जो श्रीकृष्ण लीला में उद्धव हैं, उन्होंने ही परमानन्द पुरी के रूप में अवतीर्ण होकर गौर लीला की पुष्टि की है।

पुरी परमानन्दो य आसीदुद्धवः पुरा
-(गौ. ग. दी. 118)

श्रीपरमानन्द पुर पाद जी के माता-पिता का परिचय, उनके आविर्भाव और तिरोभाव का सन् व तिथि इत्यादि सभी अज्ञात ही हैं। हाँ, इस प्रकार अवश्य जाना जाता है कि वे त्रिहुत देश1 में आविर्भूत हुये थे। श्रीश्रील भक्ति सिध्दान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने उनका पूर्व परिचय त्रिहुत देश में उत्पन्न एक विप्र के रूप में दिया है। इनके दीक्षा गुरु श्रील माधवेन्द्र पुरीपाद हैं। श्रील माधवेन्द्र पुरी पाद जी के शिष्य होने के कारण ये श्रीमन्महाप्रभु जी के परम प्रिय और मर्यादा के पात्र बन गये थे। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत के आदिलीला के नवम परिच्छेद में श्रीपरमानन्द पुरी को भक्ति कल्पतरु के मध्य-मूल के रूप में वर्णन किया है भक्ति कल्पतरु के प्रथम अंकुर श्रील माधवेन्द्र पुरी पाद, द्वितीय पुष्ट अंकुर श्रीईश्वर पुरीपाद जी तथा श्रीचैतन्य महाप्रभु उसके स्कन्ध हैं।

परमानन्द पुरी-केशव भारती-ब्रह्मानन्दपुरी-ब्रह्मानन्दभारती-विष्णुपुरी-केशवपुरी-कृष्णानन्द पुरी-नृसिंहतीर्थ व सुखानन्द पुरी इन नौ ने ही भक्ति कल्पतरु की जड़ों को मजबूत किया है। यहां पर परम रहस्य की बात यह है कि स्वयं भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु भक्ति कल्पतरु के माली होने के साथ साथ अपनी अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव से उसका तना भी स्वयं ही बने हैं—

मध्यमूल परमानन्द पुरी महाधीर
एइ नव मूले वृक्ष करिल सुस्थिर
(चै. च.आ. 9/16)

श्रीमन्महाप्रभु नीलाचल से कृष्णदास नामक विप्र के साथ दक्षिण भारत भ्रमण के लिये निकले तो कूर्मस्थान, जियड़ नृसिंह, विद्यानगर (जहाँ पर महाप्रभु जी का रायरामानन्द के साथ मिलन हुआ था) गौतमी गंगा, मल्लिकार्जुन, अहोबल नृसिंह, सिद्धवट, स्कन्द क्षेत्र, त्रिमठ, वृद्धकाशी, बौद्ध स्थान, त्रिपति, त्रिमल्ल, पाना नृसिंह, शिवकान्चि, विष्णुकान्चि, त्रिकाल हस्ती, वृद्धकोल, शियाली-भैरवी, कावेरीतीर, कुम्भ कर्ण कपाल तथा श्रीरंगक्षेत्र (जहाँ पर श्रीवैंकट भट्ट को सपरिवार कृष्ण भक्ति प्रदान की थी) इत्यादि स्थानों के दर्शनों के पश्चात जब ऋषभ पर्वत2 पर आ पहुँचे तो वहीं पर उनका परमानन्द पुरी जी के साथ प्रथम मिलन हुआ था। श्रीपरमानन्द पुरी उस समय ऋषभ पर्वत पर चातुर्मास्य व्रत का पालन कर रहे थे। श्रीमन्महाप्रभु जी ने वहाँ जाकर पुरी जी की चरण वन्दना की, महाप्रभु जी को चरण वन्दना करते देख परमानन्द पुरी अति-प्रसन्न हुये और उन्होंने उनका आलिंगन किया। तीन दिन तक कृष्ण कथा चर्चा करने के पश्चात पुरी गोस्वामी जी ने जब महाप्रभु जी को बताया कि अब वे (परमानन्द पुरी) पुरुषोत्तम धाम के दर्शन करने के पश्चात् गौड़ देश में गंगा स्नान के लिये जायेंगे तो महाप्रभु जी ने उन्हें पुनः नीलाचल आने की प्रार्थना की। महाप्रभु जी की इच्छा थी कि वे सेतुबन्ध से जल्दी वापिस पुरी में आकर उनसे मिलें—

