सावधानी से कब तक अपराधों को छोड़ना चाहिए
शुद्ध नामाश्रितजन संगबल धरि।
अपराधे सतर्कता सर्वदा आचरि ।।
शशुद्धनाम या’र मुखे तार दृढ़ मन।
कृष्ण हैते विचलित नहे एकक्षण ।।
अतएव नामे बल यतदिन नय।
ततदिन अपराधे करिवेक भय ।।
विशेष यतने पापबुद्धि दूर करि’।
अहर्निशि मुखे बलिवेक हरि हरि ।।
श्रीगुरुकृपाय ह ‘वे सुसम्बन्धज्ञान।
कृष्णभक्ति, कृष्णनाम ताहाते विधान ।।
शुद्ध – नामाश्रित – व्यक्तियों के संग में रहकर सर्वदा ऐसा आचरण करते रहना चाहिए जिससे हमारे द्वारा कोई अपराध न हो। जिनके मुख से शुद्ध – नाम उच्चारित होता है, उनका मन सदैव दृढ़ रहता है। उनका दृढ़ मन एक क्षण के लिए भी श्रीकृष्ण के पादपद्द्मों से विचलित नहीं होता। अतः जितने दिन तक साधक के अन्दर नाम का बल विद्यमान नहीं होता अर्थात् जब तक उसके हृदय में शुद्ध नाम उदित नहीं होता, तब तक उसे अपराधों से भयभीत रहना ही चाहिए। साधक को चाहिए कि वह विशेष-यत्न के साथ पापमय-बुद्धि को दूर करके दिनरात निरन्तर मुख से हरिनाम करता रहे। श्रीगुरुदेव की कृपा से जब उसे सम्बन्ध ज्ञान होगा, तब ही उसके द्वारा श्रीकृष्ण – भक्ति व श्रीकृष्ण नाम ठीक प्रकार से हो पायेगा।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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कृष्ण परिपूर्ण चित्-वस्तु हैं। तुलनास्थलमें अनेक लोग उन्हें चित्-जगत्का एकमात्र सूर्य कहा करते हैं। जीव उनका किरणकणमात्र है। जीव अनेक हैं। “जीव कृष्णका अंश है”- यह कहनेसे पत्थरका एक टुकड़ा जैसे पर्वतका अंश है, वैसे नहीं समझना चाहिये, क्योंकि अनन्त अंशरूप जीव श्रीकृष्णसे निकला हुआ होनेपर भी, उससे कृष्णके किसी अंशका क्षय नहीं होता। इसी कारण वेद अग्निकी चिनगारीके साथ जीवका एकांशमें सादृश्य बतलाते हैं। वस्तुतः इस विषयमें तुलनाका स्थल ही नहीं है। महाग्निकी चिनगारी कहिये, चाहे सूर्यकी किरण-परमाणु अथवा मणि-प्रसूत स्वर्ण कोई भी तुलना सर्वांग-सुन्दर नहीं होती। किन्तु इन सब तुलनाओंके जड़ीय भावांशका परित्याग करनेपर सहज हृदयमें जीवतत्त्वकी स्फूर्ति होती है। कृष्ण-बृहत् चित्-वस्तु हैं और जीव-उनकी अणु चित्-वस्तु है। चित्-धर्ममें दोनोंका ऐक्य है, किन्तु पूर्णत्व और अपूर्णत्वके भेदसे दोनोंका स्वभाव-भेद अवश्य सिद्ध होता है। कृष्ण जीवके नित्य प्रभु हैं, जीव कृष्णका नित्यदास है-इसीको स्वाभाविक कहना होगा। कृष्ण आकर्षक हैं, जीव आकृष्ट है, कृष्ण ईश्वर हैं, जीव ईशितव्य है, कृष्ण द्रष्टा हैं, जीव दृष्ट है, कृष्ण पूर्ण हैं, जीव दीन और क्षुद्र है, कृष्ण सर्वशक्तिमान हैं और जीव निःशक्तिक है। अतएव कृष्णका नित्य आनुगत्य या दास्य ही जीवका नित्य स्वभाव या धर्म है।
जैव धर्म
श्रील सचिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर
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शुद्धभक्त के संग के अतिरिक्त अन्य का संग अमंगलजनक है
