जिस प्रकार भगवान कृष्ण का महात्म्य श्रवण करने के लिए उनके नाम, रूप, गुण, लीला आदि सब श्रीभागवत में वर्णित हैं, उसी प्रकार श्री चैतन्य चरितामृत तथा श्री चैतन्य भागवत हमें श्री चैतन्य महाप्रभु और उनके पार्षदों के बारे बताते हैं। ज्ञानी लोग जिसे अद्वैत-ब्रह्म कहते हैं, श्री चैतन्य महाप्रभु उनके भी कारण हैं। जिस अद्वैत-ब्रह्म को ज्ञानी लोग प्राप्त करने का प्रयास करते है, वह अद्वैत-ब्रह्म श्री चैतन्य महाप्रभु अथवा नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के अंग का प्रकाश है। योगी, जीव के हृदय में अंगुष्ठ-परिमाण में रहने वाले जिन परमात्मा का ध्यान करते हैं, वे उन्हीं श्री चैतन्य महाप्रभु के अंश वैभव हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु कौन हैं? षड्-ऎश्वर्य से पूर्ण, अनंत-ऎश्वर्य के अधिपति—
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः।
ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतींगना।।
(विष्णुपुराण 6.5.74)
समस्त ऎश्वर्य, समस्त वीर्य (शक्ति), समस्त यश, समस्त सौंदर्य, समस्त ज्ञान और समस्त वैराग्य जिस तत्त्व में हैं, वे हैं श्रीचैतन्य महाप्रभु। उन्हें छोड़कर कोई परमतत्त्व है ही नहीं। उनके ही अभिन्न स्वरूप हैं—श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी।
वे कोई साधारण भक्त नहीं हैं; श्री गौरगणोद्देश-दीपिका में कवि कर्णपूर ने उनके बारे में लिखा है कि जो प्रेमरूपा, वृन्दावनेश्वरी श्रीराधा हैं; जो नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की पूर्ण आराधिका शक्ति हैं, वही हैं—गौरवल्लभ श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी। श्री गौरांग महाप्रभु कौन हैं? नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही अपना माधुर्य आस्वादन करने के लिए श्री राधारानी का भाव और अंगकान्ति लेकर विशेष कलियुग में प्रकट हुए। इसलिए श्री राधाकृष्ण मिलित तनु हैं—श्री गौरांग महाप्रभु। उनकी अन्तरंगा शक्ति हैं—श्री ल गदाधर पण्डित गोस्वामी। श्री स्वरूप दामोदर, जो श्री राधारानी के साढ़े-तीन (शक्तिगण) में अन्यतम हैं, उनकी अन्तरंग सखी (ललिता) हैं, उन्होंने गदाधर पण्डित गोस्वामी के बारे में लिखा है कि गदाधर पण्डित गोस्वामी व्रजलक्ष्मी हैं। लक्ष्मी तो नारायण की शक्ति हैं, किन्तु यहाँ व्रज भी लिखा है और लक्ष्मी भी लिखा है। इसका विशेष कारण है। लक्ष्मी ऐश्वर्यलीला में नारायण की शक्ति हैं, शांत और मृदु स्वभाव की हैं। गदाधर पण्डित गोस्वामी भी शांत और स्थिर स्वभाव के हैं। लक्ष्मी शब्द के अभिधान में अन्य अर्थ भी हैं, इसका अर्थ केवल ऎश्वर्य नहीं होता है। श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रेम लक्ष्मी हैं। उनके साथ उनकी अनेक लीलाएँ है। श्री चैतन्य महाप्रभु की एक लीला ‘गौरनारायण’ की और एक लीला ‘गौरकृष्ण’ की है। स्वयं गौरांग राधाकृष्ण के मिलित तनु हैं। जब श्रीमन् महाप्रभु गृहस्थाश्रम में हैं तो गौरनारायण हैं। प्रत्येक विष्णुतत्त्व की तीन शक्तियाँ होती हैं—श्री, भू और लीला। श्री शक्ति—लक्ष्मीप्रिया, भू शक्ति—भक्तिस्वरूपिणी विष्णुप्रिया और लीला शक्ति—धाम। यहाँ माधुर्य है पर परिपूर्ण मात्रा में