आज विशेष तिथि है। लोकनाथ गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। लोकनाथ गोस्वामी स्वयं भगवान चैतन्य महाप्रभु के साक्षात् शिष्य एवं पार्षद हैं, उनसे अभिन्न हैं उनमें कोई भेद नहीं है। उनका आविर्भाव यशोहर जिले के तालखड़ी गांव, जो अभी बांग्लादेश में है, वहाँ पर हुआ। पहले उनके पूर्वज यशोहर जिले के काँचनापाड़ा में थे, बाद में वहाँ से तालखड़ी आ गए।

महाप्रभु ने 24 साल की आयु में माघ महीने में संन्यास लिया। लोकनाथ गोस्वामी अग्रहायण महीने में जब महाप्रभु के दर्शन करने आए, तब महाप्रभु ने साथ-साथ उनको बोल दिया कि यहाँ (नवदीप) से वृंदावन चले जाओ, मैं जल्दी ही संन्यास लूँगा। हम लोगों को अनुभव नहीं होगा। महाप्रभु स्वयं नंदनंदन कृष्ण, अपना माधुर्य आस्वादन करने के लिए राधा रानी का भाव लेकर गौरांग रूप से प्रकट हुए। उन्हीं के पार्षद हैं लोकनाथ गोस्वामी, जो कृष्ण लीला में लीला मंजरी हैं।

लोकनाथ गोस्वामी ने जब सुना कि महाप्रभु का संन्यास होगा, उन्होंने बहुत क्रंदन किया। महाप्रभु के केश बहुत ही सुन्दर घुंघराले हैं, संन्यास के समय मुंडन होगा, उनके पार्षद उनका इस रूप में दर्शन कैसे कर पाते? संबंध नहीं है, तो विरह भी नहीं होगा। जिनसे संबंध है, उनसे विरह भी तीव्र होगा। लोकनाथ गोस्वामी का चैतन्य महाप्रभु से गहरा संबंध है, इसलिए उनसे उनका विरह भी तीव्र है।

एक बार कलकत्ता मठ में एक व्यक्ति हमारे गुरुजी से मिलने आए। मैं उस समय गुरुजी के पास ही था, गुरुजी में उस व्यक्ति की श्रद्धा है। उन्होंने कहा स्वामी मेरा एक प्रश्न है। मैं जब 25 साल पहले वृंदावन गया था, वृंदावन बहुत अच्छा था, अभी मैं जब वहाँ गया, मैंने देखा वृन्दावन बहुत गंदा हो गया है। गुरुजी ने सोचा वृंदावन तो कभी गन्दा नहीं होता, यह ऐसी बात क्यों बोल रहे हैं? उन्होंने कहा 25 साल पहले अच्छा था। दूध, दही, लस्सी, रबड़ी सब बहुत अच्छा मिलता था। अभी मैं जब गया, मैंने रबड़ी खरीद लिया, रबड़ी खाकर रक्त पेचिश (blood dysentery) हो गया, रबड़ी के साथ blotting paper मिलाकर देते हैं। मुझे हस्पताल ले जाया गया। किसी प्रकार से बचकर आ गया। और कोई चीज बाहर नहीं रख सकते, रखने से ही कोई उठा कर ले जाएगा। अभी वृन्दावन, वृन्दावन नहीं रहा, वृन्दावन गंदा हो गया है।

वृंदावन भारत का हिस्सा नहीं है, उत्तर प्रदेश का हिस्सा नहीं है। पंच महाभूत का विकार नहीं है। वृंदावन साक्षात् नंदनंदन कृष्ण की लीला भूमि है, चिन्मय भूमि है। नंद नंदन कृष्ण चिन्मय हैं। उनका स्थान भी चिन्मय भूमि है। यहाँ पर वृन्दावन का अवतरण हुआ है। यहाँ का हिस्सा नहीं है। जब कोई शरीर में अभिमान और अपने प्राकृत मन, बुद्धि, जो अपरा प्रकृति का हिस्सा हैं, लेकर वहाँ जाते हैं और सोचे हैं कि प्राकृत इंद्रियों से हम धाम को समझ लेंगे, तब वह धाम की तुलना इस जगत के स्थानों के साथ करते है और कहते है इससे दिल्ली अच्छा है, इससे कोलकाता अच्छा है, इससे मुंबई अच्छा है।

चिन्मय धाम दर्शन करने के लिए चिन्मय नेत्र चाहिए। शरणागत के हृदय में धाम का आविर्भाव होगा। जो अशरणागत होकर, मिथ्या अभिमान लेकर सोचते हैं कि हम धाम को समझ लेंगे, भगवान को समझ लेंगे, तो वे पूर्णरूप से वंचित हो जाते हैं। उस चिन्मय राज्य के साथ उनका कोई सम्बन्ध है ही नहीं। बाहरिक रूप से कोई व्यक्ति केवल स्थूल शरीर लेकर धाम में जा सकता है। किन्तु यह स्थूल शरीर से भगवान के धाम में प्रवेश नहीं होता है, जब कोई यह समझे कि यह स्थूल शरीर भी भगवान का है, जब हम भक्तों के संग में रहकर स्थूल शरीर चिन्मय हो, तब षडविध शरणागति होगी। और तब वहाँ भगवान का आविर्भाव होगा। भगवान हर एक के लिए समान है। किसी पर कृपा करेंगे और किसी पर नहीं करेंगे, ऐसा नहीं है। ऐसा हमारे गुरुवर्ग कहते हैं, जो लोग धाम में विद्वेष भाव लेकर जाते हैं, उनका विद्वेष भाव कम हो जाता है। जो लोग कोई विद्वेष भाव लेकर नहीं जाते उनकी सुकृति होती है। जो कामना लेकर जाते हैं उनका पुण्य होता है, और जो निष्काम भावना से जाते हैं उनका भगवान के धाम के साथ सम्बन्ध होता है। सभी जाते हैं, किन्तु सबके जाने का अलग-अलग फल होता है, कोई फल नही होता यह बात नहीं है।

