दस-अपराध से रहित व्यक्ति के लक्षण

अतएव साधुनिन्दा यतने छाड़िया।
परतत्त्व विष्णु शुद्ध मनेते जानिया ।।

नामगुरु नामशास्त्र सर्वोत्तम जानि।
विशुद्ध चिन्मय नाम हृदयेते मानि ।।

पापस्पृहा पापबीज त्यजिया यतने।
प्रचारिया शुद्ध नाम श्रद्धान्वित जने ।।

अन्य शुभकर्म हैते लइया विराम।
स्मरे ये शरणागत अप्रमादे नाम ।।

अतएव, बड़े यत्त्न के साथ साधुनिन्दा को छोड़कर, शुद्ध – मन से भगवान के श्रेष्ठत्त्व को समझे। हृदय से ये माने कि भगवान विष्णु ही परम तत्त्व हैं। जो हरिनाम के गुरु हैं, जो हरिनाम की महिमा बखान करने वाले शास्त्र हैं, उन्हें सर्वोत्तम समझे तथा भगवान के ये नाम विशुद्ध हैं व चिन्मय हैं, इसे हृदय से माने। साधकों को चाहिए कि वे पापों की लालसा व पापों के कारण को यत्न के साथ छोड़े तथा जो श्रद्धालु लोग हैं, उनके पास जाकर शुद्ध – हरिनाम का प्रचार करें। शरणागत – भक्त के इलावा सभी शुभ-कर्मों से अपने आप को हटाकर तथा प्रमाद को छोड़कर हर समय भगवान का स्मरण रहे।

अपराध रहित हरिनाम करने से थोड़े दिनों में ही भावों का उदय हो जाता है

सेइ धन्य त्रिजगते, सेइ भाग्यवान्।
कृष्ण – कृपा-योग्य सेइ, गुणेर निदान ।।

अति अल्पदिने ताँ’र श्रीनामग्रहणे।
भावोदय हय आर पाय प्रेमधने ।।

नामाचार्य हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान के शरणागत होकर जो हर समय हरिनाम करता रहता है, इस सारे त्रिभुवन में वह ही धन्य है तथा ऐसा हरिनाम करने वाला ही भाग्यवान है। सचमुच ऐसे व्यक्ति को ही गुणों की खान कहा जाएगा तथा ऐसा व्यक्ति ही श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करने के योग्य है। हरिनाम करते-करते ऐसे साधक के हृदय में थोड़े दिनों में ही भगवान के भाव उदित होने लगते हैं तथा उसके कुछ समय बाद उसे श्रीकृष्ण – प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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फल्गुवैराग्य

युक्ति और युक्ति के अनुकूल वेद-वाक्यों के लक्षणा-अर्थ के द्वारा कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि “मैं ब्रह्म हूँ, किन्तु प्रपञ्चमें फँस जानेके कारण ब्रह्म अनुभवसे दूर हो पड़ा हूँ”। प्रपञ्चसे मुक्त होनेका उपाय क्या है? मनुष्यशरीर प्रपञ्च है, गृह भी प्रपञ्च है, स्त्री-पुत्र भी प्रपञ्च है, आहार आदि सब कुछ प्रपञ्च ही है। इस प्रपञ्चसे किस प्रकार छुटकारा मिले ? इस भावनासे व्यस्त होकर शरीरमें भस्म रमाकर कौपीन आदि द्वारा उसे ढक लेते हैं, सूखे चने आदि चबाकर, स्त्री-पुत्र आदिका परित्यागकर अपनेको त्यागी कहलवानेके लिए गृह त्याग करके वनमें विचरण करते हैं या मठमें वास करते हैं। ऐसा करनेसे लाभ क्या होगा- इसपर भलीभाँति विचार किए बिना ही केवलमात्र शुष्क ज्ञान मात्राकी भावना करते हैं। परन्तु हरि सम्बन्धसे ही प्रपञ्चसे छुटकारा मिल सकता है-इस विषयसे सर्वथा उदासीन रहते हैं। पाप भी गया, पुण्य भी गया, मैं और मेरा सभी कुछ चला गया; परन्तु लाभ क्या हुआ? इसपर तनिक भी विचार नहीं किया। वेदान्तके अधिकरणोंके साथ अपना समय बिताने लगे। मृत्यु हुई, उनके मतके दो-चार लोग उपस्थित हुए तथा उनके मस्तकपर नारियल तोड़कर भूमिपर रख दिया। परन्तु इससे हुआ क्या? हरि तो मिले नहीं। उनका ब्रह्म होना वहीं तक रहा। ऐसा न कर यदि वे देहमें, गृहमें, भोजनमें, शयनमें, कालमें और दिशाओंमें हरिसम्बन्ध स्थापनकर भगवदनुशीलन करते-करते भक्तिकी वृद्धि करते, तो प्रेमरूपी चरम फलको अवश्य ही प्राप्त करते। ऐसे वैराग्यका नाम फल्गुवैराग्य है। श्रीमन्महाप्रभु जी ने ऐसे वैराग्य का निषेध करके श्रीसनातन जी को युक्तवैराग्य की शिक्षा दी है। श्रीरघुनाथदास गोस्वामीको भी उन्होंने युक्तवैराग्यकी ही शिक्षा दी है-