नहीं है। मधुर रस, वात्सल्य रस से श्रेष्ठ है। मधुर रस में असंकोच भाव से सेवा होती है। यहाँ मधुर रस है, पर स्वकीय है। यदि उस सर्वोत्तम मधुर रस को प्राप्त करने की इच्छा है, तो गदाधर पण्डित गोस्वामी का आश्रय लेना पड़ेगा। गदाधर-जीवन, गदाधर-प्राणनाथ हैं—गौरांग महाप्रभु। जब हम नवद्वीप धाम परिक्रमा में चंपकहट्ट (चांपाहाटी) जाते हैं, वहाँ द्विज वाणीनाथ के सेवित विग्रह श्री गौर-गदाधर हैं, जहाँ पर जयदेव गोस्वामी ने भजन किया है। जब राजा लक्ष्मणसेन को पता चला कि जयदेव गोस्वामी नवद्वीप धाम छोड़कर चले जाएँगे, तब उन्होंने कहा कि आप मत जाइए, मैं विषयी आपको तंग नहीं करूँगा। आप चंपकहट्ट में ही रहिए। चंपा एक प्रकार का पीले रंग का फूल होता है, स्वर्ण या गौर वर्ण का। राधारानी कि अंग कान्ति भी सोने के समान (गौर वर्ण) है। यहीं पर द्विज वाणीनाथ और जयदेव गोस्वामी ने पहले राधाकृष्ण के तथा इसके पश्चात् गौरांग महाप्रभु के दर्शन किए थे। जब हम वहाँ जाते हैं तो वहाँ का महात्म्य सुनते हैं। महात्म्य सुनने से ही पता चलेगा। यदि हम महात्म्य नहीं सुनेगे, तो इन आँखो से क्या देखेंगे, कुछ समझ नहीं आएगा। यह जड़ नेत्र हैं, एक चिन्मय नेत्र होते हैं। चिन्मय नेत्र होने से भगवान का चिन्मय स्वरूप दिखाई देगा, जो भगवान का वंशीवादन करनेवाला रूप है, जिसमें सब प्रकार का आनन्द है। यदि वह दर्शन नहीं हुए तो इन आँखो का क्या लाभ है?
श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी सर्वोत्तम प्रेम प्रदान कर सकते हैं। हमने पहले भी एक श्लोक का उच्चारण किया था—
पंचतत्त्वात्मकमं कृष्णं भक्तरूपस्वरूपकम्।
भक्तावतारं भक्ताख्यं नमामि भक्तशक्तिकम्॥
श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी, राधारानी शक्तिमान तत्त्व नहीं हैं, शक्ति तत्त्व हैं, पूर्णा शक्ति हैं। शक्तिमान तत्त्व तो भगवान हैं। जो ‘भग’ अर्थात् ‘ऐश्वर्य’ को धारण करते हैं, उन्हें ‘भगवान’ कहते हैं। राधारानी श्री कृष्ण की आराधिका शक्ति, चिन्मयी शक्ति अथवा अन्तरंगा शक्ति हैं।
उसी प्रकार गदाधर पण्डित गोस्वामी गौरांग महाप्रभु की अन्तरंगा शक्ति हैं। जो मधुर रस के अतिरिक्त अन्य रसों को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें नित्यानन्द प्रभु का आश्रय लेना चाहिए। महाप्रभु नित्यानन्द-जीवन हैं। अन्य रस नित्यानन्द प्रभु से भी मिल जाएँगे किन्तु सर्वोत्तम रस, मधुर रस के विषय में शुद्धभक्ति संप्रदाय का ऐसा मानना है कि गदाधर पण्डित गोस्वामी की कृपा के बिना वे इस भाव को नहीं पा सकते हैं।
श्री गदाधर पण्डित गोस्वामी का आविर्भाव ‘बेलेटि’ नामक ग्राम में हुआ। बेलेटि ग्राम, चट्टग्राम के पास है, जो वर्त्तमान बांग्लादेश के ढाका जिले में है। वहाँ गदाई-गौरांग का मंदिर भी है। वहाँ पर आज भी गदाधर पण्डित के आविर्भाव के उपलक्ष्य में बहुत बड़ा उत्सव होता है। एक बेलटि ग्राम आसाम में भी है, वहाँ पर भी गदाधर पण्डित गोस्वामी का आविर्भाव उत्सव प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। गदाधर पण्डित गोस्वामी महाप्रभु के जीवन हैं। 1408 शकाब्द में (वैशाखी अमावस्या तिथि को) माधवमिश्र, जो पुण्डरीक विद्यानिधि से अभिन्न हैं तथा रत्नावती देवी को पिता-माता के रूप में अवलबंन करके प्रकट हुए थे। गदाधर पण्डित गोस्वामी महाप्रभु की पूर्ण शक्ति हैं। इसलिए उन्होंने नवद्वीप तथा पुरुषोत्तम धाम, दोनों स्थानों पर महाप्रभु के साथ लीलाएँ की। गदाधर पण्डित गोस्वामी शक्तितत्त्व हैं, श्रीवास पण्डित जो कृष्ण लीला में नारद हैं, वे भी शक्तितत्त्व हैं। कृष्ण लीला में जो प्रेमरूपा राधारानी हैं उनकी चन्द्रकान्ति हैं—गदाधर दास।
