उन्नति का क्रम

एवम्भूत जनेर साधनदशा – प्राय ।
अति स्वल्पदिने याय कृष्णेर इच्छाय ।।

भावदशा हैते हैते प्रेमदशा हय।
प्रेमदशा सर्वसिद्धि, सर्वशास्त्रे कय ।।

तुमि बलियाछ, नाम येइ महाजन ।
लइबे निरपराधे, पावे प्रेमधन ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि शरणागत- भाव से निरन्तर हरिनाम करने वाले साधक अक्सर थोड़े दिनों के बाद ही भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से भाव की स्थिति से भगवद्- प्रेम की स्थिति में पहुँच जाते हैं। तमाम शास्त्रों के अनुसार भगवद् – प्रेम की स्थिति को प्राप्त करना ही सर्वसिद्धि है।

हे प्रभु! आपने ही तो कहा था कि जो भक्त अपराध रहित होकर हरिनाम करेगा, वही प्रेम-धन को प्राप्त करेगा।

व्यतिरेक भाव से इसकी चिन्ता

अपराध नाहि छाड़ि नाम यदि लय।
सहस्त्रसाधने ता’र भक्ति नाहि हय ।।

ज्ञाने मुक्ति’ कर्म भुक्ति’ ज्ञानी कर्मी जने।
सुदुर्लभा कृष्णभक्ति निर्मल साधने ।।

भुक्तिमुक्ति शुक्तिसम, भक्ति – मुक्ताफल।
जीवेर महिमा – भक्तिप्राप्ति – सुनिर्मल ।।

साधने नैपुण्य – योगे अत्यल्प साधने।
भक्तिलता प्रेमफल देन भक्तजने ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति अपराधों को न छोड़कर, हरिनाम करता भी है तो कड़ी मेहनत करने पर भी वह भगवान की प्रेम – भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है। ज्ञानी को ज्ञान से मुक्ति एवं कर्मी को कर्मों से भोगों की प्राप्ति तो हो जाती है, परन्तु सुदुर्लभा – भक्ति केवल शुद्ध – साधुओं के आनुगत्य में निर्मल भाव से रह करके हरिनाम की साधना करने से ही प्राप्त होती है, जो कि जीवों का परम लक्ष्य है। शुद्ध – भक्ति की तुलना में मुक्ति और भोग नगण्य हैं। साधन की निपुणता के द्वारा अति ही अल्प – समय में एवं अति ही अल्प साधना द्वारा भक्ति- लता, भक्तों को प्रेम-फल देती है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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सरल भक्त-जीवन में केवल कृष्णनामाश्रय ही सर्वोत्तम साधन है।

एतन्निर्विद्यमानानामिच्छतामकुतो भयम् ।
योगिनां नृप निर्णीतं हरेर्नामानुकीर्तनम् ॥

हे राजन्, महापुरुषों का अनुगमन करके भगवान् के पवित्र नाम का निरन्तर कीर्तन उन समस्त लोगों के लिए सफलता का निःसंशय तथा निर्भीक मार्ग है, जो समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हैं, अथवा जो समस्त भौतिक भोगों के इच्छुक हैं और उन लोगों के लिए भी, जो दिव्य ज्ञान के कारण आत्मतुष्ट हैं।

(श्रीमद्भागवत 2/1/11)

श्रीमन्महाप्रभु जी सनातन गोस्वामीको इस विषयमें शिक्षा देते हाता है।

भजनेर मध्ये श्रेष्ठ नवविधा भक्ति।
‘कृष्णप्रेम’, ‘कृष्ण’ दिते धरे महाशक्ति ॥
तारमध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम-संकीर्त्तन।
निरपराधे नाम लइले पाय प्रेमधन ॥”
(चै. च. अ. ४/७०-७१)