“स्थिर हड्या घरे जाह, ना हओ वातुल।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकूल ।।

मर्कट-वैराग्य ना कर लोक देखाइया।
यथायोग्य विषय भुञ्ज’ अनासक्त हइया ॥

अन्तरे निष्ठा कर, बाह्ये लोकव्यवहार ।
अचिराते कृष्ण तोमाय करिबेन उद्धार ॥

(चै. च. म. १६/२३७-२३९)

अर्थात् जब श्रीरघुनाथदास बचपनमें प्रथम बार घरसे भागकर श्रीमन्महाप्रभुके समीप आए तथा उनके साथ ही रहनेकी इच्छा प्रकट की, तब श्रीमन्महाप्रभुने बड़े प्यारसे उनके मस्तकपर अपना करकमल फेरते हुए कहा-रघुनाथ। अभी चित्तको स्थिरकर घर लौट जाओ। चञ्चलता मत करो। घरपर रहकर ही भक्तिका साधन करो। ऐसा करनेसे क्रमशः भवसागरको पार किया जा सकता है। याद रखो, लोगोंको दिखलाकर मर्कटवैराग्य (बन्दरसा दिखावटी वैराग्य) करनेकी आवश्यकता नहीं, उससे कुछ भी लाभ नहीं; भजनके अनुकूल जीवन-निर्वाहके लिए आवश्यकतानुसार यथायोग्य विषयोंको अनासक्त होकर भोगो; साथ ही भीतर-ही-भीतर निष्ठा रखो तथा बाहरमें लोक-व्यवहार करते रहो। ऐसा करनेसे कुछ ही दिनोंमें करुणासागर श्रीकृष्ण तुम्हारा उद्धार कर देंगे।

श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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तर्कपथ का अवलम्बन करके अधोक्ष वस्तु को नहीं जान सकते

भगवान श्रीहरि ही अधोक्षज वस्तु हैं । वह अधोक्षज वस्तु एकमात्र श्रवण के द्वारा ही जानी जाती है । साधुगुरु के निकट सेवोन्मुख कानों के द्वारा श्रवण करने पर अधोक्षज वस्तु को जाना जायेगा । इस जगत में हमें जो कथाएँ सुनने को मिलती हैं, उन्हें सुनने के बाद कानों के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रियों के द्वारा वे सत्य हैं या नहीं, हम लोग विचार करते रहते हैं । किन्तु हमारे श्रीगुरुदेव या शास्त्र हमें जो कथाएँ कहते हैं, श्रवण- इन्द्रिय के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रिय के द्वारा उनको समझने की क्षमता हमारी नहीं है । यह विषय अर्थात् अधोक्षज वस्तु इन्द्रियज – ज्ञान से अतीत होने के कारण उस प्रकार की चेष्टा करना विडम्बना मात्र है । तर्कपथ का अवलम्बन करके उस विषय में कोई खोज नहीं कर सकते हैं । तब इन्द्रिय-ज्ञान से अतीत उन कथाओं को श्रीगुरुदेव के श्रीमुख से कान के द्वारा श्रवण करने का सौभाग्य मिलने पर, उन कथाओं को प्रणिपात, परिप्रश्न एवं सेवा के द्वारा जानना होगा ।

श्रीलप्रभुपाद
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सर्वोपरि दुःख

श्रीमन्महाप्रभु ने निज पार्षद-प्रवर श्रीराय रामानन्द प्रभु से यह प्रश्न किया था-“समस्त दुःखों में कौन-सा दुःख सर्वोपरि है?” श्रीराय रामानन्द ने उसके उत्तर में कहा था- “कृष्णभक्त के विरह से बड़ा कोई दुःख नहीं है।” चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि अत्यन्त दुर्लभ है, यह मनुष्य जन्म क्षणभङ्गुर होने पर भी भगवद्भजन के लिए विशेष अनुकूल है। स्वर्ग के देवतागण भी वैकुण्ठ के प्राङ्गण-स्वरूप सार्थकता का निर्वाह करते हुए परमपवित्र निष्कलङ्क भजनादर्श-युक्त जीवन यापन किया, ऐसे ही ‘कृष्णप्रिय-दर्शन’ अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रियतम, श्रीगुरुपादपद्म के प्रियतम, उनका मनोऽभीष्ट पूर्ण करने वाले भक्तप्रवर के अदर्शन से उत्पन्न वेदना आज निश्चित रूप से हमारे हृदय के अंतःस्थल को स्पर्श कर रही है।