अन्य बहुत से भक्त हैं जो भगवान को दास्य, सख्य अथवा वात्सल्य भाव से सेवा करते हैं, किन्तु गदाधर पण्डित गोस्वामी, स्वरूप दामोदर तथा राय-रामानन्द ये सब शक्ति तत्त्व हैं। राधा के अनुगत जो अनुराधा हैं — ललिता-विशाखा, वे भी गदाधर पण्डित गोस्वामी में प्रविष्ट हैं।
गदाधर पण्डित गोस्वामी अपने आविर्भाव काल से बारह वर्ष तक बेलेटि में रहे, उसके बाद नवद्वीप में आ गए। मुकुन्द दत्त और वासुदेव दत्त भी चट्टग्राम से ही हैं। ये दोनों भी महाप्रभु के पार्षद हैं। गदाधर पण्डित गोस्वामी जब नवद्वीप में आए, तो ये उनसे पहले से ही परिचित थे। जब महाप्रभु ने विद्याविलास लीला की तो कोई भी उनके सामने आकर तर्क करने ही हिम्मत नहीं रखता था। महाप्रभु जब किसी के साथ तर्क करते तो पुनः पुनः पहले उसका विचार खण्डन करते फिर उसे स्थापन करते। उनका नाम सुनने से ही सब उनसे दूर भाग जाते। श्रीवास पण्डित और मुकुन्द दत्त एक दूसरे से शास्त्र विचार करते पर महाप्रभु को देखने से ही दूर भाग जाते।
एक दिन महाप्रभु ने गदाधर पण्डित गोस्वामी से मुक्ति की परिभाषा पूछी। तो उन्होंने अर्थ किया—आत्यंतिक दुःख निवृत्ति। महाप्रभु ने इसका खण्डन किया और मुक्ति की दूसरी व्याख्या दी और उसे स्थापन भी किया। सभी भक्त उनके मुख से ऐसी अपूर्व व्याख्या सुनकर विस्मित हो गए और सोचने लगे कि निमाई कितना विद्वान है। यदि यह भक्त होता तो कितना अच्छा होता। निमाई स्वयं भगवान हैं, वे लोग इस बात को नहीं समझ सके। महाप्रभु श्रीवास पण्डित के साथ उनके कपड़े उठाकर ले जाते और धो भी देते थे। वे भक्त परायण थे। श्रीवास पण्डित महाप्रभु को प्रायः कहते थे, “यह तर्क-वितर्क करना तो विद्या का फल नहीं है।
सेइ से विद्यार फल जानिह निश्चय।
कृष्णपादपद्मे यदि चित्तवित्त रय॥
कृष्ण पादपद्मों में चित्त-वित्त का लगा रहना ही विद्या का वास्तविक फल है।” तब महाप्रभु कहते कि आपके आर्शीवाद से मैं एक दिन अवश्य भक्त बन जाऊँगा। भगवान स्वयं कह रहे हैं, परन्तु श्रीवास पण्डित उन्हें समझ नहीं पाए, तब अन्य कैसे समझेंगे? महाप्रभु बात कर रहे हैं, श्रीवास पण्डित आकर्षित हो रहे हैं, परन्तु समझ नहीं पा रहे हैं कि यह स्वयं भगवान हैं।
जब महाप्रभु गया में गए व ईश्वर पुरीपाद से मिले और उन्हें अपना भाव प्रकाशित कर दिया। वापस आकर बिलकुल विपरीत हो गए, हर समय प्रेम में उन्मत्त रहने लगे। सब भक्त देखकर आश्चर्यचकित हो गए कि यह हर समय हम से तर्क-वितर्क करते रहता था,अब इतना बड़ा वैष्णव हो गया है। महाप्रभु ने बोल दिया कि भक्तो की इच्छापूर्ति करने के लिए मैं शुक्लाम्बर ब्रह्मचारी के घर में जाकर सब से मिलूँगा तथा महाप्रकाश लीला करूँगा। गदाधर पण्डित गोस्वामी उनके घर में पहले से ही छिप कर बैठ गए। गदाधर पण्डित गोस्वामी महाप्रभु के प्रेम विकार को देखकर मूर्छित हो गए। उसके बाद गदाधर पण्डित गोस्वामी सब समय महाप्रभु के साथ रहने लगे। महाप्रभु सब समय कृष्ण के लिए रोते और कहते—