पुरी-गोसाञी बले,-आमि जाब पुरुषोत्तमे।
पुरुषोत्तम देखि’ गौड़े याब गंगास्नाने॥
प्रभु कहे,-तुमि पुनः आइस नीलाचले।
आमि सेतुबन्ध हैते आसिब अल्पकाले॥
तोमर निकटे रहि,-हेन वाञ्छा हय।
नीलाचले आसिबे मोरे हञा सदय॥
(चै. च. म. 9/171-173)

[अर्थात् श्रीपुरी गोस्वामी कहने लगे कि मैं पुरुषोत्तम धाम को जाता हूँ। उस धाम के दर्शनों के पश्चात गौड़ देश में गंगा स्नान करूँगा। यह सुन महाप्रभु कहने लगे कि आप पुनः नीलाचल में आइये, मैं थोड़े दिनों में सेतुबन्ध होकर आता हूँ। मैं आप के पास ही ठहरूँ, ऐसी मेरी इच्छा है। मेरे ऊपर कृपा करके आप अवश्य ही नीलाचल आइयेगा]

श्रीमन्महाप्रभु जी की इच्छा के अनुसार एवं श्रीमन्नित्यानन्द व जगदानन्दादि भक्तों के द्वारा भेजे जाने पर काले कृष्ण दास ने नवद्वीप में आकर शची माता एवं अन्यान्य भक्तों को जब श्रीमन्महाप्रभु के दक्षिण भारत से वापस नीलाचल पहुँचने का संवाद सुनाया तो संवाद सुनकर गौर भक्त परमानन्द में विभोर हो गये। श्रीशची माता जी की इच्छा के अनुसार श्रीअद्वैताचार्यादि भक्त नीलाचल जाने के लिये तैयार हो गये। इसी समय, दक्षिण से परमानन्द पुरी भी गंगा के किनारे-किनारे चलकर वहाँ पहुँच गये और शचीमाता के घर पर ही ठहरे। शचीमाता ने भी अत्यन्त प्रीति के साथ उन्हें भोजन करवाया। वहीं परमानन्द पुरी जी को कालाकृष्ण दास से श्रीमन्महाप्रभु जी के पुरी में वापस आने का समाचार मिला। समाचार मिलते ही वे श्रीमन्महाप्रभु जी से मिलने के लिये उत्कण्ठित हो उठे और महाप्रभु जी के भक्त द्विज कमलाकान्त को साथ लेकर गौड़देश से शीघ्र ही पुरी चले आये। महाप्रभु जी द्वारा चरण वन्दना करने पर प्रेमाविष्ट होकर उन्होंने महाप्रभु जी का आलिंगन किया तथा दोनों ने एक दूसरे के संग रहने की इच्छा को इस प्रकार से जताया:–

प्रभु कहे,—तोमा-संगे रहिते वाञ्छा हय।
मोरे कृपा करि’ कर नीलाद्रि आश्रय॥
पुरी कहे,-तोमा सङ्गे रहिते वाञ्छा करि।
गौड़ हैते चलि’ आइलाङ नीलाचल-पुरी॥
(चै. च. म. 10/97-98)

[अर्थात् महाप्रभु जी कहते हैं कि आपके साथ रहने की बहुत इच्छा होती है। अत: मुझ पर कृपा करने के लिये आप नीलाचल में ही रहें। जवाब में परमानन्द पुरी जी कहते हैं कि मैं भी आपके साथ रहने की इच्छा करता हूँ इसीलिए तो गौड़देश से चलकर नीलाचल पूरी आया हूँ।]

श्रीमन्महाप्रभु जी ने परमानन्द पुरी जी के रहने के लिये काशी मिश्र के भवन में ही एक ओर एकान्त में एक घर पर रहने के लिये निर्देश किया और उनकी सेवा के लिये एक सेवक की भी व्यवस्था कर दी। चातुर्मास में महाप्रभु जी के पार्षदों में से जो हमेशा उनके साथ रहते थे उनमें से परमानन्द पुरी भी एक थे। श्रीपरमानन्द पुरी महाप्रभु जी के कितने प्रिय पात्र थे, यह श्रीवृन्दावनदास ठाकुर लिखित श्रीचैतन्य भागवत के पाठ से जाना जाता है—

