श्रीहरिनाम चिन्तामणि
संकल्पित नामसंख्या पूर्ण करिवारे।
ना हय अयत्न नामे देखि बारे बारे ।।
सतर्क हइया करि – नाम संकीर्त्तन ।
प्रमाद छाड़िया करि नामेर भजन ।।
संख्याधिक स्पृहा छाड़ि एकाग्रमानसे।
निरन्तर करि नाम तव कृपावशे ।।
एइ कृपा कर प्रभु नामेते प्रमाद।
ना बाधे आमार चित्ते नामरसास्वाद ।।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम की संख्या के लिए आपने जो संकल्प लिया है, उसमें ढीलापन न हो इसके लिए बार – बार व विशेष ध्यान देना होगा तथा साथ ही सतर्क होकर अर्थात् प्रमाद छोड़कर हरिनाम – संकीर्तन करना होगा। श्रीहरिनाम ठाकुर जी कहते हैं कि साधक को चाहिए कि वह संख्या बढ़ाने के चक्करों में ज्यादा न पड़े। संख्या बढ़ाने की बजाये हरिनाम के दिव्य अक्षरों का स्पष्ट रूप से उच्चारण हो, इसकी ओर ध्यान दे। ऐसा होने से भगवान श्रीहरि की कृपा से उसका निरन्तर हरिनाम होने लगेगा।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभु! आप मुझ पर ऐसी कृपा करना जैसे ये प्रमाद रूपी अपराध मुझे हरिनाम के रसास्वादन में बाधा न पहुँचा सके।
असावधानी को ही प्रमाद कहते हैं
प्रमाद – अनवधान एइ मूल अर्थ।
इहा हैते घटे प्रभु सकल अनर्थ ।।
औदासीन्य, जाड्य आर विक्षेप ए तिन।
प्रकार अनवधान बुझिबे प्रवीण ।।
प्रमाद का मुख्य अर्थ असावधानी ही है। इसी से सारे अनर्थ उदित होते हैं। विद्वान – वैष्णव लोग कहते हैं कि प्रमाद भी तीन प्रकार के होते हैं-साधन – भजन में उदासीनता अर्थात् निष्ठा का अभाव, आलस्य तथा दूसरी ओर मन का जाना।
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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भजन का प्रयास करने के चार कारण
तुष्टे च तत्र किमलभ्यमनन्त आद्ये
किं तैर्गुणव्यतिकरादिह ये स्वसिद्धाः।
धर्मादयः किमगुणेन च कांक्षितेन
सारं जुषां चरणयोरुपगायतां नः ॥
(श्रीमद्भा. ७/६/२५)
धर्मार्थकाम इति योऽभिहितस्त्रिवर्ग
ईक्षा त्रयी नयदमौ विविधा च वार्ताः।
मन्ये तदेतदखिलं निगमस्य सत्यं
स्वात्मार्पणं स्वसुहृदः परमस्य पुःसः ॥
(श्रीमद्भा. ७/६/२६)
भगवान को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो कुछ प्रयास करते हैं, उसे अवस्था भेद से चार विभागों में विभक्त कर सकते हैं। वे हैं-भय, आशा, कर्त्तव्यबुद्धि और राग। नरक-भय, अर्थाभाव, पीड़ा और मृत्युसे भयभीत होकर जो भगवान् का भजन करते हैं, वे भय से अनुप्रेरित होकर ईश्वर की आराधना करते हैं। जो व्यक्ति सांसारिक उन्नति के लिए विषय सुखकी प्रार्थना करते हुए हरिभजन करते हैं, वे विषय सुखकी आशाके द्वारा चालित होकर ईश्वर का भजन करते हैं। किन्तु भगवान् के भजन में इतना आनन्द और सुख है कि पहले भय या आशा से उसमें प्रवृत्त होकर भी अन्त में अनेक व्यक्ति भय और आशा को त्यागकर शुद्ध भगवद्भजन में प्रवृत्त हो पड़ते हैं। जो व्यक्ति सृष्टिकर्त्ता के प्रति कृतज्ञता स्वीकार करते हुए उनकी उपासना करते हैं, वे लोग कर्त्तव्यबुद्धि से प्रेरित होकर भगवद्भजन करते हैं। जो भय, आशा या कर्त्तव्यबुद्धि के द्वारा प्रेरित न होकर स्वभावतः ही ईश्वर के भजन में आनन्द प्राप्त करते हैं, वे राग (प्रेम) द्वारा उस कार्यमें प्रवृत्त होते हैं। किसी एक वस्तुको देखने मात्र से ही बुद्धि जिस प्रवृत्ति के द्वारा उसके प्रति विचार करने के पूर्व ही दौड़ पड़ती है, उसी प्रवृत्ति का नाम ही राग है। परमेश्वर का चिन्तन करनेमात्रसे ही जिनके चित्तमें वह प्रवृत्ति उदित होती है, वे रागके द्वारा ईश्वरभजन करते हैं।
श्रीश्रीचैतन्य-शिक्षामृत
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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ऐकान्तिक भाव से भगवान के शरणागत रहना
ऐकान्तिक भक्त भगवान के समस्त विधानों को सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं। भगवान की व्यवस्था में चंचलता प्रकाश करने से उसमें श्रद्धा का अभाव और अन्याभिलाष प्रमाणित होता है ।
भगवत् कृपा बाह्य दृष्टि से दण्ड या निष्ठुरता प्रतीत हो अथवा सम्पद् से युक्त हो, भक्त उस ओर न देखकर ऐकान्तिक भाव से भगवान के शरणागत रहते हैं । जागतिक किसी प्रकार की असुविधा उसे शरणागति से- कृष्ण को रक्षक के रूप में वरण करने से बिन्दुमात्र भी हटा नहीं सकती ।
भगवान सर्वद्रष्टा हैं; किन्तु बद्धजीव का दर्शन विभिन्न प्रकार की बाधाओं से युक्त है । कार्यतः भगवान के विधान में असन्तोष या चंचलता प्रकाश करने से अपने अमंगल का ही स्वागत किया जाता है। भगवान के विधान में सन्तुष्ट होकर अनुक्षण हरिसेवा के अतिरिक्त शरणागत व्यक्ति का कोई दूसरा विचार नहीं होता।
श्रीलप्रभुपाद
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भगवान किसे कहते हैं?
