नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं
क्रमे क्रमे सेइ सब चिन्ता परिहारे।
यतिवे सौभाग्यवान् वैष्णव – आचारे ।।
प्रथमेते हरिदिने भोगचिन्ता त्यजि’।
साधुसंगे रात्रदिन हरिनाम भजि ।।
हरिक्षेत्रे हरिदास हरिशास्त्र ल’ये।
उत्सवे मजिवे सुखे परम निर्भये ।।
क्रमे भक्तिकाल मन करिवे वर्द्धन ।
हरिकथा महोत्सवे मजाइया मन ।।
श्रेष्ठरस क्रमे चित्ते हइवे उदय ।
जड़ेर निकृष्ट रस छाड़िवे निश्चय ।।
महाजन – मुखे हरिसंगीत श्रवणे।
मुग्ध ह’वे मनः कर्ण रस – आस्वादने ।।
निकृष्ट विषयस्पृहा हइवे विगत।
नामगाने चित्त स्थिर हवे अविरत ।।
अतएव बहुयत्ने ए प्रमाद त्यजे।
स्थिरचित्ते नामरसे चिरदिन- मजे ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि सौभाग्यवान साधक को चाहिए कि वह कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा इत्यादि की भावनाओं को त्यागकर श्रेष्ठ वैष्णवों के आचरण के अनुसार साधना करने का प्रयत्न करे। इसमें सब से पहले वह एकादशी, जन्माष्टमी व वैष्णवों की आविर्भाव – तिरोभाव तिथियों में अपने भोग – विलास के चिन्तन का परित्याग करते हुए दिन-रात साधु – संग में रहकर हरिनाम करे। उसके बाद वह बड़े उत्साह के साथ भगवान के वृन्दावन, नवद्वीप व श्रीजगन्नाथपुरी इत्यादि धामों में भगवान के भक्तों के साथ विभिन्न महोत्सवों में शामिल हो तथा श्रीमद् भगवद् गीता, श्रीमद्भागवत व वैष्णव – ग्रन्थों का अनुशीलन तथा श्रवण-कीर्तन करता रहे। धीरे-धीरे उपरोक्त कार्यों के समय को स्वेच्छा से बढ़ाता रहे तथा श्रीहरिकथा के महोत्सव में अपने को रमाये रखे।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इस प्रकार साधना करते रहने से साधक के चित्त में श्रेष्ठ-रस उदित होने लगता है, जिससे दुनियावी निकृष्ट – रस से मन अपने-आप ही शत-प्रतिशत हटने लगता है। ऐसे समय पर यदि साधक महाजनों के मुख से भगवान का संगीतमय कीर्तन सुनें तो वह कीर्तन उसके मन व कानों को दिव्य-रस का आस्वादन करवाकर भगवान में मुग्ध कर देगा। दुनियाँ के तुच्छ विषय भोगों की लालसा साधक के चित्त से कब खत्म हो गयी, ये उसे मालूम भी नहीं पड़ेगा तथा साथ ही महाजनों के मुख से सुना वह कीर्तन हमेशा के लिए साधक के चित्त को भगवान में स्थिर कर देगा। अतएव, यदि साधक अपने अन्दर भरे प्रमाद को हटाने के लिए ये रास्ता अपनाये तो यह दिव्य-मार्ग उसके चित्त को स्थिर करके उसे चिर-दिन के लिए दिव्य रसानन्द में डुबा देगा।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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हरिनाम का अप्राकृत बुद्धि से आश्रय करो
धर्म अर्थात् वर्णाश्रम और दानादि धर्म, व्रत, त्याग अर्थात् समस्त प्रकारके शुभ कर्म-त्याग अर्थात् समस्त कर्मफल त्यागरूप संन्यास-धर्म, नाना प्रकारके यज्ञ और अष्टाङ्गयोग- ये सभी सत्कर्म हैं। इनको छोड़कर शास्त्रोंमें जो दूसरी दूसरी शुभ क्रियाएँ निर्धारितकी गयी हैं, वे सभी जड़ धर्मके अन्तर्गत हैं, अतएव प्राकृत हैं परन्तु भगवन्नाम प्रकृतिसे परे है। पूर्वोक्त समस्त सत्कर्म उपायके रूपमें उपस्थित होकर अप्राकृत सुखरूप उपेय देनेकी प्रतिज्ञा करते हैं, इसलिए वे केवल उपायमात्र हैं- उपेय नहीं। परन्तु हरिनाम साधनके समय उपाय होनेपर भी फलके रत्मय स्वयं उपेय हैं। अतः हरिनामके साथ किसी भी सत्कर्मकी तुलना नहीं की जा सकती। जो लोग ऐसा करते हैं अर्थात् हरिनाम और सत्कर्मोंको बराबर मानते हैं, वे नामापराधी हैं। यदि कोई उन कर्मोंसे मिलनेवाले तुच्छ फलोंके लिए श्रीहरिनामसे प्रार्थना करते हैं तो वे नामापराधी हैं। क्योंकि इससे अन्यान्य सत्कर्मोंके साथ श्रीनामकी साम्यबुद्धि हो पड़ती है। तुम लोग सत्कर्मोंके फलोंको तुच्छ जानकर हरिनामका अप्राकृत बुद्धि से आश्रय करो-इसीका नाम अभिधेयज्ञान है।
जैव धर्म
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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गुरु – वैष्णवों से कृष्ण की कथाओं का श्रवण