दूरे प्रभु-देखिया परमानन्द पुरी।
सम्भ्रमे उठिला प्रभु गौरांग श्रीहरि॥
प्रिय भक्त देखि’ प्रभु परम-हरिषे।
स्तुति करि’ नृत्य करे महा प्रेम-रसे॥
बाहु तुलि’ बलिते लागिला “हरि हरि।
देखिलाम नयने परमानन्दपुरी॥
आजि धन्य लोचन, सफल धन्य जन्म।
सफल आमार आजि हैल सर्व धर्म॥
प्रभु बोले,-“आजि मोर सफल संन्यास।
आजि माधवेन्द्र मोरे हइला प्रकाश॥
एत बलि’ प्रियभक्त लइ’ प्रभु कोले।
सिञ्चिलेन अंग ता’न पद्मनेत्रजले॥
पुरीओ प्रभुर-चन्द्रश्रीमुख देखिया।
आनन्दे आछेन आत्म-विस्मृत हइया॥
कत क्षणे अन्योऽन्ये करेन परणाम।
परमानन्दपुरी-चैतन्येर प्रेम-धाम॥
(चै. भा. अ. 3/168-175)

यत प्रीति ईश्वरेर पुरीगोसाञिरे।
दामोदर स्वरूपेरे तत प्रीति करे॥
संन्यासीर मध्ये ईश्वरेर प्रियपात्र।
आर नाहि, एक पुरी गोसाञि से मात्र॥
दामोदर स्वरूप परमानन्दपुरी।
संन्यासी पार्षदे एइ दुई अधिकारी।
निरवधि निकटे थाकेन दुइ जन।
प्रभु संन्यासे करे दण्डेर ग्रहण॥
पुरी ध्यानपर दामोदरेर कीर्त्तन।
न्यासि-रूपे न्यासि-देहे बाहु दुइजन॥
(चै. भा. अ. 10/42, 46-49)

[अर्थात् दूर से ही महाप्रभु जी ने श्रीपरमानन्द पुरी को देखा तो शीघ्रता से उठ खड़े हुए। प्रिय भक्त को देखकर महाप्रभु जी बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने उनकी स्तुति की और परमानन्दित होकर नृत्य करने लगे। बाहुओं को ऊपर उठाकर हरि हरि उच्चारण करने लगे और कहने लगे कि आज मैंने इन नयनों से श्रीपरमानन्द पुरी का दर्शन किया है। आज मेरे नेत्र धन्य हो गये, आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरे सब धर्म सफल हो गये। महाप्रभु जी बोले, आज मेरा संन्यास सफल हो गया। आज माधवेन्द्र पुरी मेरे सामने प्रकाशित हुए हैं। इस प्रकार कहकर प्रिय भक्त का महाप्रभु जी ने आलिंगन किया और अपने नेत्रों के जल से उनका शरीर सींच दिया। श्रीपुरी भी महाप्रभु का चन्द्र के समान मुख देखकर अपने आप को भूल गये और परमानन्द का अनुभव करने लगे। बहुत समय तक दोनों एक दूसरे को प्रणाम करते रहे। श्रीपरमानन्द पुरी श्रीचैतन्य जी के प्रेम धाम थे। श्रीपरमानन्द पुरी जी के प्रति भगवान् श्रीगौरसुन्दर जी का जिस प्रकार सम्मान भाव था, स्वरूप दामोदर जी के प्रति उससे किसी प्रकार भी कम नहीं था। संन्यासियों के बीच में महाप्रभु जी का प्रिय पात्र एक गुरु गोसाईं जी को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। श्रीस्वरूप दामोदर और श्रीपरमानन्द पुरी, यह दोनों ही श्रेष्ठ संन्यासी पार्षद हैं। हर समय दोनों महाप्रभु जी के साथ रहते हैं। चूंकि महाप्रभु जी ने संन्यास लिया इसलिए उन्होंने भी दण्ड ग्रहण कर लिया। श्रीस्वरूप दामोदर जी कीर्त्तनानन्दी थे तथा श्रीपरमानन्द पुरी जी ध्यानपरायण भजनानन्दी थे-ये दोनों भगवान् श्रीगौरसुन्दर के संन्यासी कलेवर की दो भुजाओं के समान थे ]