अशरणागत व्यक्ति जितनी प्रकार की भी चेष्टा क्यों न कर ले, वह परमेश्वर के अस्तित्त्व की उपलब्धि करने में समर्थ नहीं होता है। अशरणागत हिरण्यकशिपु गदा हाथ में लेकर विष्णु को मारने के लिये बहुत खोजता रहा परन्तु विष्णु को देख न पाया; जबकि शरणागत भक्त प्रह्लादजी विष्णु की कृपा से विष्णु को सर्वत्र देख पाये।
कोई-कोई कहता है कि भगवान का आकार नहीं हैं, रूप नहीं है, उनके निर्गुण स्वरूप का आविर्भाव नहीं है, मायिक जगत् में आविर्भूत होने के लिये माया के गुण लेकर ही उनको आविर्भूत होना होगा इत्यादि।
उसके उत्तर में कहते हैं कि पहले हमें समझना होगा कि भगवान किसे कहते हैं?
भगवान शब्द का अर्थ क्या है? “जिनका भग” है उनको भगवान कहते हैं। ‘भग’ शब्द का अर्थ है- शक्ति। शक्तियुक्त तत्त्व को भगवान् कहते हैं। शास्त्र में (विष्णुपुराण में) भगवान् शब्द का इस प्रकार अर्थ किया गया है- समग्र (तमाम) ऐश्वर्य, समग्र वीर्य, समग्र यश, समग्र सौन्दर्य, समग्र ज्ञान और समग्र वैराग्य जिस तत्त्व में निहित हैं, उन्हें भगवान कहते हैं। क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान् हैं, असीम हैं, इसलिये वे किसी भी स्थान पर, जिस किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं। यदि वे यह नहीं कर सकते, तब उनकी सर्वशक्तिमत्ता की, असीमत्त्व की हानि होती है।
वे यह कर सकते हैं, और ये नहीं कर सकते हैं- सर्वशक्तिमान् के सम्बन्ध में इस प्रकार की उक्ति का प्रयोग नहीं हो सकता। हम जो-जो शक्ति भगवान् को देंगे, वह-वह शक्ति ही भगवान् में रहेगी, उसके अतिरिक्त नहीं रह सकती, जैसे हम ही परमेश्वर के निर्माता हों, सर्वशक्तिमान् ऐसा नहीं होता व ऐसे को हम सर्वशक्तिमान् कह भी नहीं सकते। हमारी कल्पना में अथवा उससे बाहर जितने प्रकार की शक्ति हो सकती है एवं हमारी कल्पना के अतीत भी जो शक्तियुक्त-तत्त्व हैं, वे ही भगवान् हैं, उन्हें ही सर्वशक्तिमान् कहते हैं। असीम के लिये कुछ भी असम्भव नहीं हैं।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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श्रील प्रभुपाद की प्रपञ्च-मार्जन-लीला में अपनी क्षुद्र स्थिति का निर्धारण
श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने श्रीगौड़ीय कण्ठहार के सङ्कलनकर्त्ता श्रीअतीन्द्रिय दासाधिकारी को एक पत्र के माध्यम से कहा था, “श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने नामहट्ट के झाडूदार के रूप में अपना परिचय देते हुए एक अप्राकृत लीला को प्रकट किया है। हम शत-शत लोग शत-शत मुखों द्वारा महाजनों का अनुगमन करते हुए उनकी इस प्रपञ्च-मार्जन की लीला अर्थात् बद्धजीव के अविद्या (कृष्ण-विमुखता) रूपी मल को दूर करने के उपकरण (झाडू) के रूप में प्रस्तुत होंगे अर्थात् सर्वत्र अप्राकृत हरि-कथा का प्रचार करेंगे एवं लोगों को दुःसङ्ग से बचाने की चेष्टा करेंगे। यद्यपि हमारा यह कार्य जगत् के लोगों को प्रियकर प्रतीत नहीं हो सकता है, किन्तु यही उनके चरम कल्याण को प्रदान करने वाला एकमात्र साधन है।”