कहाँ कृष्ण प्राणनाथ मुरलीवदन।
कहाँ जाऊँ कहाँ पाऊँ व्रजेन्द्रनन्दन॥
एक दिन गदाधर पण्डित महाप्रभु से बातों ही बातों में कहते हैं कि आपके प्राणनाथ तो आपके हृदय में ही हैं। यह सुनने के साथ-साथ ही महाप्रभु अपनी छाती फाड़ने लगे, तो गदाधर पण्डित ने ही उन्हें समझाकर स्थिर किया। उस समय शची माता उनके निकट में ही थीं। अत्यंत स्नेह के कारण वे अपने पुत्र के लिए चिंता करने लगीं कि यह स्वयं को कोई हानि ना पहुँचा ले। तब शची माता ने कहा—“गदाधर, तुम सदैव निमाई के साथ रहना।” उस समय से गदाधर पण्डित सदैव उनके साथ रहने लगे।
जड़ जगत में आसक्त हम लोग अप्राकृत जगत की इस प्रेमासक्ति को किस प्रकार से समझेंगे?
गदाधर पण्डित गोस्वामी बचपन से ही बहुत निष्ठावान ब्रह्मचारी थे। यह देखकर ईश्वरपुरीपाद ने उन्हें स्वरचित कृष्णलीलामृत ग्रन्थ पढ़ाया था।
महाप्रभु के पार्षद श्री पुण्डरीक विद्यानिधि भी चट्टग्राम में रहते थे। बाद में वे नवद्वीप में आकर रहने लगे। उन्हें कोई पहचान नहीं सकता था, क्योंकि वे अपने भीतर के भक्तिभाव को छिपा कर बाहर से विषयी लोगों की तरह व्यवहार करते थे। एक बार श्री मुकुन्द ने गदाधर पण्डित गोस्वामी से कहा कि यहाँ पर एक अद्भुत वैष्णव हैं, आपको उनके दर्शन करवाएंगे तथा उन्हें श्री पुण्डरीक विद्यानिधि के घर ले गए। जब पुण्डरीक विद्यानिधि नवद्वीप आए थे, तब महाप्रभु ने कहा था, “पुण्डरीक रे! बाप रे आमार!” स्वकीय भाव से ऐसा कहने लगे। जो राधारानी के पिताजी श्री वृषभानु महाराज हैं, उनके ही अभिन्न स्वरूप हैं — श्री पुण्डरीक विद्यानिधि। सब आश्चर्यचकित हो गए कि यह कौन हैं? यह नाम तो कभी सुना ही नहीं।
जब श्री मुकुन्द गदाधर पण्डित को श्री पुण्डरीक के घर लेकर आए तो गदाधर पण्डित ने देखा कि जितनी प्रकार की भोग की वस्तुएँ थीं, जैसे दिव्य पलंग के ऊपर दूध की फेन के समान सफेद और कोमल शैय्या, इत्र की गंध से आमोदित कक्ष, लंबी नाल़ वाला हुक्का व सोने का बढ़िया पीक दान। यह देखकर गदाधर पण्डित गोस्वामी ने उनके आतंरिक भाव को न समझने की लीला की। यह विषय-भोगी है, ऐसा जानकर उनकी श्रद्धा नहीं हुई। वे पुण्डरीक के बारे में सोचने लगे कि यह किस प्रकार के वैष्णव हैं, मुकुन्द उन्हें कहा ले आए।
पुण्डरीक कृष्णलीला में उनके ही पिताजी वृषभानु महाराज हैं, वह इसे समझ नहीं पाए। उन्होंने स्वयं को छिपाकर और दूसरों को धोखा देने के लिए इस प्रकार का रूप बनाया हुआ था। मुकुन्द ने गदाधर पण्डित के भाव को जानकर शीघ्र से एक श्लोक उच्चारण किया—
अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाधवी।
लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोन्यं कम वा दयालुं शरणं व्रजेम॥
(श्रीमद्भागवत 3.2.23)
अर्थात् बकासुर की बहन पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष लगाकर कृष्ण को मारने के लिए आई थी। उसने जो थोड़ा सा मातृभाव दिखाया, कृष्ण को गोद में लिया, उसी से संतुष्ट होकर श्रीकृष्ण ने उसे धात्रोचित गति प्रदान की। इस प्रकार दयालु कृष्ण को छोड़कर और किस के पास शरणागत हों?