श्रीमन्महाप्रभु जी ने स्री से बातचीत करने के कारण छोटे हरिदास को परित्याग कर दिया था। यहाँ तक कि उन्हें अपने घर में प्रवेश करने के लिये भी मना कर दिया था। इससे दुःखी होकर छोटे हरिदास जी तीन दिन भूखे रहे। स्वरूप दामोदर-आदि भक्तों के द्वारा श्रीमन् महाप्रभु जी से छोटे हरिदास पर प्रसन्न होने के लिये बार-बार निवेदन करने पर भी महाप्रभु जी ने अपना आदेश वापस नहीं लिया, अपितु तीव्र भर्त्सना ही की। छोटे हरिदास के इस संकल्प से कि यदि महाप्रभु के दर्शन नहीं हुये तो वह प्राणत्याग कर देगा, अवगत होने के पश्चात भक्तों ने हरिदास के अपराध को क्षमा करवाने के लिये परमानन्द पुरी जी से भी प्रार्थना की। श्रीमन्महाप्रभु जी अपने गुरुदेव के गुरु भाई श्रीपरमानन्द पुरी जी को गुरु के समान पूज्य मानते थे। अतः भक्तों को यह विश्वास था कि यदि वे क्षमा के लिये निवेदन करेंगे तो महाप्रभु जी मान लेंगे। महाप्रभु जी ने भी परमानन्द पुरी जी के वाक्य की अमर्यादा नहीं की और छोटे हरिदास को अपने घर में प्रवेश करने का आदेश दे दिया किन्तु स्वयं आलालनाथ जाने के लिये तैयार हो गये। महाप्रभु जी को जाते देख श्रीपरमानन्द पुरी जी ने उन्हें समझा-बुझाकर आलालनाथ जाने से रोका और भक्तों से बोले कि ईश्वर स्वतन्त्र हैं,। अत: उनकी इच्छा पर प्रतिबन्धकता करना ठीक नहीं है, श्रीमन्महाप्रभु जी ने अपने इस आचरण के द्वारा ये शिक्षा दी कि गुरुदेव के गुरु भाई भी गुरु के समान पूज्य हैं। गुरुवर्ग की अमर्यादा करना भक्ति के अत्यन्त प्रतिकूल है।

मर्यादा-लङ्घन आमि ना पारों सहिते।
(चै.च.अ. 4/166)

श्रीपुरुषोत्तम धाम में श्रीगुन्डिचा मन्दिर मार्जन लीला, श्रीरथयात्रा उत्सव, श्रीनरेन्द्र सरोवर में जलकेलि इत्यादि प्राय-सभी लीलाओं में ही परमानन्द पुरी महाप्रभु जी के साथ थे। श्रील हरिदास ठाकुर जी के निर्याण उत्सव में भी वे उपस्थित थे। श्रीरथ यात्रा के पश्चात गौड़ीय वैष्णवों के गौड़देश में वापस चले जाने पर श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य ने श्रीमन्महाप्रभु एवं स्वरूप दामोदर तथा श्रीपरमानन्द पुरी आदि जिन दस संन्यासियों3 को अपने घर में निमन्त्रित कर एक मास तक भोजन करवाया था उनमें से पाँच दिन के लिये निमन्त्रण कर परम प्रीति के साथ परमानन्द पुरी की सेवा की थी। श्रीगौड़ीय वैष्णव और पुरी वासी सब भक्त वृन्द ही परमानन्द पुरी के प्रति पूज्य बुद्धि करते थे और मर्यादा प्रदान करते थे। रथ यात्रा के समय श्रीमन्महाप्रभु ने सब से पहले श्रीपरमानन्द पुरी, श्रीब्रह्मानन्द भारती इत्यादि गुरुवर्ग के भक्तों पर चन्दन लेप कर मर्यादा का प्रदर्शन किया था तथा गुण्डिचा मन्दिर मार्जन की लीला में परमानन्द पुरी आदि गुरु वर्ग को जल ढोने के कार्य में नियुक्त नहीं किया था। भक्तों के द्वारा लाये गये जल के द्वारा श्रीमन्महाप्रभु एवं गुरुवर्ग गुन्डिचा मन्दिर को धोने के कार्य में एक साथ नियुक्त हुये थे।