श्रील पुरी गोस्वामी महाराज श्रील प्रभुपाद द्वारा लिखित उपरोक्त वचनों को दोहराते हुए कहते थे कि, “यद्यपि श्रील प्रभुपाद ने हमें बद्धजीव के अविद्या रूपी मल को दूर करने के उपकरण (झाडू) के रूप में प्रस्तुत होने की शिक्षा प्रदान की है तथापि मैं कोई स्वतन्त्र उपकरण बनकर नहीं, बल्कि श्रील प्रभुपाद की झाडू की एक शलाका बनने पर ही स्वयं को धन्य, कृतकृतार्थ मानूँगा।”
श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज
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नित्यसिद्ध ब्रजवासियों की कृपा से ही ब्रजदर्शन सम्भव
महाजनगण कहते हैं, “अप्राकृत कभु नहे प्राकृत-गोचर”। अतः जड़ नेत्रों से हम उस चिन्मय वस्तु को कैसे पहचान सकते हैं? इसीलिए ब्रजवासियों की कृपा प्रार्थना करनी होगी। उनकी कृपा से मायाजाल दूर होने पर हम श्रीधाम का स्वरूप अनुभव कर सकेंगे। हमारे गुरुवर्ग ने बताया है- श्रीरूपमंजरी और श्रीरतिमंजरी को छोड़कर ब्रज और ब्रजराज-नन्दन के दर्शन या सेवा लाभ असंभव है। इसीलिए श्रीनयनमणि-मंजरी और श्रीकमल-मंजरी की अनुकंपा से हम उनकी कृपा प्रार्थना कर रहे हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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नामभजन एवं श्रीगुरु-वैष्णव सेवा से सर्व-अनर्थ नाश
गुरु-वैष्णवों की कृपादृष्टि, साधक साधिकाओं के प्रति सब समय ही है। उनके आशीर्वाद से समस्त असम्भव भी सम्भव हो जाता है, पंगु (लंगड़ा) भी पर्वत लांघने में समर्थ हो जाता है, मूक (गूंगा) भी वाचाल (बोलने में निपुण) हो जाता है। सरलतापूर्वक गुरु-वैष्णवों की सेवा में तत्पर होने से तथा सर्वक्षण ही श्रीनामभजन करने से समस्त अनर्थ दूर हो जाते हैं। प्रतिदिन आदर-यत्नपूर्वक श्रीनाम ग्रहण, नियमित रूप से भक्ति शास्त्रों की चर्चा तथा हरिकथा श्रवण का सुयोग ग्रहण करने से ही भक्ति पथ में अग्रसर हुआ जा सकता है। श्रद्धापूर्वक पूजा-अर्चन आदि करने पर चित्त शुद्ध होता है तथा चंचल मन स्थिर हो जाता है। केवल अपनी चेष्टा के द्वारा अहंकार से फूल जाने पर तत्त्व-वस्तु (भगवान) का सान्निध्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः अपनी चेष्टा के साथ-साथ गुरु-वैष्णवों की कृपा की भी आवश्यकता है। साधन एवं कृपा का योग होने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण की दाम बन्धन लीला में यही प्रमाणित हुआ है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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श्रीमन् महाप्रभु स्वयं कहते हैं कि–
‘मोर एइ सत्य सभे शुन मन दिया।
जेइ मोर पूजे मोरे सेवक लड्ङ्घिया।
से अधम जने मोरे खण्ड खण्ड करे।
तार पूजा मोर गाये अग्नि हेन पड़े ।।
जेइ आमार दासेर सकृत निन्दा करे।
मोर नाम कल्पतरू संहारे ताहारे ।।
अनन्त ब्रह्माण्ड जत सब मोर दास ।
एतेके जे परहिसे सेई जाय नाश।।
(चै.भा. मध्य 19.207-210)
सब लोग मेरे इस सत्य वचन को मन लगाकर सुनो, जो मेरे सेवक का उल्लंघन करके मेरी पूजा करता है, वह अधम मेरे अंग के टुकड़े-2 करता है, उसकी पूजा मेरे शरीर पर अग्नि के समान ताप पहुँचाती है। जो मेरे दास की एक बार भी निन्दा करता है, मेरा कल्पतरू नाम उसका संहार कर देता है। अनन्त ब्रह्माडों में जितने भी जीव हैं, सभी मेरे दास हैं। इसी कारण जो दूसरे की हिंसा करते हैं, उनका नाश हो जाता है।
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