हरिनाम में स्थान, समय व अशौच आदि की कोई बाधा नहीं है

देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ,
देश काल अशौचादि नियम सकल ।
श्रीनाम – ग्रहणे नाइ, नाम से प्रबल ।।

हरिनाम में इतनी शक्ति है कि हरिनाम करने वाले को स्थान, समय व अशौच आदि के जितने भी नियम हैं, वे पालन नहीं करने पड़ते क्योंकि हरिनाम इतना प्रभावशाली है कि वह अपवित्रों को भी पवित्र कर देता है।

कलि से ग्रस्त जीवों का नाम में निष्कपट विश्वास होने पर ही उन्हें हरिनाम करने का अधिकार होता है

दाने, यज्ञे, स्नाने, जपे, आछे त ‘विचार।
कृष्णसंकीर्त्तने मात्र श्रद्धा अधिकार ।।

युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय ।
ये करे आश्रय, ता’र सर्वलाभ हय ।।

कलिजीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे।
अवस्थित ह’ये कृष्णनाम सदा करे ।।

दान, यज्ञ, स्नान, जप आदि करने में तरह-तरह के विचार हैं। किन्तु श्रीकृष्ण संकीर्तन में श्रद्धा होने मात्र से ही जीव का उसमें अधिकार हो जाता है। युगधर्म हरिनाम का, अनन्य श्रद्धा से जो आश्रय करता है, उस को सभी कुछ प्राप्त होता है। हम कलियुग के जीवों के लिए नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि कलियुग के जीव निष्कपट रूप से श्रीकृष्ण के संसार में रहकर हमेशा श्रीकृष्ण नाम ही करेंगे।

श्री हरिनाम चिंतामणि

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शरणागत के लक्षण

श्रीगुरुदेव मेरी मूर्खता, मेरी असम्पूर्णता, मेरी असद् विचार प्रणाली, मेरे अस्थिर सिद्धान्त इत्यादि को पूर्णरूप से जानते हैं । इसलिए वे मेरे रोग के अनुरूप ही व्यवस्था करते हैं। जिनके निकट उपस्थित होने से अन्य किसी के निकट जाने अथवा कुछ सुनने की आवश्यकता नहीं रह जाती, वे ही सद्‌गुरु हैं । समस्त मंगलों के भी मंगलस्वरूप भगवान ने मेरा मंगल जिनके हाथों में सौंपा है, मैं यदि ऐसे सद्‌गुरु के चरणों में पूर्णरूप से समर्पण करूँ तो वे भी पूर्णरूप से मेरा कल्याण करेंगे । परन्तु यदि मैं कपटता करूँगा तो वे मेरी वञ्चना कर देंगे। वे कहते हैं-तू न मेरा शिष्य बना और न तूने मेरा शासन स्वीकार किया और कपटी लोगों के विचारो को सुनने के कारण मेरी बातों को सुनने के योग्य तेरे पास कान ही नहीं हैं । अतः तू वञ्चित हो गया । अतः वे मेरे कल्याण के लिए निष्कपटरूप से जो व्यवस्था करते हैं, उसे मुझे सिर झुकाकर आदरपूर्वक ग्रहण करना चाहिए । यही शरणागत का लक्षण है ।

श्रीलप्रभुपाद

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जो भगवान् से प्रेम करते हैं, वे सब जीवों से प्रेम करते हैं