जैसे ही यह बात पुण्डरीक विद्यानिधि ने सुनी वे ‘हा कृष्ण!’ कहते हुए मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। तकिया कहाँ, बिस्तर कहाँ, कहाँ कपड़े, सब इधर-उधर हो गया। अष्टसात्विक विकार होने लगे। गदाधर पण्डित उनकी स्थिति को देखकर सोचने लगे कि उन्हें साधारण व्यक्ति समझ कर उन्होंने उनके चरणों में अपराध कर दिया है। भीतर में तो कृष्ण के लिए विरह है, इसीलिए थोड़ी सी लीला उद्दीपन हो जाने से ही विरह प्रकाश हो जाता है। जगत के व्यक्ति इसे क्या समझेंगे? गदाधर पण्डित ने महाप्रभु को बताया कि उनका श्री पुण्डरीक विद्यानिधि के चरणों में अपराध हो गया है, तो महाप्रभु ने उन्हें अपना अपराध मार्जन करने के लिए पुण्डरीक विद्यानिधि से दीक्षा लेने के लिए कहा। गदाधर पण्डित उनसे दीक्षा ग्रहण कर उनके शिष्य बन गए।
पुण्डरीक विद्यानिधि दिन के समय गंगा नदी में नहीं जाते थे। यह देखकर कि लोग गंगा में कपड़े धोना, दन्तधावन, बर्तन मांजना इत्यादि कार्य करते हैं, उनका हृदय दुःखी हो जाता था। इसलिए मध्य रात्रि में जाकर दूर से प्रणाम करते। स्नान करने के लिए पवित्र गंगा में पैर डालने पड़ेंगे—इस विचार से दूर से ही गंगाजल लेते थे। जिस प्रकार हमारे परमगुरुदेव श्रील भक्ति सिध्दांत सरस्वती ठाकुर राधाकुंड में कभी स्नान नहीं करते थे। राधाकुंड साक्षात् राधारानी हैं। इसलिए उसमें किस प्रकार से पैर डालेंगे। परन्तु हम लोग उनका अनुकरण नहीं करेंगे। हम लोग उस भूमिका में नहीं हैं।
गदाधर पण्डित गोस्वामी महाप्रभु के साथ श्रीवास आंगन, चाँद-काज़ी उद्धार, गुण्डिचा मार्जन, जगन्नाथ रथयात्रा आदि सभी लीलाओं में थे। जब महाप्रभु ने संन्यास लिया, तो शची माता ने महाप्रभु से कहा कि वे उनके निकट पुरी में ही निवास करें। यह जानकर कि महाप्रभु पुरी में ही रहेंगे और ताकि महाप्रभु उन्हें किसी अन्य स्थान पर न भेज पाएँ, गदाधर पण्डित ने पुरी में जाकर क्षेत्र-संन्यास ले लिया। क्षेत्र-संन्यास अर्थात् जिस क्षेत्र में संन्यास लेंगे सारा जीवन उसी क्षेत्र में ही रहना पड़ेगा। इस प्रकार महाप्रभु उन्हें किसी अन्य स्थान पर भेज नहीं पाएंगे। साथ ही शची माता ने भी उन्हें महाप्रभु के संग रहने के लिए कहा था। गदाधर पण्डित की इच्छा थी कि वे सब समय महाप्रभु के समक्ष रहें। इसलिए उन्होंने पुरी जाकर क्षेत्र-संन्यास ले लिया। जब श्री टोटा गोपीनाथ प्रकाशित हुए तो महाप्रभु ने उनकी सेवा गदाधर पण्डित को प्रदान की। टोटा गोपीनाथ का विग्रह बहुत ऊँचा था। गदाधर