हमारे गुरुवर्ग कर्म और ज्ञान को ठग का धर्म कहते हैं । इसलिए कर्म के पथ और ज्ञान के पथ का परित्याग कर भक्ति का पथ ही हमारा एकमात्र अनुसरणीय पथ है । जो लोग उसी पथ के पथिक हैं, उन भक्तों का संग ही हमारे लिए आवश्यक है। अपने से श्रेष्ठ भक्त का संग ही करणीय है । चैतन्य के मनोभीष्ट – संस्थापक श्रीरूप की चरणधूल ही हमारी एकमात्र आकांक्षा की वस्तु है । भक्तसंग द्वारा ही भक्ति होती है। कर्मी, ज्ञानी और योगी- ये सभी अभक्त एवं स्व-पर- वञ्चक हैं। इसलिए इनका संग परित्यज्य है। शुद्धभक्त के संग के अतिरिक्त अन्य का संग अमंगलजनक है।
श्रीलप्रभुपाद
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“काहार निकट गेले पाप दूरे जाए।
एमन दयाल प्रभु केबा कोथा पाय॥”
[ऐसे करुणा के विग्रह वैष्णवजन कहाँ मिलेंगे जिनके समीप जाने मात्र से ही जीव के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं?]
उनका एकमात्र लक्ष्य
जिनकी मुख-निःसृत वाणी को श्रवण कर सैकड़ों जीव भवबन्धन से मुक्त होकर निःश्रेयस-पथ पर अग्रसर हुए, जिनके शुद्धभक्तियुक्त पावन चरित्र, कृष्ण एवं कृष्ण-भक्तों के प्रति अकृत्रिम अनुराग, स्निग्ध-सौम्य विग्रह का दर्शन, श्रवण एवं स्मरण करने से हृदय पवित्र हो जाता था, काय-मन-प्राण में भगवद्भजन की लालसा जागृत हो उठती थी, श्रीश्रीगुरुपादपद्म ने जिनको अत्यन्त करुणापूर्वक ‘भक्ति-सर्वस्व’ नाम प्रदान किया था एवं जिन्होंने अपने प्रकट काल के अन्तिम मुहूर्त तक उस नाम की सार्थकता का निर्वाह करते हुए परमपवित्र निष्कलङ्क भजनादर्श-युक्त जीवन यापन किया, ऐसे ही ‘कृष्णप्रिय-दर्शन’ अर्थात् श्रीकृष्ण के प्रियतम, श्रीगुरुपादपद्म के प्रियतम, उनका मनोऽभीष्ट पूर्ण करने वाले भक्तप्रवर के अदर्शन से उत्पन्न वेदना आज निश्चित रूप से हमारे हृदय के अंतःस्थल को स्पर्श कर रही है।
श्रीमद्भक्तिसर्वस्व गिरि महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज जी द्वारा
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भक्त्ति के द्वारा ही साधु की साधुता का परिचय – अपनी अच्छाई-बुराई के विचार से नहीं
हम लोग जन्म से ही, पूर्व कर्मों के आधार पर, कुछ अच्छाई-बुराई के विचारों को लेकर जीवन यापन करते हैं। फिर atmosphere (माहौल) और environment (पर्यावरण) से भी अच्छे-बुरे का विचार हमें मिलता है। इसी के अनुसार हमने जो वृत्ति या स्वभाव प्राप्त किया है, उसी के द्वारा साधुता के बारे में कुछ सोच बना लेते हैं- लेकिन वह सब कल्पना है, वास्तविक साधुता नहीं है। साधुता का परिचय सेवा-बुद्धि से मिलता है। जितने दिनों तक सेवा, उतने दिनों तक भक्ति। भक्ति में या सेवा में भौतिक atmosphere या environment का कोई आधिपत्य नहीं है। श्रील प्रभुपाद किसी के अंतःकरण में भक्ति या सेवावृत्ति देखने पर उन्हें अपना आत्म-परिचय देते थे, अन्यथा उनका निजत्व हमेशा ही बाह्य जगत के लिए छिपा रहता। भक्ति का प्रधान लक्षण है शरणागति। अपना निजत्व लुटा देने को ही शरणागति कहते हैं।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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साधु-संत धन के मद में अंधे हुए व्यक्ति के खुशामदकारी नहीं
