
हरिनाम – चिन्तामणि जीवन ताहार ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी रोते हुये महाप्रभु जी के चरणों में गिरकर हरिनाम में अनुराग होने का वरदान माँगने लगे।
श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के चरणकमलों में जिनका अनुराग है, ‘श्रीहरिनाम चिन्तामणि’ उनका ही जीवन-स्वरूप है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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अपनी इच्छानुसार चलूँ तो मेरा मंगल कैसे हो सकता है
मैं अपना मंगल चाहता हूँ, परन्तु अमंगल को ही मंगल मान रहा हूँ। मैं अपने रोग को दूर करने के लिए डाक्टर को बुलाता हूँ, परन्तु जब डाक्टर आकर कहता है कि तुम यह औषध खाओ तथा यह परहेज करो, तो मैं कहता हूँ कि आप मेरी इच्छा के अनुसार चलिए । तो क्या यह डाक्टर से इलाज कराना हुआ? क्या इस प्रकार मेरा रोग दूर हो सकता है ? उसी प्रकार यदि मैं गुरु के पास आकर उनकी बातों को न सुनकर अपनी इच्छानुसार चलूँ तो मेरा मंगल कैसे हो सकता है ? इसलिए जो वैद्य रोगी के इच्छानुसार इलाज करता है, उसे वैद्य नहीं कहा जा सकता । जिस औषधि के द्वारा वास्तव में ही मेरा रोग दूर हो सकता है, वह औषधि न देकर यदि वैद्य मेरा मन रखने के लिए मेरी इच्छा के अनुसार औषधि देता है तथा फीस लेकर चला जाता है, उससे मुझे क्षणिक सुख तो प्राप्त होगा, परन्तु क्या रोग दूर होगा ?
श्रीलप्रभुपाद
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“एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥”
(भा. 1/3/28)
श्रीकृष्ण समस्त अवतारों के कारण- अवतारीं हैं, स्वयं भगवान् हैं। “याँर भगवत्ता हैते अन्येर भगवत्ता”,- (चै० चः) अर्थात् जिनकी भगवत्ता से औरों की भगवत्ता है। ब्रह्मसंहिता में भी श्रीकृष्ण को सर्वकारण कारण परमेश्वर कहा गया है।
“ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः ।
अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारण कारणम्”
(ब्र० सं० 5 अध्याय 1 श्लोक)
श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी ने भी नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को ही सर्वोत्तम आराध्य रूप से निर्देश किया है। जीव की हर प्रकार की इच्छित वस्तु की सर्वोत्तम परिपूर्ति एक मात्र नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की आराधना से ही हो सकती है। किन्तु ये सब बातें हम समझेंगे कैसे? जब तक हमारा (Prejudice) स्वार्थ रहेगा, तब तक हम समझ नहीं सकेंगे। भगवद् तत्त्व को समझने के लिये हमें जिस ज्ञान व अधिकार की आवश्यकता है वह ज्ञान व अधिकार न आने तक साँसारिक बहुत सी योग्यता रहने पर भी हम उसकी (उस भगवद् तत्त्व की) उपलब्धि नहीं कर पायेंगे। अधिकार प्राप्ति के लिये हम किसी भी तरह का साधन करने के लिये तैयार नहीं है। दम्भ से उन्हें नहीं जाना जा सकता, कारण, वे unchallengeable truth हैं। उनका न तो कोई कारण है, न कोई उनके समान है, उनसे अधिक होने का तो प्रश्न ही नहीं है। अतः उन भगवान् को जानने के लिये उनकी कृपा के अतिरिक्त किसी अन्य उपाय को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसलिये यदि भगवद्-तत्त्व की उपलब्धि करनी है तो प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा-वृत्ति लेकर तत्त्वदर्शी ज्ञानी गुरु के पास जाना होगा। श्रीमद् भगवद् गीता में भी ऐसा ही निर्देश दिया है:-
“तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्व दर्शिनः ॥”
(गीता – 4/34)
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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‘नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः’ अर्थात् दुर्बल व्यक्ति परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है-उपनिषद् के इस वाक्य का स्मरण करने पर समझा जाता है कि – भगवद्-भजन दुर्बल, डरपोक, कायर व्यक्ति लिए नहीं है। सहजियाओं की दुर्बुद्धि के फलस्वरूप गौड़ीय-वैष्णव अर्थात् श्रीमन् महाप्रभु के द्वारा प्रचारित विषय लुप्त होने वाला है। सहजिया व्यक्तियों की तरह महाप्रभु की कथा का प्रचार करने में कि प्रकार की दुर्बलता प्रकाशित नहीं करेंगे। हृदय-दुर्बलता हरिभजन प्रधान अनर्थ है। इससे पूर्णतः मुक्त पुरुष ही प्रचार कार्य के सव अधिकारी हैं। वे ही पृथ्वी को शिष्य बनाने के योग्य हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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“श्रीचैतन्यचरितामृत
(मध्यलीला ४.१४६) में श्रील कविराज गोस्वामी ने उल्लेख किया है-
प्रतिष्ठार स्वभाव एइ जगते विदित ।
जे ना वाञ्छे, तार हय विधाता-निर्मित ॥
[यह सर्वविदित है कि विधाता के विधान से प्रतिष्ठा का स्वभाव कुछ ऐसा है कि जो इसकी कामना नहीं करता, यह उसी को प्राप्त होती है।]
“मन-ही-मन में प्रतिष्ठा की कामना रखकर भजन करने वाले व्यक्ति को भी कभी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं होती। ‘जे चाहे से पाए ना, जे पाए से चाहे ना’ अर्थात् जो चाहता है उसे प्राप्त नहीं होती तथा जिसे प्राप्त होती है वह उसे चाहता नहीं – यह उक्ति ही साधक के हृदय की भावना को मापने की कसौटी है। श्रील प्रभुपाद ने प्रतिष्ठाशा की तुलना बाघिनी से की है। बाघिनी अपने शिकार को जिस प्रकार बिना चबाए पूरा ही निगल जाती है, उसी प्रकार प्रतिष्ठा की कामना वास्तव में साधक के पारमार्थिक प्राणों अर्थात् शरणागति को पूर्णतया निगल जाती है अर्थात् साधक उच्छृङ्खल बनकर जीवन यापन करने लगता है।
“निज मङ्गल के इच्छुक साधक को कनक, कामिनी तथा प्रतिष्ठा की आशा का दृढ़तापूर्वक त्याग करना चाहिए, उन्हें लेशमात्र भी प्रश्रय नहीं देना चाहिए, समादर नहीं करना चाहिए। कारण ये समस्त कामनाएँ अनित्य, अमङ्गल-स्वरूप तथा जीव की सेवा-प्रवृत्ति के सम्पूर्णतः विपरीत हैं।
“प्रत्येक साधक को फल्गु-वैराग्य एवं युक्त-वैराग्य के मध्य अन्तर की समझ होनी चाहिए। स्मरण रखो, प्रत्येक उज्ज्वल वस्तु सोना नहीं होती।”