पण्डित उनकी सेवा बहुत प्रेम से करते थे, परन्तु जब अधिक आयु होने के कारण उन्हें सेवा करने में थोड़ी कठिनाई होने लगी, तब उनकी प्रेममयी सेवा ग्रहण करने के लिए श्री गोपीनाथ के श्रीविग्रह नीचे बैठ गये। गदाधर पण्डित इस प्रकार भाव से सेवा करते थे। जब नित्यानन्द प्रभु पुरी आए, तो गदाधर पण्डित ने उन्हें श्री टोटा गोपीनाथ के प्रसाद सेवन के लिए निमन्त्रण दिया। नित्यानन्द प्रभु दाऊजी बलराम हैं। नित्यानन्द प्रभु गोपीनाथ की सेवा के लिए गौड़देश से बहुत बढ़िया चावल लेकर आए थे। टोटा का अर्थ होता है—बगीचा। गदाधर पण्डित ने चावल और स्वयं बगीचे में उगाई शाक कि सब्ज़ी बनाई। जब श्री गदाधर पण्डित ने भोग निवेदित किया, उसी समय महाप्रभु भी वहाँ आ गये। महाप्रभु के आने से और अधिक आनन्द हो गया तथा तीनों ने मिलकर आनन्द से प्रसाद पाया।
चातुर्मास्य में सभी गौड़ीय वैष्णव पुरी आते थे। चार महीने सब पुरी में ही रहते थे तथा रथ यात्रा के बाद सब वापस चले जाते थे। तीसरे वर्ष में जब गुण्डिचा मार्जन और रथ यात्रा के बाद सब चले गए, तब महाप्रभु ने वृन्दावन जाने का संकल्प लिया कि वे अवश्य ही वृन्दावन जाएँगे। पुरी के राजा प्रतापरुद्र भी महाप्रभु के भक्त थे। उनके राज्य से होकर वृन्दावन जाने में कोई कठिनाई नहीं थी, परन्तु उनके राज्य की सीमा के बाद मुसलमान राजा का राज्यत्व होने के कारण थोड़ी असुविधा हो सकती थी, किन्तु राजा प्रतापरुद्र ने महाप्रभु कि यात्रा के लिए सब व्यवस्था का दायित्व लिया। जब महाप्रभु ने वृन्दावन के लिए अपनी यात्रा प्रारम्भ की तो राय रामानन्द व अन्य भक्त भी उनके साथ चल पड़े। जब महाप्रभु वृन्दावन जाने लगे तो गदाधर पण्डित भी उनके साथ जाने लगे। महाप्रभु ने गदाधर पण्डित के लिए चिंतित होकर उनसे कहा, “तुमने तो क्षेत्र संन्यास व्रत लिया है। उसे तोड़ना ठीक नहीं है।” गदाधर पण्डित बोले, “आप जहाँ हैं, वहीं पर नीलाचल है।
क्षेत्र संन्यास मोर याउक रसातल।
मेरा क्षेत्र संन्यास रसातल में जाए।” इस प्रकार का गाढ़ प्रेम का सम्बन्ध है दोनों का। इतना प्रेम है कि एक क्षण भी उनका विरह सहन नहीं कर सकते। जिन्होंने प्रेम राज्य में प्रवेश किया है, वे ही इसे समझ सकते हैं। विधि भक्ति के द्वारा इसे समझा नहीं जा सकता है। गाढ़ प्रेमासक्ति है महाप्रभु से। महाप्रभु ने पुनः कहा, “अपने व्रत को तोड़ दोगे तो अपराध लगेगा और तुम्हारी तो श्री गोपीनाथ की सेवा भी है। श्री गोपीनाथ की सेवा भी छोड़ दोगे तो मेरा गोपीनाथ के चरणों में अपराध होगा?”