लोकनाथ गोस्वामी के पिता पद्मनाभ चक्रवर्ती और माता का नाम सीता देवी है। उनके भाई का नाम है प्रगल्भ भट्टाचार्य। चक्रवर्ती का बेटा भट्टाचार्य कैसे हुआ? वे शास्त्रीय ज्ञान में विद्वान थे, विद्वान् के लिए ‘भट्टाचार्य’ प्रयोग होता है। चक्रवर्ती ब्राह्मण की भी पदवी है, चक्रवर्ती सम्राट के लिए भी प्रयोग होता है। अलग-अलग भाव है। लोकनाथ गोस्वामी, ‘गो’ का एक अर्थ होता है. ‘इन्द्रियाँ’ अर्थात् इन्द्रियों के स्वामी। इंद्रियों का दास, गुलाम नहीं। उन्होंने तीव्र वैराग्य के साथ भजन किया। लोकनाथ गोस्वामी को महाप्रभु ने समझाया, मैं यहाँ अधिक दिन नहीं रहूंगा, तुम्हें वृंदावन जाना पड़ेगा। जब लोकनाथ गोस्वामी बहुत रोने लगे, तो महाप्रभु ने उन्हें समझाया, इसमें तुम्हारा कोई भय नहीं है। जहाँ पर संबंध है, वहाँ पर आराध्य देव का संग विरह से भी होता है। राधारानी का कृष्ण के लिए विरह होता है, क्या तब भगवान के साथ उनका संग नहीं होता है? अपितु अधिक संग होता है। इसको अधिरूद्ध महाभाव कहते हैं। नुकसान क्या है? कोई नुकसान नहीं होगा। चिंता मत करो, अभी चलो जाओ।

शाखा निर्णय में लिखा है ,

भुगर्भोत्तम सुविश्रुतं…

भूगर्भ का अर्थ है, जो पृथ्वी का मध्यम स्तर है। वहाँ से प्रकट हुआ। वे भी कृष्ण लीला में प्रेम मंजरी हैं। लोकनाथ गोस्वामी एवं भूगर्भ गोस्वामी के बिच अभिन्न सौहृद (गाढ़ मित्रता) है ।

महाप्रभु की आज्ञा से उनके पार्षद में वृन्दावन जानेवाले सब से पहले थे: भूगर्भ गोस्वामी और लोकनाथ गोस्वामी। उनसे पहले सुबुद्धि राय वृन्दावन गए थे, उनको गौड़ीय वैष्णव कह सकते हैं, किन्तु वे महाप्रभु के पार्षद रूप से नहीं गए। सुबुद्धि राय नाम सुना? जब महाप्रभु प्रकट हुए बांग्लादेश में मुसलमान राज था। हुसैन शाह राजा था। प्रधानमंत्री थे-सनातन गोस्वामी और अर्थ मंत्री थे रूप गोस्वामी। मालदह राजधानी था। रुप और सनातन गोस्वामी रामकेलि गांव में रहते थे।

सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी के अनुगत्य में रहते थे। बाहर के विचार से रूप गोस्वामी सनातन गोस्वामी से आयु में छोटे हैं। ‘सनातन-रुप’ नहीं बोलते ‘रूप-सनातन’ कहते हैं।आयु में सब से बड़े अद्वैत आचार्य हैं। किन्तु तब भी अद्वैताचार्य महाप्रभु को अपना आराध्य देव समझते हैं। नित्यानंद प्रभु, महाप्रभु से आयु में 12 साल बड़े हैं, जो कि स्वयं बलदेव हैं। उनसे भी हरिदास ठाकुर बहुत बड़े हैं। किन्तु लीला में अंतर है, सभी महाप्रभु को अपना इष्टदेव जानते हैं। बाह्य दृष्टी से हम इस प्रकार दर्शन करते हैं, किन्तु भक्तों को विभिन्न रस आस्वादन कराने के लिए भगवान् उनको गुरु (उनसे बड़े) रूप से प्रकट करते हैं।

बाहरिक दृष्टी से अलग किन्तु भीतर से अलग। रूप गोस्वामी भीतर में ‘रूप मंजरी’ है, सनातन गोस्वामी भीतर में ‘रति मंजरी’ है, गोपाल भट्ट गोस्वामी भीतर में ‘अनंग मंजरी’ है, लोकनाथ गोस्वामी ‘लीला मंजरी’ है, भूगर्भ गोस्वामी ‘प्रेम मंजरी’ है। बाहर से वे साधारण व्यक्ति के भांति लगते हैं, किन्तु साधारण नहीं है, सभी मंजरी हैं।

महाप्रभु ने लोकनाथ गोस्वामी को बहुत समझाया, तब उनके हृदय को थोड़ी सान्तवना मिली। महाप्रभु ने कहा कोई चिंता नहीं है, भूगर्भ गोस्वामी को लेकर वृंदावन जाओ। हृदय में महाप्रभु से विरह का बहुत दुःख है, किन्तु फिर भी उन्होंने महाप्रभु की आज्ञा का पालन किया। प्रगल्भ भट्टाचार्य उनके भाई है और पद्मनाभ चक्रवर्ती उनके पिता हैं। भट्टाचार्य उनको कहते हैं जो विद्वान हैं और शास्त्रज्ञ हैं। ब्राह्मण होने से भी भट्टाचार्य बोलते हैं, हम लोग सोचते हैं, चक्रवर्ती का लड़का चक्रवर्ती होता है, ये कैसा है?