संसार तृणाच्छादित कूप (घास से ढके हुए कुँए) के समान है । इस संसारकूप में एक बार गिर जाने पर, फिर इससे बाहर निकलना बहुत ही कठिन है । भगवान की कृपा के बिना केवल अपनी चेष्टा से कोई भी इस संसारकूप से बाहर नहीं निकल सकता । हम लोग कृष्ण के दास हैं, इस बात को भूलते ही हमें माया का दास होना पड़ेगा । भगवान की सेवा ही भक्ति है और भोग की इच्छा अभक्ति । प्रणिपात, परिप्रश्न तथा सेवावृत्ति के साथ गुरु – वैष्णवों से कृष्ण की कथाओं का श्रवण ही इस अभक्ति को परित्याग करने का एकमात्र उपाय है । तभी संसार करने की प्रवृत्ति दूर होगी और श्रीकृष्णसंकीर्तन में रुचि होगी।
श्रीलप्रभुपाद
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प्रतिष्ठा से घृणा
एक समय किसी एक भक्त ने श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज से जिज्ञासा की, “श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने स्वरचित ‘वैष्णव के ?’ नामक कीर्त्तन में ‘तोमार प्रतिष्ठा, शूकरेर विष्ठा’ नामक पद में प्रतिष्ठा की तुलना शूकर की विष्ठा से क्यों की है?”
श्रील श्रीधर गोस्वामी महाराज ने उत्तर प्रदान किया, “प्रतिष्ठा इतनी घृणित तथा सार रहित है कि किसी भी प्राणी के लिये अनुपयोगी शूकर की विष्ठा (‘यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि श्रील प्रभुपाद ने शूकर की विष्ठा ही क्यों कहा जबकि मनुष्य की विष्ठा भी उतनी ही असार वस्तु है। ऐसा इसलिए कि मनुष्य की विष्ठा का फिर भी एक उपयोग यह है कि शूकर उसे ग्रहणकर जीवित रहते हैं, परन्तु शूकर की विष्ठा नितान्त असार है, क्योंकि समस्त पशु-प्रजातियाँ यहाँ तक कि शूकर भी उसकी अवहेलना करते हैं।) से उसकी तुलना करना समीचीन ही हुआ है। वास्तव में यदि श्रील प्रभुपाद को इससे भी अधिक निकृष्ट तुलना योग्य कोई शब्द मिलता तो वे उसका ही उपयोग करते।”
श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज
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जीव अपनी चेष्टा से भगवान को नहीं जान सकता
असीम को, सर्वशक्तिमान को किसी ने जान लिया है या समझ लिया है, यह बात कहने से असीम के असीमत्त्व की व सर्वशक्तिमान् की सर्वशक्तिमत्ता की हानि होती है। दूसरी ओर यदि असीम व सर्वशक्तिमान् स्वयं को न जना सकें, वे हमें अपना अनुभव प्रदान न कर पायें तो भी उनके असीमत्त्व की व उनकी सर्वशक्तिमत्त्ता की हानि होती है। अर्थात् तब भी हम उन्हें असीम या सर्वशक्तिमान् नहीं कह पायेंगे क्योंकि उनमें ये ताकत नहीं है कि वे अपने आपको हमें जना पायें। अतः ये सिद्धान्त बना कि जीव अपनी चेष्टा से भगवान को नहीं जान सकता व नहीं समझ सकता है। हाँ, भगवान यदि कृपा करके जनायें तो जान सकता व समझ सकता है। प्रमाण, यथा कठोपनिषद् :-
‘नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥’
(कठो. 1/2/23)
इसलिये अशरणागत व्यक्ति जितनी प्रकार की भी चेष्टा क्यों न कर ले, वह परमेश्वर के अस्तित्त्व की उपलब्धि करने में समर्थ नहीं होता है। अशरणागत हिरण्यकशिपु गदा हाथ में लेकर विष्णु को मारने के लिये बहुत खोजता रहा परन्तु विष्णु को देख न पाया; जबकि शरणागत भक्त प्रह्लादजी विष्णु की कृपा से विष्णु को सर्वत्र देख पाये।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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तत्त्व विचार केवल कहने सुनने की वस्तु नहीं, उसके अनुसार सेवा की चेष्टा में प्रतिष्ठित होना है
हम में से यदि किसी को contagious (फैलने वाली) या infectious (छूत की) बीमारी हो जाये, तब पता चलेगा कि, किसकी कितनी वैष्णव प्रीति है। उस समय कहीं हम स्वयं रोगग्रस्त न हो जायें, इसी भय से वैष्णव को छोड़कर कहीं भी दूर चले जाने के लिए हिचकते नहीं हैं। अनित्य रक्त-मांस के इस शरीर के प्रति हमारी कितनी ममता है, वह समझ में आती है। हम लोग हमेशा पाठ-कीर्त्तन-प्रवचन में कहते हैं, – ‘देह कुछ नहीं, मन कुछ नहीं’, लेकिन उसे ही हरदम प्रमुखता देते हैं। कथनी और करनी यदि एक न हो तो बेकार में कहकर लोगों को ठगने से क्या लाभ है ? वैष्णवों का प्रधान गुण है सत्य संकल्प । हम सब समय कहते हैं- वैष्णवों के लिए जान देनी होगी, सब कुछ समर्पित करना होगा, जो भी कर्त्तव्य है, उसे वैष्णवसेवा के लिए ही करना होगा। ये सब क्या वाक्य-विन्यास (शब्दों की सजावट) तक ही सीमित रहेगा ?
