विश्वस्य नाथरूपोऽसौ भक्तिवर्त्म प्रदर्शनात्।
भक्तचक्ते वर्तितत्त्वात् चक्रवर्त्त्याख्याभवत् ॥

आप जगत को भक्ति का मार्ग दिखाने वाले होने के कारण विश्वनाथ और भक्तों में श्रेष्ठ होने के कारण चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित हुये थे। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती जी लगभग 1560 शकाब्द (किसी किसी के मत में 1576 शकाब्द) में नदिया ज़िले के देवग्राम में राढ़ीय ब्राह्मण कुल में अविर्भूत हुये थे । इनके पिताजी के सम्बन्ध में गौड़ीय वैष्णव अभिधान में ऐसा लिखा है कि श्रीनारायण चक्रवर्ती जी इनके पिता जी थे किन्तु माताजी का परिचय नहीं मिलता है । श्री रामचन्द्र चक्रवर्ती और श्रीरघुनाथ चक्रवर्ती नाम के दो इनके बड़े भाई थे। श्रील चक्रवर्ती ठाकुर जी के गुरुदेव श्रीराधारमण चक्रवर्ती और परम गुरुदेव श्री कृष्ण चरण चक्रवर्ती थे। श्री कृष्ण चक्रवर्ती श्रीगंगानारायण चक्रवर्ती जी के दत्तक (गोद लिये) पुत्र थे। श्रीमद् भागवत की रास पंचाध्यायी की अपनी सारार्थदर्शिनीटीका में श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती जी ने अपनी गुरु परम्परा के विषय में निम्न प्रकार लिखा है –

श्रीरामकृष्ण गंगाचरणान् नत्वा गुरुनुरुप्रेमनः।
श्रील नरोत्तमनाथ श्री गौरांग प्रभु नौमि॥

इस श्लोक में जाना जाता है कि श्रीराधारमण जी का छोटा नाम श्रीराम, श्रीकृष्ण चरण का छोटा नाम श्रीकृष्ण था। उनके गुरु श्रीगंगाचरण जी हैं। ‘नाथ’ शब्द से श्रीनरोत्तम जी के गुरु श्रीलोकनाथ गोस्वामी जी को समझाया गया है। यही उनकी गुरु परम्परा है।

बाल्यकाल में देवग्राम में व्याकरण की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात आपने अपने गुरु गृह मुर्शिदाबाद के सैयदाबाद नामक ग्राम में भक्ति शास्त्रों का अध्ययन किया था । श्री गौड़ीय वैष्णव अभिधान में वर्णित चक्रवर्ती ठाकुर के चरित्र के अनुसार ऐसा ज्ञात होता है कि उन्होंने विवाह किया था किन्तु सामाजिक नियमानुसार विवाह करने पर भी उनकी संसार में बिन्दुमात्र भी आसक्ति नहीं थी। कहा जाता है कि उन्होंने अपनी पत्नी को श्रीमद् भागवत् रसामृत का पान करवा कर उसे सब प्रकार से भगवद् भजन करने के लिए कहकर घर का त्याग कर दिया था। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने गोस्वामियों के आदर्श का अनुसरण करते हुये श्री व्रजधाम में रहकर भजन किया था।