और लोकनाथ ‘गोस्वामी’ हो गए अर्थात् उन्होंने समस्त इंद्रियों को जय किया। वे पार्षद हैं, साधारण व्यक्ति नही हैं। उन्होंने तीव्र वैराग्य के साथ भजन किया। विविक्तानंदी होकर भजन किया। विविक्तानंदी का अर्थ है, जो संग में नहीं केवल एकांत में रहकर भजन करते हैं। कोई शिष्य स्वीकार नही करते हैं।

समस्त तीर्थ भ्रमण करके जब वे वृंदावन में पहुंचे, तब सुना कि महाप्रभु संन्यास के बाद पुरी आकर दक्षिण भारत चले गए। महाप्रभु के दर्शन करने के लिए वे इतना विह्वल थे कि महाप्रभु से मिलने के लिए वे भी वृंदावन से दक्षिण भारत पैदल ही चलने लगे, कितना कष्ट है। जब वहाँ पहुंचे, तो सुना, महाप्रभु अभी वृंदावन में हैं, वे फिर वापस वृंदावन में आए, जब वृंदावन आए, तो सुना महाप्रभु प्रयाग चले गए, तब वे फिर प्रयाग जाने के लिए तैयार हो गए, सब यात्रा पैदल ही कर रहे थे, कोई गाड़ी नहीं है।

जब प्रयाग जाने के लिए तैयार हुए, तो महाप्रभु ने स्वप्न में दर्शन दिया और कहा ऐसा इधर-उधर इतना भ्रमण नहीं करना, विभिन्न स्थान पर घूमना नहीं। वृंदावन में रहो, कोई चिंता नहीं है। मैं तुम्हारे यहाँ पर आया कि नहीं? क्यों चिंता करते हो? जहाँ पर तुम हो वहीँ रहो, भगवान का आविर्भाव जो कोई स्थान में हो सकता है। तुम चिंता क्यों करते हो? तुम तो सब जानते हो। चिंता मत करो। वृंदावन में रहो इधर-उधर घूमना ठीक नहीं है, तब वे वृंदावन में रहे। वृंदावन में जाकर ब्रजमंडल परिक्रमा की। परिक्रमा करते-करते जहाँ पर हम लोग खदीर वन में जाते हैं, वहाँ बीच में बकासुर को वध किया वहाँ पर बैठकर हम लोग उस स्थान की महिमा श्रवण करते हैं। नंदग्राम से हम पैदल जाते हैं, बहुत दूर नहीं है, वहाँ पर बकासुर का स्थान है, वहाँ तालाब है, सुंदर सरोवर है, पानी बहुत अच्छा है, उस स्थान पर ग्वालबालों ने कहा बहु प्यास लगी है, हम पानी पिएंगे, उस समय वहाँ बकासुर आ गया। विशालकाय बकासुर देखकर ग्वाल बालों को भय हो गया। कृष्ण भी ग्वाल बाल की तरह है। आते ही बकासुर ने कृष्ण को निगल लिया। जब ग्वाल बालों ने देखा कि कृष्ण को बकासुर ने निगल लिया, तो सब एकदम मृतप्राय हो गए।

कृष्ण ने बकासुर के पेट में जाकर मुक्का मारा। वह सहन नहीं कर पाया और उसने उल्टी कर दी। तब कृष्ण पेट से निकल गया। जब निकल गया, तब बकासुर फिर उनको खाने के लिए गया, कृष्ण ने उसकी चोंच फाड़कर उसका वध कर दिया। कपटता या दुष्टता भगवत् प्राप्ति के लिए बाधा है, बकासुर कपटता को दर्शाता है, यह प्रसंग हमने वहाँ पर आलोचना किया था।

उसके बाद हम लोग छत्रवन, किशोरी कुंड पहुँचे, वहाँ पर लोकनाथ गोस्वामी की भजन स्थली है।

हम लोग वहाँ बैठकर कीर्तन करते हैं, किशोरी कुंड से पानी लाते हैं। वही किशोरी कुंड की शोभा दर्शन करके लोकनाथ गोस्वामी को बहुत आनंद हुआ। वे आनंद सागर में डूब गए। हम लोग तो आनंद सागर में डूबते नहीं है। वे धाम का सौंदर्य देखकर आनंद में डूब गए और सोच रहे हैं कि यदि राधा-कृष्ण मेरे पास विग्रह रूप से आ जाए, तो मैं उनकी हृदय से सेवा करूँगा। ऐसा कह कर उन्होंने रोना शुरू कर दिया। तब कृष्ण स्वयं व्रजवासी रूप से आ गए और उन्होंने लोकनाथ गोस्वामी को विग्रह देते हुए कहा, ये ‘राधा विनोद’ है। लोकनाथ गोस्वामी कहने लगे,”आप को यह राधा विनोद कौन दे गया?” विग्रह देखकर वे आकर्षित हो गए, तब विग्रह हँसते हुए कहने लगे, “हमें कौन दे सकता है? तुम्हारी हमारे लिए उत्कंठा देखकर हम स्वयं ही तुम्हारे पास आ गए। अभी हमें बहुत भूख लगी है, शीघ्र खाने को दो।” लोकनाथ गोस्वामी तो पेड़ के नीचे खड़े हैं। वे कहाँ से खाना देंगे? किन्तु वे महानंद में हैं। प्रेम की बात सुनकर उनकी आंखों से आंसू की धारा बहने लगी।

ब्रजवासी लोकनाथ गोस्वामी को बहुत श्रद्धा करते थे। जगह-जगह से सब्जी लेकर रसोई पकाकर बहुत कुछ बनाया। वहीँ ठाकुर को भोग दिया, कहां पर? बिल्डिंग में, मंदिर में? पेड़ के नीचे ही भोग दिया। खिलाने के बाद उनको शयन दिया। पत्ते का बिस्तर बना दिया उनको सुला दिया और पत्ते से उनको हवा देने लगे। उनको हवा दे रहे हैं। उनको आनंद हुआ। मैं सब समय अपने शरीर की ही चिंता करता हूँ कि कैसे शरीर को ठीक रखें? किन्तु उनको घर के लिए कोई चिंता नहीं है, जड़, तूफान, बारिश की भी कोई चिंता नहीं है। उन्होंने पेड़ के नीचे विग्रह को प्राप्त किया और पेड़ के नीचे ही सेवा कर रहे हैं। जब विग्रह का दर्शन होता है, विग्रह से जब संबंध होता है, संबंध से जब सेवा करते हैं, तो आनंद होता है और तब अपना खाना पीना सब भूल जाते हैं।

