हरिभजन में निपुणता

दश अपराध छाड़ि नामेर ग्रहण।
इहाइ नैपुण्य हय साधन भजन ।।

दसों अपराधों को छोड़कर हरिनाम करना ही भजन-साधना में निपुणता है।

नाम-अपराध का गुरुत्व

अतएव भक्तिलाभे यदि लोभ हय।
दश अपराध छाड़ि’ करि नामाश्रय ।।

एक एक अपराध सतर्क हइया।
यतनेते छाड़ि’ चित्ते विलाप करिया ।।

नामेर चरणे करि दृढ़ निवेदन।
नामकृपा ह’ले अपराध विध्वंसन ।।

अन्य शुभकर्म नाम अपराध क्षय।
कोन प्रायश्चित – योगे कभु नाहि हय ।।

यदि किसी को भक्ति प्राप्त करने का लोभ है तो उसको दस प्रकार के नामापराधों को यत्नपूर्वक छोड़ करके हरिनाम करना चाहिये। एक-एक अपराध से सतर्क रह करके, चित्त में विलाप करते हुए, यत्न से इनका त्याग करना चाहिये। हरिनाम प्रभु के चरणों में निवेदन करना चाहिये कि आप कृपा करके मेरे सभी अपराधों को ध्वंस कर दो क्योंकि हरिनाम प्रभु की कृपा होने से ही ये अपराध खत्म होंगे। नाम-प्रभु की कृपा के बिना अन्य किसी भी प्रकार के प्रायश्चित से अपराध क्षय नहीं हो सकते।

नाम-अपराधों को त्यागने का उपाय

अविश्रान्त नामे नाम – अपराध याय।
ताहे अपराध कभु स्थान नाहि पाय ।।

दिवारात्र नाम लय अनुताप करे।
तबे अपराध याय नामफल धरे ।।

अपराध गते शुद्ध नामेर उदय ।
शुद्धनाम भावमय आर प्रेममय ।।

दश अपराध येन हृदये ना पशे।
कृपा कर महाप्रभु, मजि नामरसे ।।

ए भक्तिविनोद हरिदास – कृपाबले ।
हरिनामचिन्तामणि गाय कुतूहले ।।

भोजन व विश्राम आदि आवश्यक दैहिक कार्यों को छोड़कर बाकी किसी भी काम में समय को व्यर्थ न गँवाकर हरिनाम करते रहने से तथा भोजन आदि के समय में भी हरिनाम का भजन करते रहने से सारे नामापराध चले जाते हैं क्योंकि निरन्तर हरिनाम करते रहने से अपराध करने का अवसर ही नहीं रहता। यदि कभी अपराध हो भी जाये तो रात-दिन नाम लेते हुए पश्चाताप् करना चाहिये, जिससे अपराध नष्ट हो जाते हैं और हरिनाम का मुख्य – फल मिलता है। अपराध नष्ट होने से ही शुद्ध नाम उदित होता है। जो कि भावमय और प्रेममय होता है।

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी बड़ी दीनता के साथ भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के चरणों में प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि हे महाप्रभु! मुझ पर ऐसी कृपा करो, जैसे मैं सदा सर्वदा इन सभी अपराधों से बचकर शुद्ध नाम के रस में ही मग्न रहूँ।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि मैं नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर की कृपा से ही कौतूहल पूर्वक ‘हरिनाम चिन्तामणि’ का गान करता हूँ।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रचारित धर्मकी दो विशेष बातें

श्रीमन्महाप्रभु द्वारा प्रचारित धर्ममें दो विशेष बातें हैं- (१) रुचिपूर्वक हरिनाम करना और (२) जीवोंपर दया करना। ये दोनों बातें जिस व्यक्तिमें जितनी अधिक परिमाणमें रहती हैं, वह उतना ही उत्तम वैष्णव है। अन्यान्य सद्‌गुणोंको प्राप्त करनेके लिए पृथक् रूपसे कोई चेष्टा करनेकी आवश्यकता नहीं है। भक्तमें समस्त गुणोंका उदय अपने आप होता है। भक्तजन स्वभावसे ही उत्तम श्रेयका आचरण करते हैं तथा श्रेयजनक आचरणसे प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। कृष्णका दास हो जानेपर जीवोंको किसी प्रकारका दुःख या कष्ट नहीं होता । गुरु और आत्मीयवर्ग किस समय सङ्गके योग्य होते हैं-इस विषयमें सतर्क रहना आवश्यक है। जातरति-भावुक भक्तका जीवन अत्यन्त पवित्र होता है। उनकी रुचि सर्वदा विशुद्ध होती है। (२३)