परमानन्द पुरी, आर भारती ब्रह्मानन्द।
श्रीहस्तेर चन्दन पाञा बाड़िल आनन्द॥
अद्वैत-आचार्य, आर प्रभु-नित्यानन्द।
श्रीहस्त-स्पर्श दुँहार हइल आनन्द॥
(चै. च. म. 13/30-31)

नित्यानन्द, अद्वैत, स्वरूप, भारती, पुरी।
इँहा बिना आर सब आने जल भरी’॥
(चै. च. म. 12/109)

[अर्थात श्रीपरमानंद पुरी और श्रीब्रह्मानन्द भारती महाप्रभु जी के हाथ से चन्दन प्राप्त कर बहुत आनन्दित हुए। श्रीअद्वैताचार्य तथा श्रीनित्यानन्द जी भी महाप्रभु जी के हाथ का स्पर्श प्राप्त कर आनन्दित हुए। श्रीजगन्नाथ जी के गुण्डिचा मन्दिर को धोते समय श्रीनित्यानन्द, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीस्वरूप दामोदर, श्रीभारती तथा श्रीपरमानन्द पुरी इन को छोड़ अन्य घड़ों में सब जल भर-भर कर लाते थे।]

श्रीचैतन्य लीला के व्यास श्रीवृन्दावन दास ठाकुर जी ने स्वरचित श्रीचैतन्य भागवत ग्रन्थ के अन्त्य खण्ड के तृतीय अध्याय में श्रीपरमानन्द पुरी की महिमा एवं उनके कुएँ की महिमा का अति सुन्दर रूप से वर्णन किया है। श्रील भक्ति सिध्दान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने श्रीपरमानन्द पुरी जी के कुएँ के सम्बन्ध में श्रीचैतन्य भागवत के अपने भाष्य में इस प्रकार लिखा है कि यह कुंआ श्रीजगन्नाथ मन्दिर के पश्चिम के रास्ते से कुछ दूरी पर अवस्थित है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने इस कुंएँ की ओर निर्देश करते हुये लिखा है कि इसके निकट ही पुलिस स्टेशन है।

श्रीकृष्ण लीला में श्रीकृष्ण अपने सखा अर्जुन से जिस प्रकार अत्यन्त प्रीतिपूर्वक वार्तालाप करते थे, उसी प्रकार श्रीमन्महाप्रभु जी परमानन्दपुरी जी के साथ कृष्ण कथा प्रसंग में दिन व्यतीत करते थे। श्रीपुरी गोस्वामी जी के कुएँ का जल अच्छा नहीं, यह अन्तर्यामी होने के कारण एवं बाद में साक्षात् पुरी गोसाईं जी से जान लेने पर श्रीमन्महाप्रभु जी दुःखी हुये। पुरी गोस्वामी जी के कुएँ के जल को स्पर्श करने से तमाम जीव, सब पापों से मुक्त हो जायेंगे; अतः जगन्नाथ देव जी ने कुंएँ के जल को मैला- कुचैला कर दिया था, जिससे कि उस जल को कोई स्पर्श करने की व पान करने की इच्छा न करे। पाप से मुक्ति के सहज उपाय का सुयोग न देकर श्रीजगन्नाथ देव जी ने माया का और कृपणता का प्रदर्शन किया है। इसीलिये जगन्नाथ जी के अभिन्न स्वरूप व भक्त की लीला कर रहे श्रीमन्महाप्रभु जी ने अपने दोनो हाथों को ऊपर उठाकर जीवों के प्रतिकृपा करने के लिये श्रीजगन्नाथ देव जी के सामने निम्न प्रार्थना की: –

जगन्नाथ महाप्रभु, मोरे एइ वर।
गंगा प्रवेशुक एइ कूपेर भितर॥
भोगवति गंगा ये आछेन पातालेते।
ताँ’रे आज्ञा कर एइ कूपे प्रवेशिते॥
(चै.च.म. 3/242-243)