आप लोग जानते हैं, गोवर्धन के पास पैठ धाम में कदंब वृक्ष है। जब व्रजवासियों ने यज्ञ नहीं किया तो समस्त व्रज को डूबा देने के लिए इंद्र ने भारी वर्षा की। कृष्ण ने सभी ब्रजवासियों को बोला कि आप अपना सारा सामान बैलगाड़ी में रखकर गोवर्धन पर ले आओ। सभी इधर मेरे पास आ जाओ, अपने घर में मत रहो। चारों ओर पानी पानी हो रहा है, सब डूब जायेंगे। सब व्रजवासी कृष्ण के पास आ गए, वहीं पैठ धाम के पास, वहाँ आ कर सब ने कृष्ण को बोला कि हम लोग अब कैसे बचेंगे? कृष्ण ने कहा बचने का अन्य कोई उपाय नहीं है, मैं गिरिराज गोवर्धन को उठाऊंगा।

व्रजवासी कहने लगे, तुम्हारे हाथ बहुत कोमल है, बहुत नरम है, ये नरम हाथ से तुम पहाड़ को नहीं उठा सकते। घांव हो जायेंगे। कृष्ण ने कहा गोवेर्धन नहीं उठाने से तुम लोगों की रक्षा कैसे होगी? मैं उठा सकता हूँ, तुम लोग परीक्षा करके देख लो। उन्होंने कहा यह कदम्ब का पेड़ बहुत विशाल पेड़ है। इस पेड़ को तुम घुमा सकते हो? कृष्ण ने कदम्ब के पेड़ को घुमा दिया। सब आश्चर्य-चकित हो गए। इतने बड़े पेड़ को घुमा दिया? ठीक है, तुम गोवेर्धन उठा सकते हो। फिर कृष्ण ने गोवर्धन को उठा लिया, यह देख कर सब व्रजवासी आश्चर्य-चकित हो गए। उन्होंने सोचा कि ऊपर से कोई पत्थर गिर सकता है, सबने अपनी-अपनी लकड़ी (लाठी) का सहारा दे दिया।

यहाँ एक बात है, हम लोग जब ब्रजमंडल परिक्रमा में जाते हैं, हम सोचते हैं, जहाँ रहे वहाँ सीट मिल जाए, खाना पीना सब कुछ व्यवस्था ठीक रहे। व्यवस्था नहीं होने से लोग गुस्सा करते हैं। किन्तु वहाँ पर क्या हुआ? व्रजवासियों ने सात दिन व सात रात्रि खाया नहीं, पिया नहीं, सोये नहीं। भागवत में झूठ लिखा है? भगवान का सौन्दर्य देखकर, गोवर्धनधारी गोपाल को देखकर, वे लोग इतने आनंद में निमग्न हो गए। सभी व्रजवासी के हृदय में सब समय भगवान को देखने की आकांक्षा रहती है, किन्तु जब वात्सल्य रस के सेवक सेविका उनको देखते हैं, तब मधुर रस के देख नहीं पाते। जब मधुर रस के भक्त उनको देख पाते हैं, तब सख्य रसवाले भक्त नहीं देख पाते।

किन्तु वे सब लोग सब समय कृष्ण को देखना चाहते हैं, इसलिए उनकी इच्छा पूर्ति करने के लिए कृष्ण ने यह लीला की। गोवर्धन धारण करके इतने सुंदर रूप से वे प्रकट हुए कि उनका सौंदर्य देखकर व्रजवासी सब कुछ भूल गए। सात दिन बिना कुछ खाए रहें, कोई मरा नहीं। यह भागवत में लिखा है। और हम लोग मूर्ति की किस प्रकार सेवा करते हैं? अभी मंदिर बना हुआ है, बहुत जगह है, पुजारी के लिए भी स्थान है, सब सुविधाएँ हैं फिर भी कहते हैं, हम पूजा नहीं कर सकते, परिश्रम करके हम मर जाएंगे। पैसा देकर पुजारी रखो, बर्तन धोने के लिए आदमी रखो, रसोई करने के लिए आदमी रखो, हम कुछ नहीं कर सकते हैं। मैं जब गुरु महाराज जी के साथ रासबिहारी एवेन्यू में था, तब उस घर के तीन मंजिला में एक कमरे में मंदिर था। मैं जानता हूँ, वहाँ पर गुरुजी हाथ से स्वयं एक डेढ़ घंटे तक पंखा चलाते थे। उन्होंने कहा, तुम लोग सेवा करो मैं प्रचार में जा रहा हूँ। संबंध ज्ञान के साथ, प्रीति के साथ जितनी सेवा करोगे उतना लाभ होगा।

जब दो-तीन महीने बाद गुरुजी प्रचार से वापस आए, तो देखा पंखे को हटाकर वहाँ पर electronic fan लगा दिया गया है। गुरुजी को वह पसंद नहीं आया। उन्होंने कहा, “तुम लोगों की सेवा करने की भी इच्छा नहीं है, मुझे बिना पूछे तुमने electronic fan कैसे लगा दिया? मैं स्वयं भी ऐसे सौ fan भी लगा सकता था, पर मैंने क्यों नहीं लगाया? जब तुम्हारी शक्ति सेवा में लगेगी, तो सेव्य के प्रति प्रीति होगी, सेव्य की सेवा करने के लिए उत्साह रहेगा।” गुरुजी का चहरा देखकर हमें समझा में आ गया कि गुरुजी हताश हो गए। हताश होकर बैठ गए। वे सोचने लगे कि भविष्य में क्या होगा?