श्रीमन्महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करने के लिये मुझे तमिल भाषा सीखने का परामर्श दिया था और उस विषय में सहायता भी की थी। किन्तु तीन दिन सीखने के पश्चात् मुझे गुरुदेव जी का Telegram आया और मुझे पुरी जाना पड़ा। बाद में प्रभुपाद जी के पास जब मेरा प्रस्ताव भेजा गया (मेरे छः मास वहीं रहकर तमिल सीखने के लिये) तो उत्तर में प्रभुपाद जी ने कहा था कि भाषा के द्वारा श्रीकृष्ण-भक्ति का प्रचार नहीं होता, हाँ, विद्वता या पाण्डित्य का प्रचार हो सकता है। जिसके हृदय में भगवत् प्रीति है, उसके द्वारा ही भगवत्-प्रीति का प्रचार होगा। तुम्हारा जो भाषा ज्ञान है, उसी ज्ञान का प्रचार करो। भाषा सीखने में अपने बहुमूल्यवान समय को नष्ट करने का परामर्श में नहीं दे सकता। भगवत्-प्रीति (culture) के अनुशीलन के लिए मठ हैं। भगवद्भीति का अनुशीलन ही तुम्हारे अपने लिये एवं उन सबके लिये सुखदायक है।

जो भगवान् से प्रेम करते हैं, वे सब जीवों से प्रेम करते हैं। साधु-भक्तों के संग से ही भगवद् भक्ति का उन्मेष होता है –

संगेन साधुभक्तानामीश्वराराधनने च ।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

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भक्ति के द्वारा ही साधु की साधुता का परिचय – अपनी अच्छाई-बुराई के विचार से नहीं

हम लोग जन्म से ही, पूर्व कर्मों के आधार पर, कुछ अच्छाई-बुराई के विचारों को लेकर जीवन यापन करते हैं। फिर atmosphere (माहौल) और environment (पर्यावरण) से भी अच्छे-बुरे का विचार हमें मिलता है। इसी के अनुसार हमने जो वृत्ति या स्वभाव प्राप्त किया है, उसी के द्वारा साधुता के बारे में कुछ सोच बना लेते हैं- लेकिन वह सब कल्पना है, वास्तविक साधुता नहीं है। साधुता का परिचय सेवा-बुद्धि से मिलता है। जितने दिनों तक सेवा, उतने दिनों तक भक्ति । भक्ति में या सेवा में भौतिक atmosphere या environment का कोई आधिपत्य नहीं है। श्रील प्रभुपाद किसी के अंतःकरण में भक्ति या सेवावृत्ति देखने पर उन्हें अपना आत्म-परिचय देते थे, अन्यथा उनका निजत्व हमेशा ही बाह्य जगत के लिए छिपा रहता। भक्ति का प्रधान लक्षण है शरणागति। अपना निजत्व लुटा देने को ही शरणागति कहते हैं।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज

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केवल हरि की प्रसन्नता से प्रतिकूल की अनुकूलता

सभी प्रकार के दुःख-कष्ट-मानसिक अशांति के बीच धैर्य धारण करने की चेष्टा करना। सभी विषयों में दृढ़ता और निष्ठा रहने पर हर प्रकार की विपत्ति से बच सकोगी। अपनी ‘खूँटी’ ( खूँटी’- मेरे पास भगवान् के द्वारा प्रेरित श्रीगुरुपादपद्म हैं- इस दृढ़ विश्वास को ‘खूँटी’ कहा जाता है।) के बल पर सभी कठिनाईयों का समाधान ढूँढ़ लेना। श्रीभगवान् के सुप्रसन्न होने पर सभी समस्याओं का समाधान अवश्य ही हो जायेगा। सभी प्रतिकूल परिस्थितियाँ, अनुकूल रूप से तुम्हारी सहायता, सहानुभूति और सहयोग के लिए अग्रसर होंगी-यही मेरा सुचिन्तित विचार है। “अरिर्मित्रं विषं पथ्यं अधर्म धर्ममुच्यते। सुप्रसन्ने हृषीकेशे विपरीते विपर्य्ययः ।।” (हृषीकेश के प्रसन्न होने से शत्रु भी बन जाता है मित्र, विष-पथ्य, अधर्म-धर्म; और उनके अप्रसन्न होने से सब विपरीत हो जाता है अर्थात् मित्र-शत्रु, पथ्य-विष और धर्म अधर्म) इस श्लोक की विशेष रूप से चर्चा करना। इसी से धैर्य, लग्न और निश्चयात्मिका बुद्धि लाभ करोगे।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज

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