और भी कहते हैं-

कुबुद्धि छाड़िया कर श्रवण-कीर्त्तन।
अचिराते पाबे तबे कृष्णप्रेम-धन ॥

नीचजाति नहे कृष्णभजने अयोग्य ।
सत्कुल विप्र नहे भजनेर योग्य ॥

जेइ भजे, सेइ बड़, अभक्त-हीन छार।
कृष्णभजने नाहि जाति-कुलादि-विचार ॥

दीनेरे अधिक दया करे भगवान् ।
कुलीन, पण्डित, धनीर बड़ अभिमान ॥

(चै. च. अ. ४/६५-६८)

भगवद्भजन के जितने अङ्ग हैं, उन सभी में नौ अङ्ग प्रधान हैं। वे नौ अङ्ग हैं-श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। नवधाभक्तिके नौ अङ्गोंमेंसे किसी एक अङ्गका आचरण करनेसे भी कृष्णप्रेमकी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु उन नौ अङ्गोंमें श्रीनामका संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है। यदि निरपराध होकर हरिनामका कीर्त्तन किया जाए, तो अल्प समयमें ही श्रीनाम प्रभु कृपापूर्वक प्रेमधनको प्रदान करते हैं। अतएव कुबुद्धि अर्थात् अन्याभिलाष, ज्ञान, कर्म आदिका सर्वतोभावेन परित्यागकर शुद्ध रूप से अर्थात् शुद्धभक्तों के आनुगत्य में हरिनामका श्रवण और कीर्त्तन करने से शीघ्र ही प्रेमधनकी प्राप्ति होती है। कृष्णभजन में जीवमात्र का अधिकार है। उसमें छोटे-बड़े, ऊँच-नीच का कोई भी भेद नहीं होता। न नीच जातिमें उत्पन्न व्यक्ति कृष्ण भजन के लिए अयोग्य है और न सत्कुल में उत्पन्न विप्र कृष्ण भजन के लिए योग्य है। बल्कि जो भजन करता है, वही श्रेष्ठ है, चाहे उसका जन्म किसी भी कुलमें क्यों न हुआ हो तथा उच्च वंश में उत्पन्न विप्र भी यदि भजन नहीं करता, तो वह सबसे हीन और घृणित है। कुलीन, पण्डित और धनियों को बड़ा अभिमान होता है। दीन व्यक्तियोंमें स्वाभाविक रूपमें नम्रता होती है, इसलिए उनपर भगवान् अधिक दया करते हैं।

श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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गौड़ीय

परकीय मधुररस आश्रित श्रीरूपानुग गौर भक्त ही गौड़ीय हैं । गौड़ीयभक्त ललिताजी के अवतार श्रीस्वरूप दामोदर गोस्वामी के अनुगत हैं । इसीलिए गौड़ीय भक्तों को श्रीस्वरूप-रूपानुग कहते हैं। इसीलिए श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीस्वरूप – दामोदरजी को कहा है-तोमार गौड़ीया करे एतेक व्यवहार।

गौड़ीय भक्तों की मञ्जरी System (प्रणाली) है। श्रीराधागोविन्दजी, श्रीराधामदनमोहनजी और श्रीराधागोपीनाथजी ही श्रीगौडीयभक्तों के उपास्य वस्तु हैं। जैसे कि शास्त्रों में कहा गया है-

श्रीराधा-सह श्रीमदनमोहन ।
श्रीराधा – सह श्रीगोविन्द चरण ।।
श्रीराधा – सह श्रीगोपीनाथ।
एइ तीन ठाकुर हय गौड़ीयार नाथ ।।
एइ तीन ठाकुर गौड़ीया के करियाछेन आत्मसात् ।
एइ तीनेर चरण बन्दों तीने मोर नाथ ।।

(चै. च.)