केवल गीता पाठ करने से ही साधन-भजन नहीं होता, उसमें विश्वास होना चाहिए। केवल मुख से उच्चारण करने पर ही नहीं होगा। तो फिर मनुष्य क्यों और दस प्रकार के ‘प्रकरण’ (व्याख्या)- ग्रंथ संग्रह करता है? साधु-संतों को कोई रुपये पैसे देकर संतुष्ट नहीं कर सकता। जिनके ‘श्रीभगवान् ही सार हैं’ एवं इसी रूप में जिन्होंने उनके नामकीर्तन में समय व्यतीत करते हुए जीवन धारण करने का संकल्प ग्रहण किया है, वे, धन के मद में अंधे हुए व्यक्तियों की खुशामद नहीं करते हैं। लेकिन वे “प्राणैरथैधि या वाचा श्रेय आचरणं सदा” (प्राण, अर्थ, बुद्धि और वाक्य के द्वारा सदैव श्रेयस्कर आचरण करना कर्त्तव्य है)- इसी का पालन करते हैं। साधुसंतों का निस्पृह (इच्छा रहित) भाव साधारण लोगों की समझ से बाहर है, उसे समझने के लिए सरल प्रवृत्ति की आवश्यकता है। साधुसज्जनगण में व्यवहार-विषमता (व्यवहार में असमानता) नहीं है। वे समदर्शी हैं। बहुत भाग्य से यह अनुभव होता है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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श्री चैतन्य महाप्रभु कहा है
“जीवेर स्वरूप हय कृष्णेर नित्यदास।
कृष्णेर तटस्था शक्ति भेदाभेद प्रकाश ॥’
“कृष्ण भूलि सेड़ जीव अनादि बहिर्मुख।
अतएव माया तारे देय संसार दुःख ॥’
(चै.च.म. 20/108, 117)
श्रीकृष्ण – शक्ति के अंश – जीव द्वारा श्रीकृष्ण को भूल जाना ही अपराध है। इसी अपराध के कारण स्वरूप-भ्रान्ति और विपरीत बुद्धि होती है। साधु, शास्त्र एवं गुरुदेव की कृपा से जब जीव कृष्ण-उन्मुख होता है, तभी वह समस्त दुःखों से छुटकारा और परम-शान्ति प्राप्त कर सकता है। विश्व के तथाकथित विद्वान लोग कृष्ण-विमुखता रूप कारण को छोड़कर शान्ति स्थापन करने के जो प्रयास करते हैं, वे सारे के सारे व्यर्थ होने के लिए मज़बूर हैं। श्रीकृष्ण-विमुखता के द्वारा व्यक्तिगत अथवा सामूहिक किसी प्रकार की भी शान्ति नहीं मिल सकती। जिस प्रकार जगत में पड़ने वाली सूर्य की किरणों को यह जगत न तो बढ़ा सकता है और न ही खिला सकता है, केवल मात्र सूर्य ही उन किरणों को समृद्धि प्रदान कर सकता है, ठीक इसी प्रकार भगवान् से निकले जीवों को भी यह जगत् सुख अथवा शान्ति नहीं दे सकता। इन जीवों को यदि कोई सुख-शान्ति दे सकते हैं तो वे हैं- एक मात्र भगवान् । भगवान् को छोड़कर कोई भी इन जीवों को सुख-शान्ति नहीं दे सकता। एक अन्य पहलु से देखा जाए तो शान्ति के अभाव में शान्ति नहीं मिलती। हमारी सभी प्रकार की इच्छाएँ भगवान् के सर्वोत्तम स्वरूप- अखिल रसामृत मूर्ति नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही पूर्ण कर सकते हैं। इसलिए नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की अनुरागमयी भक्ति ही जीवन में परम शान्ति प्रदान कर सकती है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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