फिर वहाँ पर देखा एक अच्छा भंडारी था, बुढा था। वह बांग्लादेश का था, तब बांग्लादेश भारत के अंदर में ही था। वह भंडारी आकर गुरुजी को कहते हैं, रसोई करनेवाला लड़का बहुत अच्छा है, किन्तु उसे बहुत लोगो का रसोई करना पड़ता है, सुबह और शाम दोनों समय रसोई करना पड़ता है। उसको सुबह से लेकर शाम तक बहुत सेवा करनी पड़ती है। एक नौकर रख लीजिए बर्तन धोने इत्यादि के लिए। तब गुरुजी कहा ये ब्रह्मचारी क्या करेंगे यहाँ बैठकर? सेवा नहीं करेगा, तो भक्ति होगी? बर्तन तो साफ कर सकते हैं। भगवान् की सेवा करने के लिए उत्साह रहना चाहिए। मैं पैसा देकर नौकर नहीं रखूंगा। पैसा देकर बर्तन, पैसा देकर रसोई करवाना यह सब ठीक नहीं है। प्रभुपाद के समय में यह नहीं था। अभी इस युग में ये सब आ रहा है। वह जब गुरुजी को बार-बार बोलने लगा नौकर रखने के लिए, तब गुरुजी अपने माथे पर हाथ दे दिया, मैंने देखा, मैं तो सामने ही था। अभी के जमाने में सेवा करने वाले लोग चले गए। सब आराम में रहना चाहते हैं, यह सोचकर गुरूजी हताश हो गए।

अंत में गुरूजी ने बाहर से बोल दिया, “अच्छा रख लो।” किन्तु भीतर से बोला नहीं। अभी ऐसा युग आ रहा है, यह ठीक नहीं है। सेवा का महत्व नहीं समझा। बहुत सेवक हैं, किन्तु सेवा करने की बात पर बिजली गिरती है।

लोकनाथ गोस्वामी का कोई सेवक नहीं है, स्वयं ही सब कुछ करते हैं। जिस प्रकार बच्चे के ऊपर माता का प्रेम रहता है, माता कितना कष्ट उठाती हैं। हम जब बच्चे थे, तो बिस्तर में ही टट्टी कर देते थे, माता कभी घृणा नहीं करती थी। हमारी माता बीमार थी, उनको बिस्तरे से उठने को मना है। मैं तो बच्चा था, गंदे, मैले कपड़े पहनकर घूमता था। तब माता को सहन नहीं हुआ, उन्होंने गंदे कपड़े उतार कर नये कपड़े पहना दिए और जो पुराने कपड़े हैं, उसको साबुन देकर धोने को गए। बीमार है, तब भी वे सब कुछ करती हैं। कैसे कर सकते हैं? उनको सहन नहीं हुआ कि मेरे बच्चे को देखने वाला कोई नहीं है। दुनिया के लोग जो भगवान के लिए नहीं कर सकते हैं, वे लोग जब संसार में जाएं और इस प्रकार उनका जो संबंध हो जाए, जहाँ वास्तव प्रीति नहीं है, तब भी वे लोग रात दिन परिश्रम करते हैं। किन्तु भगवान की सेवा करने से मर जाएगा। संबंध नहीं है। वास्तव में गड़बड़ यही है।

वृन्दावन में राधा विनोद सेवा संपत्ति लिखा, राधा माधव सेवा संपत्ति, राधा गोविंद सेवा संपत्ति, राधा श्यामसुंदर सेवा संपत्ति इस तरह लिखा हुआ है ‘सेवा संपत्ति’ अर्थात् सेवा रूपी धन। वे उन्हें अपना धन समझते हैं। लोकनाथ गोस्वामी, ‘राधा विनोद’ को कहाँ रखेंगे? उनको रहने के लिए तो कोई स्थान होना चाहिए। तब उन्होंने एक झोला बनाया, छोटा मूर्ति है, उस झोला के अंदर में राधा विनोद को रख देंगे। झोला में ही भगवान बहुत प्रसन्न हैं। प्रेम से भगवान को वशीभूत किया जाता है। ऐसे बिल्डिंग बनाने से नहीं होता है। भगवान माधुर्य स्वरूप है।

भगवान को कोई धोखा नहीं दे सकता है। बहुत बड़ा मंदिर बनाते हैं और विग्रह भी प्रतिष्ठा करते हैं, किन्तु सेवा करने के लिए सेवक मिलता नहीं है। कहने के लिए हजारों सेवक हो गए, किन्तु सेवा के लिए समय नहीं मिलता और दुनिया के लिए बहुत समय मिलता है ऐसा क्यों? क्योंकि वहाँ पर (संसार में) संबंध है, यहाँ पर संबंध हुआ नहीं है।

अभी वही लोकनाथ गोस्वामी वृंदावन में आ गए और गोपाल भट्ट गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रूप गोस्वामी को मिले। सब मंजरी हैं। गोपाल भट्ट गोस्वामी ‘गुण मंजरी’, सनातन गोस्वामी ‘रति मंजरी’ और रूप गोस्वामी ‘रूप मंजरी’ है। उनको मिलने से एक भूमिका का चिंता स्रोत हो गया। आराध्य कौन है, राधा-कृष्ण? केवल कृष्ण नहीं राधा-कृष्ण। केवल नारायण नहीं लक्ष्मी-नारायण, केवल राम नहीं सीताराम।

लोकनाथ गोस्वामी, ‘राधा विनोद’ को लेकर वहाँ पर चले गए और सेवा करके अपने झोला में रख देते हैं। वे किसी को मंत्र नहीं देते थे, शिष्य नहीं बनाते थे। आजकल तो शिष्य बन जाओ, नियम पालन नहीं होता, तो बाद में अच्छे से हो जाएगा। शिष्य बनाने के लिए बहुत स्पर्धा (कंपटीशन) है। उनके एक लाख शिष्य हैं, हमारे दो लाख होने चाहिए—सबकी इस प्रकार की सोच है। किन्तु लोकनाथ गोस्वामी इसको घृणा करते थे। वे कहते थे, मैं शिष्य नहीं करूंगा। प्रतिष्ठा की गंध से डर लगता था। कविराज गोस्वामी की उनकी बारे में कुछ लिखने की इच्छा थी, किन्तु उन्होंने स्वयं मना कर दिया, मेरे बारे में नहीं लिखना। इसलिए कविराज गोस्वामी ने केवल नाम लिख दिया।

हरीभक्ति विलास मंगलाचरण में सनातन गोस्वामी ने केवल उनका नाम लिखा। उन्होंने निषेध कर दिया कि मेरा नाम नहीं लिखना। लोकनाथ गोस्वामी प्रतिष्ठा को इतना गंदा समझते थे। कनक को जय करना सहज हो सकता है, किन्तु प्रतिष्ठा को जय करना बहुत कठिन है, लोकनाथ गोस्वामी प्रतिष्ठा की गंध से भी भय करते थे। वही लोकनाथ गोस्वामी यदि किसी को निर्देश कर दे, या किसी के बारे में बोल दे तो क्या उनका भय रहेगा?