अपने गुरुजी के अनुगत्य में व अपने गुरुदेव जी की असीम कृपा के बल से उन्होंने व्रज धाम के विभिन्न स्थानों पर रहकर बहुत से ग्रन्थों की रचना की। वे सभी ग्रन्थ गौड़ीय वैष्णव की परम सम्पदा रूप से गिने जाते हैं। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित तमाम ग्रन्थ व श्रीमद् भागवत् और गीता की टीकायें अत्यन्त सरल, स्पष्ट और भक्ति रस से पूर्ण हैं। श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ से प्रकाशित श्रीमद् भगवद् गीता ग्रन्थ की ‘टीका के विवरण’ के प्रारम्भिक परिचय में इस प्रकार लिखा है कि श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद ठाकुर मध्यकाल में गौड़ीय वैष्णव धर्म के संरक्षक और आचार्य थे। श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी के तीन ग्रन्थों के विषय में अभी भी साधारण वैष्णवों में ऐसी कहावत है – ‘किरण – बिंदु – कणा। एई तिन निये वैष्णव पणा ॥ श्रीमन्महाप्रभु के समय के व्रजवासियों के अप्रकट हो जाने के बाद शुद्धभक्ति का स्रोत श्रीनिवासाचार्य, ठाकुर नरोत्तम और श्रीश्यामानन्द प्रभु — जिन तीनों आश्रय लेकर प्रवाहित हो रहा था उनमें से नरोत्तम ठाकुर जी की शिष्य परम्परा के चौथे आचार्य हैं – श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती । श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी की तरह संस्कृत भाषा में ग्रन्थों को सुविस्तृत भाव से लिखने वाले गौड़ीय वैष्णव आचार्यों की संख्या ज्यादा नहीं है। उन्होंने इस विपुल संस्कृत साहित्य को लिखने के अतिरिक्त गौड़ीय समाज में दो और हितकर कार्य करने का व्रत लिया था। एक श्रीरूपकविराज, जिनका गौड़ीय वैष्णव समाज से बहिष्कार कर दिया गया था। उसने अतिवाड़ी नामक एक सम्प्रदाय चलाई और वे ऐसा प्रचार करने लगे कि त्यागी व्यक्ति ही आचार्य बनने का अधिकारी है, गृहस्थी नहीं। इसके इलावा उन्होंने विधि मार्ग का भी पूरी तरह से अनादर किया और इस प्रकार कहते हुये विशृंखलापूर्ण राम मार्ग का प्रचार किया था कि श्रवण, कीर्तन की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी ने श्रीमद् भागवत के तृतीय स्कन्ध में अपनी सारार्थदर्शिणी टीका में रूप कविराज के उपरोक्त सिद्धान्तों का खण्डन करके जीवों का अत्यन्त मंगल किया। रूप कविराज का ऐसा मत था कि आचार्य के वंश में जन्म ग्रहण करने पर भी गृहस्ती के लिए कभी भी ‘ गोस्वामी’ शब्द का प्रयोग नहीं किया जा सकता। श्रील चक्रवर्ती ठाकुर जी ने इसका भी विरोध किया और शास्त्रों की युक्तियों से सिद्ध किया की आचार्यवंश की योग्य गृहस्थ सन्तान भी अचार्य या गोस्वामी बन सकती है। किन्तु धन और शिष्यों के लोभ में फंस कर आचार्यकुल में उत्पन्न अपनी सन्तान के नाम के पीछे गोस्वामी जोड़ना सात्वत् शास्त्रों के विरुद्ध और नितान्त अवैध है।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी हरिबल्लभदास के नाम से प्रसिद्ध थे। किसी – किसी मत के अनुसार जब इन्होंने वेष लिया था तब इन्हें हरीबल्लभ नाम प्राप्त हुआ था। अगाध पाण्डित्य, दार्शनिक विचारों की प्रगाढ़ दक्षता और भक्तिशास्त्रों में पारंगति व कवित्त्व विषय में इनकी श्रेष्ठता असाधारण थी।

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जब बहुत वृद्ध हो गये और चलने में असमर्थ अवस्था में जब वे वृन्दावन धाम में रह रहे थे, उस समय जयपुर के गलता ग्राम के श्रीरामानुज सम्प्रदाय के आचार्यों ने जयपुर के महाराजा को गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय का परित्याग करवा कर रामानुज सम्प्रदाय में लेने के लिए उनके सामने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय साथ सात्त्वत चार सम्प्रदायों से बाहर है। इसके साथ-साथ उन्होंने जयपुर के महाराजा को पुनः रामानुज सम्प्रदाय में दीक्षा लेने का परामर्श भी दिया था। इस प्रस्ताव से जयपुर के महाराजा असमंजस में पड़ गए तब उन्होंने वृन्दावन में रह रहे उस समय के प्रधान गौड़ीय वैष्णवाचार्य श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर जी के पास यह संवाद भेजा और जयपुर में आने के लिए उनसे प्रार्थना भी की। उस समय अतिवृद्ध होने एवं चल न पाने के कारण उन्होंने अपने छात्र श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु को जयपुर में जाकर गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय का संरक्षण करने का निर्देश दिया। श्रील बलदेव विद्याभूषण प्रभु, विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी से श्रीमद् भागवत शास्त्र का अध्ययन करते थे। श्रील चक्रवर्ती ठाकुर जी के शिष्य श्रीकृष्णदेव जी के साथ बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी गुरु आज्ञा का पालन करने के लिए जयपुर में जगता ग्राम की गद्दी में हो रही विचार सभा में उपस्थित हुये। चारों वैष्णव सम्प्रदायों का अपना-अपना भाषा है किन्तु गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय का अपना वेदान्त भाष्य नहीं है। इसलिये रामानुज आचार्यों ने गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय की साम्प्रदायिक मर्यादा को स्वीकार नहीं करना चाहा तो बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी ने गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के वेदान्त का भाष्य लिखने के लिए सात दिन (किसी के मत में तीन महीने) का समय मांगा। रामानुजीय आचार्यों ने प्रार्थना के अनुसार समय दे दिया। बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी ने श्री गोविन्द जी के मन्दिर में श्रील गुरुदेव और श्री गोविन्द देव जी के कृपा प्रार्थना करते हुये वेदान्त भाष्य लिखना आरम्भ कर दिया। बलदेव विद्याभूषण प्रभु जी के गले में श्री गोविन्द जी की आशीर्वादी माला अर्पित की गयी। गुरु वैष्णव और भगवान की कृपा से असम्भव भी सम्भव हो जाता है और इस तरह श्रीबलदेव विद्याभूषण प्रभु ने वेदान्त के पांच सौ सूत्रों के गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के इस शुद्धभक्ति रसपूर्ण भाष्य को निर्धारित समय पर ही लिखकर पूरा कर दिया। गलता गद्दी की सभा में श्रीलबलदेव विद्याभूषण प्रभु जी के श्रीमुख से प्रेमपरक भाष्य सुन कर सभी चमत्कृत हो उठे। श्री गोविन्द जी के आदेश से वेदान्तसूत्रों का भाष्य रचित होने के कारण ये भाष्य ‘गोविन्द भाष्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वेदान्त के गोविन्द भाष्य लिखे जाने के पश्चात ही श्रीलबलदेव जी ‘विद्याभूषण’ की उपाधि से भूषित हुये।

विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी के सम्बन्ध में एक अलौकिक घटना सुनी जाती है कि वे जिस स्थान पर भागवत लिखते थे उस स्थान पर ग्रन्थ पर जल गिरने पर भी ग्रन्थ गिला नहीं होता था। पन्ने अटूट रहते थे। इनके द्वारा स्थापित विग्रह श्रीगोकुलानन्द जी वृन्दावन में स्तिथ श्रीगोकुलानन्द मंदिर में विराजित हैं। अनुमान है कि विश्वनाथ चक्रवर्ती जी 1630 शकाब्द माघी गौर पंचमी तिथि को (किसी – किसी के मतानुसार कृष्ण पंचमी) को श्रीराधाकुण्ड में अप्रकट हुए थे। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद जी ने जो ग्रन्थ लिखे हैं उन सभी की तालिका नीचे दी गई है –

1. व्रजरीतिचिन्तामणि
2. श्रीचमत्कारचन्द्रिका
3. प्रेमसम्पुटम (खण्डकाव्यम् )
4. गीतावली
5. सुबाधिनी (अलंकार कोस्तुभ टिका)
6. आनन्द चन्द्रिका (उज्ज्वलनीलमणि टिका)
7. श्रीगोपालतापनी टीका
8. स्तवामृत – लहरीधृत

क) श्रीगुरुतत्त्वष्टकम्                     ख) मन्त्रदातृगुरोरष्टकम्
ग) परमगुरोरष्टकम्                      घ) परात्परगुरोरष्टकम्
ङ) परमपरात्परगुरोरष्टकम्          च) श्रीलोकनाथाष्टकम्
छ) श्रीशचीनन्दाष्टकम्                 ज) श्रीस्वरूप चरितामृतम्
झ) श्रीस्वप्नविलासामृतम्          ञ) श्रीगोपालदेवाष्टकम्
ट) श्रीमदनमोहनाष्टकम्              ठ) श्रीगोविन्दाष्टकम्
ड) श्रीगोपीनाथाष्टकम्                 ढ) श्रीगोकुलानन्दाष्टकम्
ण) स्वयंभगवदाष्टकम्                त) श्रीराधाकुण्डाष्टकम्
थ) जगन्मोहनाष्टकम्                 द) अनुराग वल्ली
ध) श्रीवृन्दादेव्याष्टकम्              न) श्रीराधिका ध्यानामृतम्
प) श्रीरूप चिन्तामणि              फ) श्रीनन्दीश्वराष्टकम्
ब) श्रीवृन्दावनाष्टकम्               भ) श्रीगोवर्धनाष्टकम्
म) श्रीसंकल्पकल्पुद्रमः           य) श्रीनिकुन्जविरुदावली

ल) श्रीश्यामकुण्डाष्टकम् (वीरकाव्य)
9. श्रीकृष्ण भावनामृत महाकाव्यम्
10. श्री भागवतामृत कणा
11. उज्जलनीलमणे किरणलेशः
12. श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु बिन्दुः
13. रागवर्त्मचन्द्रिका
14. ऐश्वर्यकादम्बिनी (आजकल दुष्प्राय)
15. माधुर्यकादम्बिनी
16. भक्तिरसामृतसिन्धु टीका
17. श्रीउज्ज्वलानीमणि
18. श्रीदानकेलिकौमुदी टीका
19. श्रीललितमाधव नाटक टीका
20. श्रीचैतन्यचरितामृत टीका (असम्पूर्ण)
21.ब्रह्मासंहिता – टीका
22. श्री मद्भगवद्गीता की ‘सारार्थवर्षिणी’ टीका
23. श्रीमद् भागवत् की ‘सारार्थदर्शिनी’ टीका

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से