गदाधर पण्डित उत्तर देते हैं, “यह मेरी ज़िम्मेदारी है। आपकी सेवा से कोटि गोपीनाथ की सेवा हो जाएगी। मैं सभी प्रकार का अपराध ले लूँगा।”
किस प्रकार का प्रेम है, क्या कोई इसे समझ सकता है? शची माता ने भी आज्ञा दी थी कि सदैव निमाई के साथ रहना और उन्हें महाप्रभु की चिंता भी है कि महाप्रभु मार्ग में कहाँ-कहाँ जाएँगे, क्या-क्या होगा। इसलिए गदाधर पण्डित अपना व्रत तोड़ने के लिए तैयार हो गए कि प्रतिज्ञा तोड़ने से जो भी होगा उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है। गदाधर कहते कि मेरे कारण आपको कोई असुविधा नहीं होगी, आपके साथ नहीं जाऊंगा, किन्तु शची माता से मिलने जाऊंगा। वे अकेले चलने लगे। तब कटक के पास पहुँच कर महाप्रभु ने उन्हें पुनः बुलाया और कहा, “तुम मेरा सुख चाहते हो अथवा अपना सुख चाहते हो? यदि मेरा सुख चाहते हो तो मेरी इच्छा है कि तुम श्री पुरुषोत्तम धाम क्षेत्र छोड़कर बाहर नहीं जाना।” यह सुनकर गदाधर मूर्छित होकर गिर पड़े। हम लोग नहीं समझ पाएँगे कि उनका गाढ़ प्रेम कैसा है।
महाप्रभु ने इस धरातल पर अड़तालीस वर्ष तक लीला की। महाप्रभु के इस धरा-धाम से जाने के बाद गदाधर पण्डित केवल ग्यारह महीने तक इस धरातल पर रहे और सदैव महाप्रभु के विरह में रोते रहते थे। महाप्रभु इस धरातल पर सर्वोत्तम प्रेम देने के लिए आए—‘उन्नत-उज्जवल रस’। यदि उनके उस प्रेम को प्राप्त करने की इच्छा है तो हमें गदाधर पण्डित गोस्वामी के चरणों में पूर्ण रूप से शरणागत होकर उनकी कृपा प्रार्थना करनी चाहिए, अपने गुरुवर्गों की कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। तभी हम उस उन्नत-उज्जवल रस प्राप्त कर सकेंगे, जिस भाव को कृष्ण भी आस्वादन करने की इच्छा रखते हैं। कृष्ण कहते हैं—
ऐश्वर्य ज्ञानेते सब जगत मिश्रित।
ऐश्वर्य शिथिल प्रेमे नाहि मोर प्रीत॥
ऐश्र्वर्य भाव में प्रेम संकुचित हो जाता है।
आपनाके बड़ माने आमारे सम-हीन।
सेइ भावे हइ आमि ताहार अधीन॥
मोर पुत्र, मोर सखा, मोर प्राण-पति।
एइ-भावे येइ मोरे करे शुद्ध-भक्ति॥
इसी प्रकार नन्दनन्दन कृष्ण की सेवा करने में कोई संकोच नहीं रहता।
एक बार वल्लभभट्ट (वल्लभाचार्य) महाप्रभु के पास आए। उनके पांडित्य अभिमान को देखते हुए महाप्रभु ने उनके प्रति उपेक्षा का भाव प्रकाशित किया। वल्लभभट्ट ने देखा कि गदाधर पण्डित कोमल स्वभाव के हैं, तो वे उनके पास जाकर अपना पांडित्य प्रकाशित करने लगे। जिस प्रकार रुक्मिणी का कृष्ण लीला में (दक्षिण) स्वभाव था, तथा जब श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी जी के प्रति उदासीनता दिखाई, तो उन्होंने समझा कि कृष्ण अब उन्हें छोड़ देंगे व रोना शुरू कर दिया; उसी प्रकार जब महाप्रभु ने वल्लभ भट्ट के कारण गदाधर पण्डित के प्रति कुछ उदासीनता दिखाई, तो इस संदेह से कि कहीं महाप्रभु उनका परित्याग न कर दें, वह उसी समय महाप्रभु के पास जाकर उनके चरणों में गिरकर रोने लगे। इसी कारण महाप्रभु को ‘गदाधर-प्राणधन’, ‘गदाधर-जीवन’ कहते हैं। अब गदाई गौरांग का कीर्तन होगा…..