जब कृष्णानंद दत्त के पुत्र नरोत्तम ठाकुर कृष्ण प्रेम में निमग्न है, सब समय गौर हरि, गौर नित्यानंद का नाम लेते हैं। महाप्रभु वृंदावन की ओर जाते समय कानई नाटशाला से वापस आए, जब सनातन गोस्वामी ने कहा इतने लाख लोगो के साथ परिक्रमा लेकर जाना लिए ठीक नहीं है। नरोत्तम तो उस समय के बहुत बाद में प्रकट हुए, वे ‘चंपक मंजरी’ हैं।

किन्तु उस समय महाप्रभु ने नरोत्तम, नरोत्तम नाम पुकारा क्यों? क्योंकि कृष्ण उनके प्रेम से आबद्ध हैं। सब पूछते हैं, ‘नरोत्तम’ कौन है? नित्यानन्द प्रभु ने सब के सन्देह को दूर करने के लिए महाप्रभु से पूछा, नरोत्तम कौन है? महाप्रभु ने कहा, मैं जब संन्यास ले कर चला गया था, तब तुम मेरे लिए बहुत रोये थे, वही प्रेम मैंने पद्मावती नदी में नरोत्तम को देने के लिए रख दिया था। जिस स्थान पर पद्मा नदी में प्रेम रखा था, उस स्थान का नाम पहले कुतुबपुर था। मैंने पद्मा नदी को उनको प्रेम देने के लिए बोल दिया। नित्यानन्द प्रभु ने स्वप्न में नरोत्तम को बोल दिया, देखो चिंता की बात नहीं है, महाप्रभु ने तुम्हें देने के लिए पद्मा नदी में प्रेम रख दिया है। पद्मा नदी केवल नदी नहीं है, नदी के पीछे चेतन हैं। शरीर के पीछे चेतन नहीं रहने से मुर्दा बन जाएगा।

All material existence in this world has got no value without their relation to knowledge principle.

एक घड़ी स्वयं आकर नहीं कहती कि मैं घड़ी हूँ। चेतन कहते हैं, घड़ी को घड़ी। A clock has no independent existence of its own. No material thing, in this world has got independent existence. Only conscious principle imparts value to matter.

भगवान सब के कारण हैं। वही भगवान परमानंदमय स्वरूप हैं। पूर्ण सच्चिदानंद विग्रह हैं।

जब नरोत्तम ठाकुर ने स्वप्न देखा, तो स्नान करने के लिए पद्मा नदी में गए। पद्मा नदी ने महाप्रभु से पूछा था यहाँ पर तो बहुत आदमी स्नान करते हैं, मैं कैसे समझूंगी कि यह नरोत्तम है? महाप्रभु ने कहा था, जब नरोत्तम स्नान करेगा, तो तुम्हारा पानी उछल उठेगा। वही जब नरोत्तम ने जब स्नान किया तो पानी उछल उठा। जैसे गंगा केवल पानी नहीं है, गंगा देवी है, वैसे ही पद्मादेवी देवी है, उन्होंने आकर नरोत्तम से कहा, महाप्रभु ने आपको यह प्रेम दिया है। प्रेम प्राप्त होने के साथ-साथ वे बदल गए।

राजा का लड़का है, किन्तु सब भूल गया और कृष्ण-कृष्ण नाम पुकारने लगा। हा कृष्ण! हा राधे! यह चिंता करके घर से चले गए, कोई उनको रोक नहीं सका। हाथ में पैसा भी नहीं लिया, खाना भी नहीं लिया, वृंदावन की तरफ दौड़ रहे हैं। 3 दिन, 3 रात नहीं खाया। पैर में फुंसी हो गया, चल नहीं सकते, मूर्छित होकर गिर पड़े। तब महाप्रभु गोप बन कर आए, आकर एक लौटा दूध दिया। और कहा दूध पान करो। दूध पान करने की भी उनकी शक्ति नहीं है। तब रूप-सनातन वहाँ प्रकट हो गए। रूप मंजरी, रति मंजरी प्रकट हो गए। उनके शरीर पर हाथ दिया। उनको खिला दिया, समूर्ण शक्ति संचारित कर दिया। “राखे हरि, तो मारे के, मारे हरि, तो राखे के” पूर्ण शक्ति प्रदान की, वे फिर चलने लगे। ऐसा करके वृंदावन में पहुंचे। वहाँ लोकनाथ गोस्वामी को देखकर उनको आकर्षण हुआ। उन्होंने निर्णय कर लिया, मैं इन्हीं से मंत्र लूंगा। लोकनाथ गोस्वामी ने कहा, “मैं किसी को शिष्य नहीं करूंगा।” वे बार-बार जाते हैं, किन्तु लोकनाथ गोस्वामी मना कर देते हैं। उस समय हम लोग ने भी देखा, पहले जब वृंदावन में और और ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते थे, हम लोग दूर मैदान में जाकर मल त्याग करते थे, अभी के जैसी व्यवस्था पहले नहीं थी।

