हरिनाम में व्यवधान होने से दोष होता है

किन्तु व्यवहित ह ‘ले हय अपराध ।
सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध ।।

नाम-नामी भेद – बुद्धि व्यवधान हय।
व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय ।।

किन्तु हरिनाम को कोई व्यक्ति भगवान श्रीहरि से अलग समझे तो उससे अपराध होता है तथा इसी अपराध के कारण साधक को भगवद् प्रेम की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है। नाम और नामी में भेद बुद्धि होने से ही रुकावट होती है, ऐसी रुकावट रहने पर साधक के हृदय में प्रेम कभी भी उदित नहीं होता।

व्यवधान दो प्रकार का है

वर्ण व्यवधान आर तत्त्व व्यवधान ।
व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान ।।

वेदों के अनुसार वर्ण व्यवधान और तत्त्व व्यवधान – हरिनाम में ये दो प्रकार के व्यवधान होते हैं। अर्थात् शुद्ध हरिनाम में वर्ण और तत्त्व का व्यवधान होने से अर्थात् रुकावट होने से जीव के द्वारा शुद्ध हरिनाम नहीं हो पाता।

मायावाद हरिनाम में तत्त्व-व्यवधान करता

तत्त्व – व्यवधान मायावाद – दुष्ट मत।
कलिर जन्जाल एइ शास्त्र असम्मत ।।

श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण नाम में भेद करना ही मायावाद दोष है। शास्त्रों का विचार है कि यह कलि का ही फैलाया हुआ जंजाल है। जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के नाम में कोई अन्तर नहीं है।

व्यवधान-रहित नाम ही शुद्ध नाम

अतएव शुद्ध कृष्णनाम याँ ‘र मुखे।
ताँहाके वैष्णव जानि’ सदा सेवि सुखे ।।

अतएव शुद्ध श्रीकृष्ण नाम जिसके मुख से निकलता है, वही शुद्ध वैष्णव है। ऐसे हरिनाम करने वाले की आदर के साथ सेवा करनी चाहिए।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि

_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _

तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्ष्यमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ।।

अर्थात् जो व्यक्ति अपने किये कर्मों के फल को भगवान की कृपा मानता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मन से भोग करते हुए तन-मन-वचन से स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करता हुआ जीवन धारण करता है, वे ही मुक्ति के आश्रयस्वरूप इन चरणकमलों के अधिकारी हैं ।

इस जगत से जिसकी छुट्टी पाने की योग्यता हो गयी है, वह विचार करता है कि यदि परम मंगलमय भगवान के ऊपर दोषारोप करूँ तो सेवा प्रवृत्ति का अभाव होने के कारण मैं कभी भी माया से मुक्त नहीं हो पाऊँगा। किन्तु जो सेवोन्मुख होकर समस्त असुविधाओं को भगवान का अनुग्रह या दया मानकर भगवान के प्रति और भी अधिक आकर्षित हो जाते हैं, वे ही अनायास ही मुक्तिपद के अधिकारी होते हैं।

श्रीलप्रभुपाद

_ _ _ _ _ _ _ _

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभुपाद जी अपने शिष्य को ‘प्रभु’ कहते थे। छोटे शिष्य को प्रभु और आप कह कर सम्बोधन करते थे। हाँ, किसी-2 को तू और तुम भी कहते थे। जिसे ‘आप’ और ‘प्रभु’ सम्बोधन करते थे, साथ-2 उस पर शासन भी करते थे; जिसको प्रभु बोला जाता है, उस पर क्या शासन भी किया जाता है? ये क्या Paradoxical नहीं है?

नहीं, देखने में ये कपटता लग सकती है किन्तु ये कपटता नहीं है। श्रील प्रभुपाद जी अपने शिष्यों को जब प्रभु कहते हैं तब ठीक ही कहते हैं और जब अन्य भाव आता है तब शासन भी करते हैं। एक विचार से गुरुदेव शासक हैं जबकि दूसरे विचार से वे शिष्यों के बन्धु, हितकर्मा एवं प्रियतम हैं।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

_ _ _ _ _ _ _ _ _