[अर्थात् हे जगन्नाथ महाप्रभु! मुझे यह वर दीजिये कि इस कुंएँ में श्रीगंगा जी प्रवेश करें। पाताल में जो भोगवती गंगा है, आप उसको आज्ञा करो कि वह इस कुंएँ में प्रवेश करे।]

श्रीमन्महाप्रभु जी के इस प्रकार करुणापूर्ण मधुर वाक्यों को सुनकर भक्तों ने आनन्द से उच्च स्वर में हरि ध्वनि की। श्रीमन्महाप्रभु जी के आदेश को शिरोधार्य कर गंगा नदी कूप में प्रविष्ट हो गयी। दूसरे दिन प्रातः काल ही कुँआ अति निर्मल जल से भर गया। कुंएँ को निर्मल जल से भरा देख सभी भक्त आश्चर्यचकित रह गये।

श्रीपरमानन्द पुरी भी कुएं में निर्मल जल देख कर परमानन्दित हुये। श्रीमन्महाप्रभु जी ने पुरी गोस्वामी जी के कुंएँ की महिमा वर्णन करते हुये कहा-जो इस कुंएँ के जल में स्नान करेगा व जो इस कुंएँ का जल पान करेगा, वह गंगा स्नान का फल और कृष्ण भक्ति प्राप्त करेगा। इतना कहने के बाद महाप्रभु जी ने स्वयं भी उस कुएँ के जल में स्नान किया और कुएँ के जल का पान किया। भक्त जिस प्रकार भगवान् की महिमा का कीर्त्तन करते हैं, भगवान् भी उसी प्रकार भक्त की महिमा का कीर्त्तन व उनकी महिमा वर्धन करते हैं। भगवान् से विमुख जीव भक्त की महिमा को जानने में असमर्थ होता है। भक्त के संग व उसकी कृपा के बिना जीव का मंगल नहीं होता, इसीलिये करुणामय भगवान् भक्तों की महिमा प्रकाशित करते रहते हैं –

प्रभु बोले,-

आमि ये आछिये पृथिवीते।
जानिह केवल पुरी गोसाञिर प्रीते॥
पुरी गोसाञिर आमि-नाहिक अन्यथा।
पुरी बेचिलेओ आमि विकाई सर्वथा॥
सकृत् ये देखे पुरी गोसाञिरे मात्र।
सेइ हइबेक श्रीकृष्णेर प्रेम पात्र॥
(चै. भा.अ. 3/255-257)

[अर्थात् महाप्रभु जी कहने लगे कि मैं केवल पुरी गोस्वामी जी की प्रीति के कारण ही इस पृथ्वी पर विराजमान हूँ। इस में कोई सन्देह नहीं है कि मैं पुरी गोसाईं का हूँ। पुरी गोसाईं को पूरा अधिकार है वह जहाँ चाहे मुझे बेच सकते हैं। हाँ, जो पुरी गोसाईं जी की एक झलक भी दर्शन कर लेगा, वह श्रीकृष्ण का प्रेम पात्र बन जायेगा।]

श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में इस प्रकार लिखा है कि श्रीपरमानन्द पुरी जी ने ‘गोविन्द विजय’ नामक ग्रन्थ की रचना भी की थी।


1 मुजफ्फरपुर, दरभंगा व छापरा इत्यादि ज़िले त्रिहुत के अन्तर्गत है, अत: यह बिहार के मध्य में है।
2 ऋषभ पर्वत-दक्षिण कर्णाटक में मादुरा ज़िले का एक प्रान्त है। यह मादुरा के 12 मील उत्तर की तरफ ‘आनागड़मलय पर्वत’ कुटकाचल के उपवन में है। यह वही स्थान है जिस स्थान पर ऋषभ देव दावानल के द्वारा भस्मी भूत हो गये थे! यह इस समय “पालिन हिल” के नाम से प्रसिद्ध है।

3 दस संन्यासी-1 परमानन्द पुरी 2 दामोदर स्वरूप 3 ब्रह्मानन्द पुरी 4 ब्रह्मानन्द भारती 5 विष्णु पुरी 6 केशव पुरी 7 कृष्णानन्द पुरी 8 नृसिंह तीर्थ 9 सुखानन्द पुरी 10 सत्यानन्द भारती।

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से