तब नरोत्तम ठाकुर ने देखा कि हमारे गुरुजी यह स्थान पर मल त्याग करने जाते हैं। वह स्थान बहुत गंदा था, क्योंकि वहाँ बहुत आदमी मल त्याग करने जाते थे। नरोत्तम ठाकुर ने स्वयं जाकर मिट्टी लिया, चूना लिया, झाड़ू लिया और वहाँ जाकर सारा स्थान साफ करके एकदम कोई गंध वहाँ नहीं रखा। स्थान एकदम साफ-सुथरा बना दिया, वहाँ हाथ साफ करने के लिए अच्छी साफ मिटटी भी रख दी, वे हर रात्रि इस प्रकार करने लगे। लोकनाथ गोस्वामी देखते हैं कि कोई गंध नहीं है, साफ है। यह किसने किया? 2 दिन, 3 दिन तक प्रतिदिन ऐसा होता रहा। एक रात्रि, वे यह देखने के लिए पेड़ के पीछे छुप कर बैठ गए कि प्रतिदिन कौन यह कार्य करता है? मध्य रात्रि में एक आदमी सफाई करने के लिए आया।

तब लोकनाथ गोस्वामी खड़े हो गए। कौन है? कौन यहाँ पर आया? क्या नाम है? नरोत्तम। तुम कृष्णानंद राजा के लड़के हो और ऐसा गंदा काम करते हो। ऐसा नहीं करना। नरोत्तम ठाकुर रोने लगे और उनके पैर में गिर गए। तो वे बाध्य हो गए।

जब एकबार गुरु ने किसी को ग्रहण कर लिया तो उसके पीछे भगवान खड़े हो जाते हैं। जैसे प्रह्लाद चरित्र हम लोग सुनते हैं, किन्तु भूल जाते हैं। जब हिरण्यकश्यपु ने सुना कि प्रह्लाद महाराज की संगत से जितने असुर बालक हैं, सब वैष्णव हो गए। तो उसने सोचा कि यह तो सर्वनाश हो गया। हमारे सम्पूर्ण वंश का सर्वनाश कर दिया।

हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद महाराज से पूछा,”देवराज इंद्र मुझ से भयभीत होता है, सब भयभीत होते हैं, तू डरता नहीं? किस के बल से बलि होकर तुम्हें मुझ से भय नहीं लगता?”

प्रह्लाद ने कहा, “भगवान् विष्णु के बल से, जिनका बल आप में हैं, मुझ में हैं, सब में हैं।”

“तुमने फिर विष्णु का नाम लिया? विष्णु मेरा दुश्मन है। वह कहाँ रहता है?”

” वे सर्वत्र हैं।”

“सर्वत्र है?”

“हाँ!”

“तो ये खंबे में क्यों नहीं दिखता?”

“यहाँ पर भी है।”

हिरण्यकशिपु ने कहा,”पहले मैं तेरे भगवान को ही खत्म करता हूँ। बाद में तुझे देखता हूँ।”

ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु ने खंबे पर एक जोर से घूसा मारा, उससे ऐसी भीषण आवाज हुई कि जैसे ब्रह्मांड फट गया हो।

सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितं
व्याप्तिं च भूतेष्वखिलेषु चात्मन: ।
अद‍ृश्यतात्यद्भ‍ुतरूपमुद्वहन्
स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम् ॥
(श्रीमद् भागवतम् 7.8.17)

भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं। अपने भक्तों की बात सत्य करने के लिए भगवान वही खंबे से प्रकट हो गए। बहुत अद्भुत अवतार लेकर प्रकट हुए। ‘स्तम्भे सभायां न मृगं न मानुषम्’ मृग का एक अर्थ हिरन होता है और एक अर्थ प्राणी भी होता है, और मृगेंद्र अर्थात् शेर, जो प्राणियों में श्रेष्ठ है। ‘न मृगं न मानुषम्’ आधा शेर और आधा मनुष्य मृगेंद्र रूपम। ना ही पूरा शेर है ना ही मानुष। ‘नरसिंह’।

केवल प्रहलाद के यह वाक्य ‘हाँ, खंबे में भी है’ को सत्य करने के लिए वे खम्बे से प्रकट हो गए। भगवान इसी प्रकार हैं, भक्त की कृपा यदि प्राप्त हो जाए तो, भगवद कृपा भक्त कृपा अनुगामिनी अर्थात् भक्तों कृपा से भगवान की कृपा अनिवार्य ही मिलेगी। चिंता की बात नहीं है। निश्चित रूप से मिलेगी। संदेह नहीं है।

आज लोकनाथ गोस्वामी की तिरोभाव तिथि है। प्रतिदिन ही उनको स्मरण करना चाहिए, वे भगवान के निजजन हैं, पार्षद हैं।

अनार्पित चरिम चिरात करुणयावतीर्णोह।
कलौ उन्नत उज्वल रस स्व-भक्ति-श्रीयाम।।
(श्री चै.च आदि लीला 1. 4)

उन्नत उज्जवल रस, वही प्रेम देने के लिए महाप्रभु आए, राधा-कृष्ण मिलित तनु होकर प्रेम सबको वितरण करने के लिए आये। उसमें कुछ विचार नहीं किया। और हमारे प्रभुपाद जी के प्रणाम मंत्र में कहते हैं,

नमो ॐ विष्णुपादाय कृष्ण प्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्तिसिद्धांत-सरस्वतीति नामिने।।

गौरांग महाप्रभु स्वयं करुणामय है, उनकी करुणा विग्रह मूर्ति हमारे प्रभुपाद हैं। शिष्य गुरु की सेवा करते हैं, किन्तु यहाँ पर गुरु शिष्य की सेवा करते हैं, शिष्य को कहते हैं, “तुम यहीं रहो, खाना पीना हम देंगे, सब समय भगवान का नाम करो।” वे गौरशक्तिविग्रह हैं।

