वेदों, शास्त्रों, पुराणों, परमार्थ स्मृति—श्रीहरिभक्तिविलास तथा अन्यान्य धर्म-शास्त्रों में चातुर्मास्य-व्रत की महिमा वर्णित है। ऐसा उल्लेख किया गया है कि चातुर्मास्य-व्रत पालन करने से अनन्त काल तक स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार कर्मकाण्डात्मक शास्त्रों में विभिन्न प्रकार की फलश्रुतियाँ पाई जाती हैं। शास्त्र इस व्रत को केवल उन व्यक्तियों के लिए निर्दिष्ट नहीं करते जो इसे सांसारिक लाभ के लिए करते हैं अपितु ज्ञानी (एक-दण्डी) व भक्त (त्रि-दण्डी) के लिए भी करते हैं। चातुर्मास्य-व्रत रखने की व्यवस्था सभी आश्रमों के व्यक्तियों के लिए है (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम)।

फलकामी कर्मियों तथा निष्काम भक्तों के व्रत पालन की आनुष्ठानिक क्रियाओं में कुछ पार्थक्य होने पर भी सनातन-धर्म का अवलम्बन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति ही व्रत का सम्मान करता है। कर्मी, ज्ञानी तथा भक्त तीनों सम्प्रदायों में चातुर्मास के समय भोग तथा त्याग की कठोरता में समान भाव होने पर भी साधक-भक्त का व्रत धारण करने का मुख्य उद्देश्य सर्वतोभाव से अपनी इन्द्रियों को भक्त एवं भगवान की सेवा में आत्मनियोग करना है। वे कर्मियों की तरह लौकिक अथवा पारत्रिक (स्वर्गादि) फल लाभ करने अथवा ज्ञानियों की तरह मोक्ष प्राप्त करने की आशा से इस व्रत का पालन नहीं करते।

कलियुग-पावनावतारी श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भी अपनी दक्षिण यात्रा के समय श्रीरंग क्षेत्र में श्रीवैंकट भट्ट के गृह में चातुर्मास्य काल में चार मास तक अवस्थान किया था। वे श्रीक्षेत्र में भी चातुर्मास्य काल को भक्तगणों के साथ कृष्ण-कथा के आनन्द में व्यतीत करते थे। इसका उल्लेख श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी रचित श्रीचैतन्य चरितामृत में पाया जाता है।

एइमत महाप्रभु भक्तगण-सङ्गे।
चातुर्मास्य गोङाइला कृष्णकथा-रंगे॥
(चै॰च॰अ॰ 10.133)

“इस प्रकार श्रीमन्महाप्रभु ने अपने भक्तों के साथ चातुर्मास्य को कृष्ण कथा रूपी आनन्द में व्यतीत किया।”

जो चातुर्मास्य-व्रत का पालन करने में असमर्थ हैं, वे गृहस्थ हों अथवा त्यक्ताश्रमी, उन्हें ‘ऊर्ज्जाविधि’ अर्थात् कार्तिक मास नियम सेवा का अवश्य पालन करना चाहिए, जो कि भक्ति के चौंसठ अंगों में अन्यतम है। इसका अर्थ यह नहीं कि भक्तों के लिए चातुर्मास्य-व्रत का पालन करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि उपर्युक्त निर्देश केवल उन व्यक्तियों के लिए है जो चार महीने तक व्रत करने में असमर्थ हैं।

चातुर्मास्य काल निर्णय करने के सम्बन्ध में वराह पुराण में इस प्रकार लिखा गया है:-

आषाढ़ मास की शुक्ला द्वादशी से कार्तिक मास की शुक्ला द्वादशी तक।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा से कार्तिक मास की पूर्णिमा तक।
सौर-श्रावण से प्रारम्भ होने वाली कर्कट संक्रान्ति से सौर-कार्तिक तक।
श्रीहरिभक्तिविलास में भी चातुर्मास्य-व्रत की समय-सूची का उल्लेख है।

“चातुर्मास्य-व्रत भक्ति के साथ शयन-एकादशी, कर्कट संक्रान्ति अथवा आषाढ़ पूर्णिमा से प्रारम्भ करना चाहिए।”

चातुर्मास्य-व्रत पालन करने के सम्बन्ध में भविष्य पुराण में कुछ इस प्रकार से वर्णित है—

