संकर्षणस्य यो यो व्यूहः पयोब्धिशायिनामकः।
स एव वीरचन्द्रोऽभूच्चैतन्याभिन्नविग्रहः॥
(गौ. ग. दी. 67)
पयोब्धिशायी नामक संकर्षण जी के जो व्यूह हैं, वे श्रीचैतन्य के अभिन्न विग्रह हैं तथा वे ही अब श्रीनित्यानन्द जी के पुत्र श्रीवीरभद्र नाम से जाने जाते हैं।1 श्रीमननित्यानन्द प्रभु एवं उनकी शक्ति श्रीवसुधा देवी को अवलम्बन करके श्रीवीरचन्द्र प्रभु का आविर्भाव हुआ। श्रील कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत के आदिलीला के 11वें परिच्छेद में ऐसा वर्णन किया है कि श्रीमननित्यानन्द प्रभु जी के गणों की जितनी भी शाखायें हैं उनमें इनकी शाखा सर्वश्रेष्ठ है—
सर्वशाखा-श्रेष्ठ वीरभद्र गोसाञि।
ताँर उपशाखा यत, तार अन्त नाइ॥ (चै.च.आ. 11/56)
समस्त विष्णु-तत्त्व में श्रीशक्ति, भूशक्ति या भक्ति शक्ति तथा नीला या लीला शक्ति-ये तीन शक्तियाँ विद्यमान हैं। वीरभद्र प्रभु की तीन शक्तियाँ—श्रीमति, श्रीनारायणी और लीला शक्ति थीं। वीरभद्र प्रभु की प्रथम शक्ति श्रीमती, हुगली ज़िला के अन्तर्गत झामटपुर निवासी यदुनाथाचार्य एवं विद्युन्माला (लक्ष्मी) को अवलम्बन करके आविर्भूत हुई थीं—
यदुनन्दनेर भार्या-लक्ष्मी नाम ताँर।
कहिते कि-अति पतिव्रता धर्म याँर॥
ताँर दुई दुहिता श्रीमती नारायणी।
सौन्दर्येर सीमाद्भुत अंगेर वलनी॥
श्रीईश्वरी इच्छाय से विप्र भाग्यवान्।
प्रभु वीरचन्द्रे दुई कन्या कैल दान॥
(श्रीभक्ति रत्नाकर 13/251-253)
श्रीवीरभद्र प्रभु ने भगवतत्त्व होने पर भी भक्त की लीला की थी—
श्रीवीरभद्र गोसाञि-स्कन्द-महाशाखा।
ताँर उपशाखा यत, असंख्य तार लेखा।
ईश्वर हइया कहाय महा-भागवत।
वेदधर्मातीत हैञा वेदधर्मे रत॥
अन्तरे ईश्वर –चेष्टा, बाहिरे निर्दम्भ।
चैतन्यभक्ति-मंडपे तेंहो मूल स्तंभ।
अद्यापि याँहार कृपा-महिमा हइते।
चैतन्य-नित्यानन्द गाय सकल जगते॥
सेइ वीरभद्र-गोसाञिर चरण-शरण।
याँहार प्रसादे हय अभीष्ट-पूरण॥
(चै.च.आ. 11/8-12)
श्रीनरहरि चक्रवर्ती ठाकुर ने स्वरचित श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में श्रीवीरभद्र प्रभु के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है— <
प्रभु नित्यानन्देर नन्दन वीरभद्र।
भुवन पावन येहों गुणेर समुद्र॥
वर्णिवेक केवा, से यशेर नाहि पार।
नित्यानन्द प्रभु शाखाय ख्याति यार॥
प्रभु वीरभद्र महा आनन्देर कन्द।
केह वीरभद्र कहे केह वीरचन्द्र॥
हेन वीरचन्द्र ये देखये एकबार।
सब छाड़ि सेइ से चरण करे सार॥
(श्रीभक्ति रत्नाकर 9/ 413- 414, 420- 421)
ये नित्यानन्द शक्ति श्रीजाह्नवा देवी के मन्त्र शिष्य हैं। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत के अनुभाष्य में लिखा है कि श्रीवीरचन्द्र प्रभु के श्रीगोपीजन वल्लभ, श्रीरामकृष्ण और श्रीरामचन्द्र नामक तीन शिष्यों ने ही बाद में उनके पुत्रों के रूप में प्रसिद्धि पायी। कनिष्ठ श्रीरामचन्द्र ने खड़दह में, ज्येष्ठ श्रीगोपीजन वल्लभ ने वर्द्धमान ज़िला के मानकर के निकटवर्ती ग्राम लता में तथा मध्यम श्रीरामकृष्ण ने मालदह के निकट गयेशपुर में वास किया था।
श्रीभक्ति रत्नाकर ग्रन्थ की 13वीं तरंग में श्रीवीरचन्द्र प्रभु का, माता की अनुमति लेकर वृन्दावन यात्रा का एवं श्रीभूगर्भ गोस्वामी तथा श्रीजीव गोस्वामी से अनुमति लेकर ब्रजमण्डल परिक्रमा की बात का पता चलता है। खड़दह स्थित प्राचीन श्रीश्यामसुन्दर मन्दिर में श्रीवीरभद्र प्रभु का हस्तलिखित भागवत ग्रन्थ देखने को मिलता है। कोई-कोई बोलता है कि वह नित्यानन्द प्रभु द्वारा लिखा गया था। उक्त मन्दिर में श्रील वीरभद्र प्रभु द्वारा लाये गये पत्थर के टुकड़े से प्रकटित विग्रह—श्रीश्यामसुन्दर, श्रीराधा वल्लभ तथा श्रीनन्द दुलाल जी विराजित हैं। जिस घाट पर वह पत्थर का टुकड़ा आया था, उसका नाम श्यामसुन्दर घाट है। यहाँ पर श्रीनित्यानन्द प्रभु के आविर्भाव उत्सव का प्रचलन श्रीवीरभद्र जी ने ही प्रारम्भ किया था। यही नहीं, मन्दिर में वीरचन्द्र प्रभु के समय में डेढ मन धान के चावल और उसी परिमाण की अन्य सामग्री के साथ भोग की व्यवस्था थी। खड़दह मन्दिर में सेवारत लोगों से वीरभद्र प्रभु के सम्बन्ध में और भी अनेक प्रकार की बातें सुनी जाती हैं।
वीरचन्द्र प्रभु ने कार्तिक मास की कृष्ण नवमी को आविर्भाव लीला की थी। श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में अग्रहायण शुक्ला चतुर्दशी आविर्भाव तिथि के रूप में लिखी हुई है।
1 – स्वयं भगवान्, अवतारी श्रीकृष्ण की दूसरी देह मूल संकर्षण श्रीबलदेव जी के अभिन्न स्वरूप श्रीमननित्यानन्द प्रभु हैं। श्रीबलदेव जी के अंश वैकुण्ठ के महा-संकर्षण जी हैं, जिनके अंश प्रथम पुरुषावतार कारणाब्धिशायी विष्णु जी हैं तथा उनके द्वितीय पुरुषावतार गर्भोदशायी महाविष्णु तथा उनके अंश तृतीय पुरुषावतार क्षीरोदकशायी विष्णु जी हैं जो व्यष्टि ब्रह्माण्ड के पालन कर्ता एवं प्रत्येक जीव में अन्तर्यामी पुरुष के रूप में अनिरुद्ध भगवान् हैं अब वे ही वीरचन्द्र प्रभु हैं।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से