लोकनाथ गोस्वामी की आज तिरोभाव तिथि है। तिरोभाव तिथि में नियम होता है, उनको स्मरण करना। उनकी कृपा प्रार्थना करना, उनका महात्म्य कीर्तन करना। कैसे करेंगे? वे तो अप्राकृत हैं। भगवान भी अप्राकृत हैं। भक्त भी अप्राकृत है। जितना अपने हृदय में उनका महात्म्य प्रकाशित होगा, उतना ही कीर्तन करेंगे। भगवान का महात्म्य कीर्तन करके कभी समाप्त नहीं कर सकते हैं। जो भक्त, भगवान को वशीभूत कर लेते हैं, वे भगवान से भी बड़े हैं। हम हमारे गुरुजी का महात्म्य कीर्तन करके समाप्त कर देंगे, ऐसा कभी भी नहीं हो सकता। जितना अपने हृदय में प्रकाशित हुआ, उतना हम कर पाएंगे। जब हृदय से हम उनके चरण में शरण ले, तब होगा।

लोकनाथ गोस्वामी के सेवित राधा विनोद विग्रह वृंदावन में, गोकुलानंद मंदिर में हैं। निकट में ही उनका समाधि मंदिर है। वहाँ नित्य उनकी सेवा होती है। इसके बाद हम उनकी समाधि मंदिर को प्रणाम करते हैं, उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं, जब वृंदावन परिक्रमा होती है।

चैतन्य महाप्रभु के पार्षद परम कृपालु हैं। एक और बात यहाँ कहनी है, नरोत्तम ठाकुर को लोकनाथ गोस्वामी ने दीक्षा मंत्र दिए, वे वृन्दावन में रहकर सेवा करते हैं, किन्तु राजा के लड़के हैं तो विशेष व्यक्ति को बुलाकर बिठाते हैं, खिलाते हैं इत्यादि। और लोकनाथ गोस्वामी तो विविक्तानंदी है। सब समय भगवान का नाम, लीला कीर्तन करते हैं तो लोक नाथ गोस्वामी ने नरोत्तम ठाकुर को बुलाकर कह दिया कि तुम्हारा तो बहुत काम है। तुम्हें अभी उत्तर बंग में जाना पड़ेगा। वहाँ चले जाओ, वहाँ जाकर खेतुरी धाम में विग्रह प्रतिष्ठा करो। अभी दो तरफ की बात है । एक बात है कि हम लोग समझते हैं कि जो दुनिया में किसी तरह का परोपकार (philanthropic work) करते हैं वे बहुत बड़े होते हैं, लोग उनको बहुत सम्मान करते हैं, किन्तु लोकनाथ गोस्वामी ने यहाँ यह शिक्षा दी कि भगवान की सेवा करने से सब की सेवा हो जाती है।

देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां
न किङ्करो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना य: शरणं शरण्यं
गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥
(श्रीमद् भागवतम् 11.5.41)

संसार के समस्त कर्तव्य छोड़कर जो भगवान की सेवा करते हैं, उनका देवता का ऋण, ऋषि का ऋण और जो प्राणियों का, रिश्तेदारों का, मनुष्य का, पितृ पुरुष का सबका ऋण चुकता हो जाता है। दुनियादारी का कर्तव्य छोड़कर, जो एकमात्र शरण्य मुकुंद को आश्रय करते हैं, उनकी सेवा करते हैं, वे किसी के भी ऋणी नहीं रहते हैं। मूल में पानी डालने से वृक्ष के प्रत्येक अंग को पानी मिल जाता है। अलग से पानी देने की आवश्यकता नहीं है।

वेद व्यास मुनि ने भागवत में शिक्षा दी कि जैसे पेट को भोजन देने से सम्पूर्ण शरीर को पोषण मील जाता है, वैसे श्री हरि की सेवा करने से हर एक की सेवा हो जाएगी। इसलिए लोकनाथ गोस्वामी ने नर्रोतन ठाकुर को प्रचार करने के लिए भेजा। श्रीनिवासाचार्य ने नरोत्तम ठाकुर को समझाया चिंता मत करना आपके गुरुजी ने देखा कि आपको इस कार्य में रुचि है, इसलिए आप को प्रचार करने के लिए भेजा। नरोत्तम ठाकुर ने उत्तर बंग में मणिपुर तक प्रचार किया। वहाँ नरोत्तम ठाकुर की कृपा से सब वैष्णव हो गए।

श्यामनन्द प्रभु ने उड़ीसा में प्रचार किया। श्रीनिवासाचार्य प्रभु वीर हंबीर राजा का उद्धार किया, और बहुत स्थानों में प्रचार किया। भगवान की सेवा करने से हम किसी के पास ऋणी नहीं रहेंगे। जब यह विश्वास नहीं हो तो हम कैसे भजन करेंगे?

आज लोकनाथ गोस्वामी का पादपद्म में अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करके उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करते हैं। वे परम दयालु है। वे शिष्य नहीं बनाते। किन्तु उनके माध्यम से ही भगवान सबको कृपा करते हैं। गुरु महाराज कहते हम गुरु हो गए और शिष्य बना लेंगे ऐसी बात नहीं है। कोई वैष्णव शिष्य नहीं बनाते हैं। वैष्णव भगवान की सेवा करते हैं, एक विमुख व्यक्ति को भगवान् से उन्मुख करने से भगवान् प्रसन्न होते हैं, इसलिए गुरु उपदेश करते हैं। बाहरिक दृष्टी से उपदेश देने वाला गुरु और लेने वाला शिष्य कहलाता है, किन्तु गुरु स्वयं अपने कभी गुरु नहीं समझते। वे भगवान की सेवा के लिए उपदेश करते हैं।

एक मनुष्य को समझाकर जो भगवान के प्रति उन्मुख करते हैं, भगवान उनसे प्रसन्न हो जाते हैं। इसलिए भक्त की कृपा से भगवान की कृपा आ जायेगी। और कोई समस्या नहीं रहेगी। आज उनके पादपद्म में साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, उनका दर्शन तो नहीं किया। हमारे परम गुरुजी का भी दर्शन नहीं किया। हमारे गुरुजी का दर्शन किया, इसलिए उनके पादपद्म में साष्टांग दण्डवत प्रणाम करते हुए उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ, जानते हुए, नहीं जानकर जितने अपराध किए, वे क्षमा करें, उनके पादपद्म की सेवा प्रदान करें, उनके आराध्य देव की सेवा प्रदान करें।

18 July 2006