श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि गोस्वामी महाराज
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स्वरूप निर्णय के ऊपर जीवों का प्रयोजन विचार निर्भर करता है

बहुत से लोगों के अन्दर यह प्रश्न हो सकता है कि श्रीविग्रह सेवा व श्री श्रीजगन्नाथ देव जी की रथयात्रा की व्यवस्था के द्वारा जन साधारण का क्या व कैसे उपकार होगा? इसके अलावा कोई उसे उपकार के रूप में समझने पर भी कोई कोई उसे अनुपकार के रूप में भी समझ सकता है; क्योंकि मनुष्यों में उपकार व अनुपकार के विचारों में अन्तर हो सकता है। स्वरूप निर्णय के ऊपर जीवों का प्रयोजन विचार निर्भर करता है। स्वरूप निर्णय में भूल होने से प्रयोजन के विचार में अवश्य ही भूल होगी और इस कारण प्रयोजन की प्राप्ति के लिए की गयी चेष्टाएँ भी बेकार हो जायेंगी।

साधारणतया इस जंगत में मनुष्य अपने को शरीर समझते हैं। इससे थोड़ा ऊपर जो उठे हैं वे मन-बुद्धि व अहंकार को अर्थात् सूक्ष्म शरीर को व्यक्ति समझकर उसके अनुसार ही उपकार या अनुपकार के बारे में विचार करते हैं। जबकि वास्तव में आस्तिक हो या नास्तिक-कोई भी अपनी दिनचर्या के व्यवहार में शरीर को व्यक्ति के रूप में न तो स्वीकार करता है और न ही उस तरह का विश्वास करके ही चलता है। शरीर के अन्दर जब तक इच्छा-क्रिया व अनुभूति युक्त चेतन सत्ता रहती है तब तक ही उसका व्यक्तित्व माना जाता है। बोध रहित मृत शरीर का व्यक्तित्व कहीं भी स्वीकार नहीं किया जाता। कहने का मतलब कि जिस चेतन सत्ता के रहने से व्यक्ति का व्यक्तित्व नहीं रहता, वही उस व्यक्ति का वास्तिवक स्वरूप है। शास्त्रीय भाषा में उसी बोध सत्ता को ‘आत्मा’ कहा गया है। आत्मा के लिए आत्मा ही सुखदायक होती है तथा परमात्मा परम सुख दायक होता है। आत्मा के लिए अनात्मा कभी भी सुखदायक नहीं हो सकती। इसलिए जिन उपायों से किसी की आत्मरति या परमात्मरत्ति हो सकती हो, वही उपाय उस जीव के लिए वास्तिवक उपकार स्वरूप हैं। इसके अलावा या इसके विपरीत सभी कुछ अनुपकार स्वरूप है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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‘विरहोत्सव’ का एक उदाहरण

विरह के अंतरंग स्थान पर जो एक अव्यक्त और नित्य आनन्द का उद्गम होता है, उसका आभास हम प्राकृत जगत में भी कुछ स्थानों पर जो काव्य रस के रसिक हैं, उनमें भी देख सकते हैं। उदाहरण-स्वरूप, मैं, आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि, जैसे पैसा लेकर कीर्त्तन करने वाला गायक जब सुमधुर स्वर में रामलीला की करुण कहानी का कीर्त्तन करता है, तो आप सुनकर मुग्ध हो जाते हैं। उनके कीर्त्तन की इतनी चतुराई है. कि, उसमें बहुत करुण-रस उत्पन्न होता है- फलस्वरूप तब आपका हृदय पिघल जाता है और आँसुओं की धारा बह निकलती है। लेकिन फिर आप सबको इस प्रकार का कीर्त्तन सुनने के लिए सादर आमंत्रण भी करते हैं। क्यों? कारण जानने पर आपको ज्ञात होगा कि, करुण रस दुखदायी अवश्य है परन्तु उसके अंदर ऐसा अव्यक्त आनंद भी है, जिसे पाने के लिए आप हमेशा लालायित रहते हैं। केवल इतना ही नहीं अपने इष्ट-मित्रों को भी इस आनंद का भागीदार बनाने के लिए आप आह्वान करते हैं- उनके हृदय में चोट पहुँचाकर, उद्वेग पैदा करना निश्चित रूप से आपका उद्देश्य नहीं रहता है। इसीलिए वैष्णवों के ‘विरह-उत्सव’ का यथार्थ तात्पर्य क्या है, इस उदाहरण से तुलना करने पर शायद आपको कुछ आभास मिल गया होगा। विरह उद्वेग-जनक है फिर भी हम प्रतिवर्ष विरह की चर्चा करके आनन्द का अनुभव करते हैं और आपको भी इस आनंद का भागीदार बनाने के लिए आह्वान करते हैं।