“जो चातुर्मास का समय नियमों का पालन किए बिना तथा भगवन्नाम किए बिना व्यतीत करता है, उसे जीवित रहते हुए भी मृत तुल्य समझना चाहिए।”

शास्त्रों में चातुर्मास्य-व्रत पालन करने के लिए कठोर नियमों की व्यवस्था दी गई है, किन्तु साधकगण का कर्तव्य है कि के कम से कम पटल (परवल), सीम (विभिन्न प्रकार की फली), बैंगन, लौकी (घिया), बरबटी, कलमी-साग, पुई-साग तथा काली (उड़द) की दाल का चारो महीनों में ही वर्जन करें।

समय के अनुसार उपलब्ध (कालोचित) फल-मूल को खाने के लिए हमें लोभ होता है। वैसे लोभनीय फल-मूल का प्रचुर मात्र में सेवन करने से भगवान श्रीहरि का विस्मरण होता है एवं जड़ वस्तुओं में हमारी आसक्ति अत्यधिक बढ़ती है। अतएव चातुर्मास में जिह्वा के रुचिकर खाद्य पदार्थों का वर्जन करते हुए निरन्तर हरि-कीर्तन करने की विधि दी गई है।

इसके अतिरिक्त श्रावण मास में किसी भी प्रकार का साग (पत्तेदार सब्ज़ियाँ), भाद्र मास में दही, आश्विन मास में दूध व कार्तिक मास में मांसाहार (आमिष भोजन) वर्जित है।

कार्तिक मास में आमिष (अमेध्य) वर्जन के नियम का अर्थ यह नहीं कि चातुर्मास के बाकी तीन मास में आमिष खा सकते हैं। जब चातुर्मास-व्रत काल में सामान्य रुचिकर द्रव्य ही वर्जित हैं, तो ऐसा कैसे सोचा जा सकता है कि आमिष-भक्षण निषिद्ध नहीं है? विशेषतः वैष्णवगण विष्णु-प्रसाद के अतिरिक्त अन्य कुछ ग्रहण नहीं करते। अतः उनके सम्बन्ध में इस प्रकार का प्रश्न सम्पूर्ण रूप से निरर्थक है। इस संदर्भ में आमिष शब्द का अर्थ भोग्य अथवा लोभनीय स्वादिष्ट वस्तु समझना होगा। कार्तिक मास में इस प्रकार की भोग्य वस्तुओं के वर्जन सम्बन्ध में कठोर नियम पालन किए जाते हैं। कार्तिक मास में शरीर पर तेल आदि का लगाना अथवा उसका सेवन करना निषिद्ध है। कार्तिक-व्रत में अनेक लोग जीवन धारण करने के लिए भोजन के चार रसों अर्थात् चर्व्य (चबाए जाने वाले), चोष्य (चूसे जाने वाले), लेह्य (निगले जाने वाले) तथा पेय (पान करने योग्य) पदार्थों का वर्जन करने के उद्देश्य से केवल उबले हुए चावल (आतप चावल: सहजता से पकने वाले चावल) ग्रहण करते हैं। कई व्यक्ति केवल ऐसे खाद्य पदार्थ खाते हैं जो घी में पकाए जाते हैं।

संभवपर होने से चातुर्मास्य काल में व्रती दिन में एक ही बार भोजन करता है एवं प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात् भगवान श्रीहरि का निष्ठा के साथ अर्चन करता है। भगवान श्रीहरि की शयन-लीला काल में नरम व आरामदायक गद्दे पर सोना निषिद्ध है। भूमि-शयन ही श्रेयस्कर है। हरि-शयन काल में केश, दाड़ी तथा नाखून आदि का शौरकार्य (उनको काटना) वर्जित हैं। ऐसा करने से विलासिता बढ़ती है।

जो लोग किसी भी शारीरिक रोग अथवा अभाव के कारण चातुर्मास्य-व्रत का यथायथ पालन करने में असमर्थ हैं, उन्हें कम से कम प्रतिदिन एक लाख हरिनाम एवं श्रीभगवद्कथा का श्रवण-कीर्तन-स्मरणादि यत्न के साथ नियमित रूपसे करना चाहिए। भक्तिपथ में चातुर्मास काल में श्रीविष्णु-वैष्णवों की सेवा विशेष रूप से करणीय है।

–श्री चैतन्य वाणी, १९६१ संख्या – ६, पृष्ठा १४२-१४३