गौड़ीय वैष्णवों के सेव्य अष्टादशाक्षर मन्त्र में निर्दिष्ट कृष्ण ही मदनमोहन, गोविन्द ही गोविन्दजी एवं गोपीजनबल्लभ ही गोपीनाथ जी हैं। मदनमोहन- कृष्ण का अनुभव ही सम्बन्ध है, गोविन्दजी की सेवा ही अभिधेय एवं गोपीजनबल्लभ के द्वारा आकृष्टि ही प्रयोजन है।

मदनमोहन श्रीकृष्ण ही सम्बन्धतत्त्व के अधिदेवता हैं । गोविन्दजी ही अभिधेयतत्त्व के अधिदेवता हैं और गोपीनाथजी प्रयोजन तत्त्व के अधि देवता हैं।

साधारण रूप में गौर पदाश्रयभक्तों को ही गौड़ीय कहा जाता है। गौड़देश के भक्तों को गौड़ीय कहते हैं। जिस प्रकार उत्कलदेशीय भक्तों को उड़ियाभक्त कहा जाता है, उसी प्रकार बंगदेशीय भक्तों को भी गौड़ीयभक्तों के रूप में जाना जाता है।

श्रीलप्रभुपाद
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श्रीचैतन्य देव जी में तथा उनकी वाणी में कोई भेद नहीं है

श्रीचैतन्य देव इस जगत में श्रीकृष्णचन्द्र जी के परम मंगलमय औदार्यलीला विग्रह के रूप में अवतीर्ण हुए। उन्होंने अपने इस उदार स्वरूप से कलिहत जीवों को भी जो अभूतपूर्व श्रीभगवत-प्रेम-रस प्रदान किया, इस तरह का दूसरा उदाहरण कहीं भी नहीं मिलता। जगदगुरु श्रीरूप गोस्वामी पाद जी ने उन्हें नीचे दिए गए प्रणाम मन्त्र के द्वारा प्रणाम किया-

नमो महावदान्याय कृष्ण प्रेम प्रदायते ।
कृष्णाय कृष्णचैतन्य नाम्ने गौरात्विषे नमः ॥

(श्रीरूप गोस्वामी वाक्यम्)

इस प्रणाम-मन्त्र के द्वारा ही श्रीरूप गोस्वामी जी ने संक्षेप में श्रीचैतन्यदेव जी के नाम, रूप, गुण व लीला आदि का वर्णन किया है। वैकुण्ठ वस्तु में नाम तथा नामी का आपसी भेद नहीं होता, क्योंकि वहाँ अज्ञान व माया का प्रवेश नहीं है। यही कारण है कि श्रीचैतन्यदेव एवं उनकी वाणी अभेद है अर्थात साक्षात श्रीचैतन्य देव जी में तथा उनकी वाणी में कोई भेद नहीं है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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देवी-देवताओं के भक्तों का संग, शेर-भालुओं के संग से भी अधिक खतरनाक

विषैला साँप, बाघ, मगरमच्छ आदि विविध प्रकार के हिंसक प्राणियों को आलिंगन करना अच्छा है, यहाँ तक कि सीने में बाण भी चुभने पर आपत्ति नहीं है – फिर भी विविध देवदेवियों की पूजा जो करते हैं, उनकी संगति कभी न करनी पड़े। मृत्यु होने पर शरीर मात्र नष्ट होगा, किन्तु चित्त-वृत्ति खराब हो जाने पर फिर कभी परमार्थ-प्राप्ति की सम्भावना नहीं रहती है। बाघ और भालू हमारा शरीर ही नष्ट कर सकते हैं, वे हमारी चित्तप्रवृत्ति नष्ट नहीं कर सकेंगे। किन्तु देव-देवियों के उपासकों की संगति से हमारी चित्तप्रवृत्ति ही दूषित हो जायेगी – हम असुर श्रेणी में गणित होकर भगवान के श्रीचरणों से दूर चले जायेंगे। इसी का नाम है अज्ञानता।
इसे ही कहते हैं कार्य-अकार्य-ज्ञानशून्यता (अर्थात् क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसके प्रति पूरी तरह से अनजान ।)

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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नश्वर जीवन में कृष्ण-चिंतन ही एकमात्र कार्य

श्रीभगवान् सत्य ही मंगलमय हैं। उनकी शुभेच्छा से ही गुरुवैष्णवों के संग में तीर्थ और धाम आदि के दर्शन का सुयोग और सौभाग्य प्राप्त होता है। श्रीभगवान् की अहैतुकी कृपा को अनुभव कर पाने पर साधक साधिका का जीवन धन्य हो जाता है। भक्त ऐकान्तिक निष्ठा के द्वारा ही श्रीभगवान् पर पूर्ण रूप से निर्भर हो सकता है। एकनिष्ठ भक्त ही भविष्य का सम्यक् चिंतन करने में समर्थ है। भजनहीन व्यक्ति ही शोचनीय और मूर्ख है। “कस्य त्वं वा कुतः आयात, तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः” (हे भाई! आप किसके हैं या कहाँ से आये हैं, इस तत्त्व के विषय में थोड़ा सोचिये), “धन-जीवन-यौवन-राज्यसुखं, न हि नित्यमनुक्षण-नाशपरम्” (धन, जीवन, यौवन, राज्यसुख ये सब नित्य नहीं हैं, प्रतिक्षण नाश होने वाले हैं)-ये विचार जिनके नहीं हैं, वे ही नास्तिक चावीक के अनुयायी जड़वादी हैं। जो लोग भविष्य की चिन्ता में रत हैं, वे ही तत्त्वदर्शी, व आत्मा का कल्याण चाहने वाले हैं। “कृष्ण मोर नाम, कृष्ण मोर प्राण। मोरे से करिल विधि काष्ठ-पाषाण समान।।” (कृष्ण मेरा प्रिय ‘नाम’ है, कृष्ण मेरे प्राण हैं, हाय! मुझे विधाता ने लकड़ी और पत्थर जैसा बना दिया है) विरह दशा में यही एकमात्र जप्य और कीर्तनीय है। कृष्ण ही मेरी संपत्ति, कृष्ण ही मेरे प्राणधन, वे ही मेरे जीवन, कृष्ण ही मेरा व्रत-जप-तप, कृष्णनाम ही मेरा भजन-पूजन-सम्बन्ध-ज्ञान-प्राप्त समर्पित-प्राण साधक-साधिका को कृष्ण-चिंतन के अलावा और कोई सोचविचार नहीं रहता है, रह ही नहीं सकता है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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The Lord descends to satisfy His devotees

It is inappropriate for a vaishnava to think in mundane terms of friend or enemy according to the bodily conception of life. Realised souls do not conceive of friends or enemies in the same way that ordinary materialistic persons do. The impetus for action for the suddha bhakta is quite different from that of the materialist. Kashyapa Muni, acting as his wife’s guru, gave her a strict vrata (vow) to follow for one year, by the calculation of the demigods, after which she was blessed by the appearance of the perfectly proportioned, yet tiny, Lord Vamanadeva. The sadhu is always thinking of everyone’s welfare and he always craves the association of his beloved object of bhajana. The exoteric reason for the appearance of Lord Krishna as Vamanadeva might have been to remove the demonic hordes from the heavenly planets, but the esoteric reason was to satisfy the desire of the suddha bhakta.
When one cooks some foodstuff, which is the primary purpose of cooking, a secondary action, the burning of fuel in the cooking process, automatically takes place. Due to extreme separation grief, the primary purpose in the prayers of a suddha bhakta is to have the association of the Supreme Lord, as in the case of the great devotee sage Kashyapa. By the appearance of the Supreme Lord as Vamanadeva, to alleviate His pure devotee’s intense feelings of separation and longing, the secondary or auxiliary purpose, the reinstatement of the demigods in the heavenly planets, was also automatically accomplished. We need to purify or sanctify the heart so that Krishna will take His rightful seat there.

Srila Bhakti Ballabh Tirthayatra Goswami Maharaj

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