‘विरह’ का दूसरा नाम ‘विप्रलम्भ’

विरह का दूसरा नाम ‘विप्रलम्भ’ है। श्रीमन् महाप्रभु ने विप्रलम्भ रस को अपने आदर्श के द्वारा सर्वश्रेष्ठ रस के रूप में प्रचारित किया है। उनका उद्देश्य निश्चय ही समस्त जीवों को अनर्थमुक्त-दशा में लाकर दुख के सागर में डुबोना नहीं है। एक ओर जिस प्रकार परममुक्तों के हृदय की वृत्ति ही ‘विप्रलम्भ’ रस है, वैसे ही दूसरी ओर बद्ध-जीवों के लिए भी विरह-उत्सव अनुष्ठान भी अत्यन्त मंगलदायक है, इससे जीवों को अनर्थ से मुक्ति मिलती है। इसलिए सिद्ध-अवस्था और साधन-अवस्था-किसी भी स्थिति में विरहगत वृत्ति में हेरफेर दिखायी नहीं पड़ता है। उपाय (साधन) और उपेय (साध्य) का एक ही तात्पर्यपर और एक ही धारा के अन्तर्गत होना अनिवार्य है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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साधक के लिए पूजार्चन की शिक्षा लेना अत्यन्त आवश्यक

कनिष्ठ-अधिकारी को पूर्जाचन की शिक्षा अवश्य लेनी चाहिए और संक्षिप्त रूप से भी उसे अर्चन अवश्य ही करनी चाहिए। यह दैनन्दिन कर्त्तव्य में माना जाता है। श्रीभगवान् के अलावा हमारा और कोई रक्षक नहीं हैं, यह सच है। उनसे कृपा प्रार्थना, क्षमा मांग लेना और उनपर निर्भर करना अवश्य ही सरलता का परिचायक है। यह कपटता क्यों होगी? अज्ञानी, अबोध शिशु के लिए क्षमा याचना के अलावा कोई चारा नहीं है और साधन के क्षेत्र में इसकी विशेष उपयोगिता है। देह, मन, प्राण, सर्वेन्द्रियों के द्वारा हृषीकेश श्रीभगवान् की सेवा करनी होगी। देहधारी मनुष्य प्राण-धन-बुद्धि-वाक्य के द्वारा दुर्लभ मनुष्य-जन्म की सफलता प्रदर्शन करेंगे। उसे भगवान् की सेवा में लगाना ही ‘योग’ है और यही कर्म का कौशल है- “योगः कर्मसु कौशलम् ।” श्रीभगवत्-केन्द्रित संसार में उनकी सेवा के उद्देश्य से ही सब कुछ देखभाल करनी होगी और उन्हें अच्छा अनुभव करवाना ही होगा। पारमार्थिक ग्रंथों की चर्चा, हरिकथा श्रवण-कीर्तनादि सभी Personal work (निजी कार्य) के अन्तर्गत हैं। कोई भी दूसरों पर छोड़ने लायक नहीं है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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Bhagavata dharma demands full surrender

One who follows the path of bhagavata dharma has no fear of falling down because the Supreme Lord Himself is his saviour and sustainer. “na skhalet patet iha”: Even while walking with one’s eyes closed, one will not slip or fall. But one needs some courage to follow the path of bhagavata dharma.

Here, whatever you speak using your tongue, whatever you think using your mind and whatever you do using your senses should all be done in relationship to the Supreme Lord. “Narayana – iti samarpayet”, everything should be offered to Narayana; everything should be done for Narayana.

Bhagavata dharma demands full surrender. If we do not offer our mind, senses and sense objects to the Supreme Knowable Truth, Saccidananda Sri Krishna, we will leave behind our highest good and go towards the non-eternal. We will then become more entangled in the temporary world.

Srila Bhakti Ballabh Tirthayatra Goswami Maharaj
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