साध्य-साधनतत्त्व

इन सब शिक्षाओं का संक्षिप्त सार श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी को श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीचैतन्यचरितामृत में इस प्रकार बतलाया है-

हाँसि’ महाप्रभु रघुनाथेरे कहिल।
“तोमार उपदेष्टा करि’ स्वरूपेरे दिल ॥
‘साध्य’- ‘साधन’ तत्व सिख इहार स्थाने।
आमि जत नाहि जानि, इहो तत जाने ॥
तथापि आमार आज्ञाय यदि श्रद्धा हय।
आमार एइ वाक्ये तुमि करिह निश्चय ।
ग्राम्यकथा न शुनिबे ग्राम्यवार्त्ता न कहिबे।
भाल ना खाइबे, आर भाल न परिबे ॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे।
ब्रजे राधाकृष्ण-सेवा मानसे करिबे ॥
एइ त’ संक्षेपे आमि कैलूँ उपदेश।
स्वरूपेर ठाँइ इहार पावे सविशेष ।।

(चै. च. अ. ६/२३३-२३८)

इस उपदेश में महाप्रभुजी ने अत्यन्त गूढ़ रूपमें श्रीरघुनाथदास गोस्वामी को अष्टकालीय-भजन-प्रणालीका उपदेश किया है। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र श्रीस्वरूप दामोदरसे प्राप्त सविशेष उपदेशों का वर्णन किया जाएगा। भक्तगण उन्हें ग्रहण करने के लिए योग्य अधिकारी बननेका प्रयास करें।

भावभक्ति को लक्ष्यकर वैधीभक्तिकी जो उत्तम और एकान्त भावसे अनुशीलनकी बुद्धि होती है, और प्रेमभक्ति के आविर्भाव को लक्ष्यकर भावभक्ति की जो निर्बन्धित अनुशीलनकी बुद्धि होती है, उसे निर्बन्धिनी मति कहते हैं। ऐसी निर्बन्धिनी मति रहनेसे अत्यन्त शीघ्र ही भक्ति-सिद्धि होती है। इसीका दूसरा नाम उपयुक्त यत्नाग्रह है। साधकगण सर्वप्रथम निर्बन्धिनी मतिका आश्रय ग्रहण करें। यत्नाग्रह परित्याग करके इस विषयमें उदासीन होना उचित नहीं है।

श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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वैष्णवों की क्रियामुद्रा को समझना सभी के भाग्य में नहीं होता है।

यदि कोई अज्ञातवशतः मुझ पर कटाक्ष करता है, तो इससे मेरा उपकार ही होता है । किन्तु मेरे नित्य आराध्य श्रीगुरु एवं वैष्णवों से विद्वेषकर कोई अपने पितृपुरुषों के साथ ही नरकगामी होता है, इसी का मुझे दुःख है।

दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर अपना मंगल साधन करना ही बुद्धिमान व्यक्ति का कार्य है। मिथ्याभक्त (भक्त के अभिनयकारी) का संग करना विपत्तिजनक है। जो लोग भोग और त्याग को स्वीकार करते हैं, वे लोग भक्ति के विपरीत पथ पर ही चल रहे हैं। आउल, बाउल इत्यादि ऐसे १३ अपसम्प्रदाय हैं। उनका संग ही दुःसंग है। ऐसे अध : पतित दुःसंग को अर्थात् धर्मध्वजी स्त्रीसगियों के संग को सत्संग समझने पर निश्चितरूप से अधःपतन होता है। अतः आप लोग इन विपथगामियों का कभी संग मत करना। असत् व्यक्तियों का संग करने पर अधःपतन होता है।

जड़भोगी या जड़ रस में आनन्दित व्यक्ति अदीक्षित और दिव्यज्ञान वर्जित हैं । वे लोग मिथ्याभक्त या असत् हैं । इस प्रकार असत् का संग त्याग करके सत्संग अथवा साधु एवं शास्त्रां के उपदेशे को मिलाकर जीवनपथ में अग्रसर हों।

श्रीलप्रभुपाद
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‘छाड़िया वैष्णव सेवा उद्धार पेयेछे केवा’

वैष्णव कभी भी अपने को वैष्णव नहीं समझता और वह किसी दूसरे वैष्णव से सेवा लेने में संकोच समझता है, किन्तु वैष्णव सेवा को छोड़कर जीव की गति नहीं है, इसलिए करुणामय श्रीहरि की इच्छा से जीवों का उद्धार करने के लिए वैष्णवों में व्याधि देखी जाती है। व्याधिग्रस्त अवस्था में वैष्णव कुछ करने में असमर्थ होता है तो भाग्यवान जीव को सेवा का सुअवसर मिलता है। मन्दबुद्धि एवं दुर्भाग्यशाली जीवों की वैष्णव सेवा में रुचि नहीं होती। वह अज्ञानतावश वैष्णव को कर्मफल में बन्धे जीव की तरह समझ उन पर अश्रद्धा करते हैं।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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कर्म के द्वारा समस्याओं का समाधान असम्भव

कर्म के द्वारा सचमुच सुख लाभ होता है या नहीं – इस तरह का प्रश्न आने पर समस्त शास्त्रों के सार, श्रीम‌द्भागवत ने कहा है – मनुष्य कर्ममार्ग का आश्रय करता है, उसका उद्देश्य केवल दुख का नाश करके सुख प्राप्त करना है। किन्तु अंत में देखा जाता है कि इसका फल विपरीत होता है। जिसके द्वारा दुख समाप्त होगा, ऐसा समझा गया था, किन्तु उसके द्वारा ही दुख प्राप्त होता है। जिसके द्वारा सुख का मुँह देखने की आशा जगती है, उसी के द्वारा ही दुख आकर उपस्थित हो जाता है। इसीलिए कहते हैं – मनुष्य सोचता है कुछ, लेकिन होता है और कुछ। श्रीमद्भागवत ने भी कहा है, जैसे दुख न चाहने पर भी आता है, सुख भी उसी तरह से अप्रत्याशित रूप से आ जाता है-“तल्लभ्यते दुःखवदन्यतः सुखं कालेन सर्वत्र गभीर रंहसा ।” (भाः 1/5/18)

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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सेवा के क्षेत्र की कोई सीमा नहीं

जागतिक विचार से प्रत्येक वस्तु की एक सीमा होती है। धैर्य की सीमा पार हो जाने से कई लोग विद्रोह की घोषणा कर देते हैं। तब उनसे मामूली कार्य में भी सहायता नहीं मिल पाती है। “सर्वमत्यन्तं गर्हितम्” (excess of everything is bad) – नीति शास्त्र का विचार है। यह विचार पारमार्थिक क्षेत्र में लागू नहीं होता है। भगवान् के भक्त का विचार होता है- “तोमार सेवाय दुःख हय यत, सेओ त’ परम सुख। सेवा-सुख-दुःख परम सम्पद, नाशये अविद्या दुःख।” (तुम्हारी सेवा में जितना भी दुःख होता है, वही तो परम सुख है। सेवा में मिलने वाला सुख-दुःख परम सम्पद है, उससे अविद्या रूपी दुःख का नाश होता है) -तुम इन सब विचारों को प्रचास्पार्टी के सेवकों को समझाना और महाजनवाणी के तात्पर्य को समझने के लिए कहना।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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Simply engaging the sense organs is not bhakti

We have to remove all kinds of false ego completely. Should there be any false ego, karma will predominate, not bhakti. If we do anything by means of our false ego, vanity, we will get only temporary, mundane benefits. We will become more attached to this world. This world is made of matter. Consequently, our minds will become inert like matter. Our minds will have no connection with the spiritual realm. After performing such activities, we will find ourselves in the same position as we were when we first started. We cannot get bhakti by only moving from place to place and going through motions. This is not bhakti. This is karma.

There are sense organs and objects of the sense organs. Without them, we cannot move. But, simply engaging the sense organs and the objects of sense organs is not bhakti if the ego is not correct. By performing devotional practices while deluded by egoistic misconceptions, we will achieve only material benefit. If we think “I am of Krishna! I am of the vaishnavas! I am of the guru!” while engaging the sense organs and the objects of the sense organs, we will actually be practising the devotional forms.

By the fruit we can understand whether or not we have come in contact with Krishna. When you perform any kind of bhajana, if it comes from the core of the heart, you will never be able to give up that worship of your most beloved. When you get a spontaneous glimpse of contact with Krishna, you will experience a thrilling sensation of ecstasy. How could you give that up? You will not wish to give up any form of devotion. When there is the thought in your mind to give up worship, then it means that you have not come in contact with Bhagavan and His transcendental qualities.

Srila Bhakti Ballabh Tirthayatra Goswami Maharaj

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