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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महाप्रभु की शिक्षा का किस प्रकार से पालन किया जाये, इसको अच्छे से समझने के लिए हम श्रीमद्भागवत में वर्णित दुर्वासा और अम्बरीष महाराज के चरित्र का पाठ करते हैं।
सातवे मन्वन्तर में वैवस्वत श्राद्धदेव मनु के पुत्र नभग हुए। मनुपुत्र नभग के पुत्र थे नाभाग और नाभाग के पुत्र परमभागवत अम्बरीष हुए। जो ब्रह्मशाप कभी भी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका।
महाभाग्यवान् महाराज अम्बरीष अतुलनीय सुदुर्लभऐश्वर्य के मालिक होने पर भी उसको स्वप्न तुल्य समझते थे। भगवान् श्री वासुदेव और उनके भक्तों में उनका अत्यधिक प्रेम था। उसी प्रेम के मालिक होने पर भी वह विश्व की समस्त सम्पत्तियों को मिट्टी के समान समझते थे। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में, वाणी को सदा ही श्रीकृष्ण के गुण कीर्तन में, हाथों को श्रीहरि मन्दिर के मार्जन में और अपने कानों को भगवान् की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था।
उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अंग-संग भगवद्-भक्तों के दिव्य शरीर-स्पर्श में अर्थात् उनकी सेवा में, नासिका को उनके चरण कमलों में अर्पित तुलसी, चन्दन इत्यादियों की दिव्य गन्ध में और जिह्वा को श्री भगवान के प्रति अर्पित नैवैद्य प्रसाद में संलग्न कर दिया था।
महाराज अम्बरीष ने अपने पैर भगवान् के धाम की पैदल यात्रा करने में, शरीर के उत्तम अंग मस्तक को श्री हृषीकेश के चरणों में दण्डवत् करने में और अपनी कामना को भगवत् दास्य की प्राप्ति में लगा दिया।
इस प्रकार राजा अम्बरीष ने अपनी सभी इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में समर्पित कर दिया था। यदि कोई व्यक्ति महाराज अम्बरीष की तरह अपनी सारी इन्द्रियों को भगवत् सेवा में लगा देता है तो उसे भी उनकी तरह भगवान् एवं भक्तों के प्रति प्रेम हो जाता है।
श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज
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भगवान् की गुरु-शक्ति का प्रकाश हैं श्रीगुरुदेव
वे श्रीभगवान् की अनुग्रह-शक्ति हैं। गुरुदेव के माध्यम से भगवान् की गुरु-शक्ति आविर्भूत होकर शिष्य को कृतार्थ करती है। श्रीभगवान् ही गुरु-शक्ति का मूल आश्रय हैं। इसीलिए उन्हें ‘समष्टि-गुरु’ (मूल-गुरु) कहा जाता है। श्रीभगवान् अपने प्रिय भक्त में गुरु-शक्ति संचारित कर भजन-पिपासु (इच्छुक) व्यक्तियों को दीक्षा-दान आदि कृपा करते हैं। श्रीकृष्ण साक्षात् रूप से किसी को भी दीक्षा नहीं देते हैं; गुरुशक्ति की कृपा न होने पर मायाबद्ध जीवों का कल्याण अन्य किसी भी प्रकार से होने की सम्भावना नहीं है। शिष्य के लिए श्रीगुरुदेव, भगवान् की अमूर्त कृपा के मूर्त विग्रह हैं। श्रीभगवान् भक्त के अधीन हैं और भगवान् की कृपा भी भक्त की कृपा से ही संभव है। इसीलिए वे अपने प्रियतम भक्त के माध्यम से ही जीव को तत्त्व-ज्ञान प्रदान करते हैं।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज