अन्य शुभ-कर्मों से हरिनाम की विलक्षणता
हरिनाम के सम्बन्ध में विलक्षण बात ये है कि साधन काल में हरिनाम उपाय स्वरूप है जबकि सिद्धावस्था में वही नाम उपेय स्वरूप है। उपाय – स्वरूप हरिनाम में ही उपेय सिद्ध है जबकि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अन्य शुभ- कर्मों में ऐसी बात नहीं है। दुनियावी सभी शुभ कर्म जड़ाश्रित होते हैं जबकि हरिनाम सदा ही चिन्मय है एवं स्वाभाविक ही सिद्ध है। साधन काल में भी हरिनाम शुद्ध और निर्मल होता है किन्तु साधक के अनर्थों के कारण मलिन सा लगता है। साधु – संग प्राप्त होने से ही जड़बुद्धि का विनाश हो जाता है। जड़बुद्धि के नाश होने पर अर्थात् अनर्थ नष्ट हो जाने के बाद ही साधक के हृदय में शुद्ध नाम का स्फुरण होता है। हरिनाम करने वाले साधक को छोड़कर अन्यान्य शुभ – कर्म करने वाले साधक उपेय को प्राप्त कर लेने पर उपाय को छोड़ देते हैं किन्तु हरिनाम करने वाले भगवद्भक्त कभी भी हरिनाम को नहीं त्यागते। यह बात अलग है कि सिर्फ सिद्धावस्था में ही शुद्ध नाम भजन होता है। शुद्ध – नाम अन्य शुभ- कर्मों से अति विलक्षण है। यही नाम के स्वरूप का अपूर्व लक्षण है। वेदों में ऐसा कहा गया है कि साधन काल में ही श्रीगुरुदेव की कृपा से ऐसा विलक्षण ज्ञान होता है। साधनावस्था में जिनको यह ज्ञान नहीं है, वे अभी नामापराधी हैं। श्रीहरिनाम ही सर्वोपरि है। श्रीहरिनाम के समान कोई साधना नहीं है इस विश्वास के साथ जो हरिनाम करते हैं, बहुत जल्दी ही उनके हृदय में शुद्ध नाम उदित हो जाता है तथा वे पूर्णानन्द स्वरूप श्रीहरिनाम रस का पान करते रहते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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प्राण, अर्थ, बुद्धि सब खर्चकर अचैतन्य कथा सुनेंगे अपने अमंगल को स्वयं बुला लायेंगे
श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें शिक्षा दी है- “कीर्तनीयः सदा हरिः”। सदा शब्द से काल में कोई व्यवधान (अन्तर) नहीं है, यह विदित होता है। मनुष्य का मुहूर्त के लिए भी अन्य कोई कार्य नहीं है- अन्य कोई कर्तव्य नहीं है – हरिकीर्तन को छोड़कर, यहाँ तक कि पशुपक्षियों के पास भी हरिकीर्तन करना होगा । ऐसा करते समय यदि अनभिज्ञ लोग हमें उन्मत्त कहें, नासमझ कहें, उसमें हमारी कोई हानि नहीं है, श्रीगुरु-गौरांग का आदेश सिर पर धारण कर हम भगवान की कथा का ही निरन्तर कीर्तन करेंगे। जगत के लोग प्रत्यह ग्राम्यकथा सुनने के लिए ग्राम्यवार्ता वह (समाचार पत्र) पढ़ते हैं, ग्राम्यवार्ता के वातावरण ने उन लोगों को सब समय घेर रखा है। हम कह रहे हैं-सभी लोग नित्यप्रति चैतन्य – कथा का श्रवण करें, आपस में मिलने पर चैतन्य कथा का आलाप करें, अनुक्षण चैतन्यकथा के परिवेश के अन्दर श्वासप्रश्वास ग्रहण करें, जिससे जगत में चैतन्यकथा के अतिरिक्त अचैतन्य कथा न रहे।
चैतन्यानुशीलन को अनुक्षण संजीवित रखने के लिए हम लोगों को अनुक्षण चैतन्य की कथा के अन्दर रहना होगा । आज अचैतन्यवादी अनेक लोगों द्वारा बाधा देने पर भी बहुत अर्थव्यय स्वीकार कर प्रतिदिन निरन्तर हरिकथा कीर्तन की व्यवस्था हो रही है। अचैतन्य विश्व इस प्रकार अनर्थरोग में से प्रपीड़ित हुआ है, ऐसी अचेतना के नशे में ढका हुआ है कि वे लोग मंगल की औषधि ग्रहण नहीं करेंगे, और बाकी सब कार्य करेंगे, किसी भी प्रकार से चैतन्यकथा सुनना नहीं चाहेंगे । प्राण, अर्थ, बुद्धि सब खर्चकर अचैतन्य कथा सुनेंगे अपने अमंगल को स्वयं बुला लायेंगे, कुपथ्य खा-खाकर रोग को अधिक बढ़ायेंगे, अन्त में नरक चले जायेंगे, फिर भी रोज-रोज थोड़ी-सी चैतन्य कथा सुनने पर बहुत मंगल हो सकता है, बहुत सुविधा हो सकती है, परन्तु वही मंगल – वही सुविधा किसी भी प्रकार से नहीं लेंगे; किसी भी प्रकार से मंगल नहीं लूँगा- वे लोग जैसे इसकी प्रतिज्ञा कर बैठे हैं; फिर भी अचैतन्य जगत की समस्त बाधा – विपत्तियों के पहाड़ को उखाड़कर धकेलकर चैतन्य – भक्तगण नित्यप्रति चैतन्य के वार्ता वह नदीया प्रकाश को जगत में प्रकाशित कर रहे हैं।
श्रीलप्रभुपाद
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गुरुभ्राताओं में परस्पर प्रीतियुक्त आदान-प्रदान
एक दिन गुरु महाराज ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया तथा मेरे हाथ में गेरूएँ रङ्ग के वस्त्रों का एक जोड़ा, पुष्पमाला, फल, मिठाई तथा एक बन्द लिफाफे में कुछ प्रणामी देकर कहा, “ये सब वस्तुएँ श्रीभक्तिप्रमोद पुरी महाराज को दे आओ, उन्हें आज श्रद्धापूर्वक विशेष रूप से प्रणाम करना। मेरी ओर से भी उन्हें प्रणाम कर देना। कारण, यदि मैं स्वयं जाऊँगा तो वे सङ्कोच करेंगे।”
गुरु महाराज के आदेशानुसार मैं श्रील भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज के कक्ष में गया, उन्हें प्रणाम करके मैंने गुरु महाराज द्वारा भेजी गई वस्तुएँ उन्हें प्रदान की तथा गुरु महाराज के प्रणाम को निवेदन किया। तब श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने हँसते-हँसते कहा, “आज मेरी जन्म तिथि है। मेरी जन्म तिथि पर यह सब कुछ ! श्रीमाधव महाराज ने इतनी व्यस्तता में भी स्मरण रखा।”
श्रील पुरी गोस्वामी महाराज के मुख से ऐसा सुनकर मुझे पहली बार उनकी आविर्भाव तिथि के विषय में जानकारी हुई। गुरु महाराज ने ही सर्वप्रथम इस प्रकार अपने गुरुभ्राता की आविर्भाव तिथि का पालन करना प्रारम्भ कराया।
जब मैं गुरु महाराज के पास पहुँचा तथा उन्हें बतलाया कि मैंने सब वस्तुएँ श्रील पुरी गोस्वामी महाराज को दे दी हैं, तब गुरु महाराज ने मुझसे कहा, “वैष्णवों की आविर्भाव-तिथि के दिन उनकी पूजा करनी चाहिये। उनका स्मरण, उनकी सेवा करनी चाहिये। उनके पवित्र-चरित्र का कीर्त्तन-श्रवण करना चाहिये। श्रील भक्तिप्रमोद पुरी महाराज मेरे ज्येष्ठ गुरुभ्राता हैं, मैं सदैव उन्हें अपने सिर पर रखता हूँ अर्थात् उनके कक्ष के ठीक नीचे वाले कक्ष में इसी भावना से ही रहता हूँ कि वे मेरे सिर पर हैं और इस प्रकार उनके चरण-कमलों का आश्रय प्राप्त करता हूँ।
मैं अपने मन में अत्यधिक उल्लसित हुआ कि मैं उनकी आविर्भाव-तिथि में अपने गुरु महाराज के हृदय की प्रीति को प्रदर्शित करने वाली भेंट की सामग्री को श्रील पुरी गोस्वामी महाराज तक पहुँचाने का निमित्त बना।
श्रीमद्भक्तिप्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज जी के प्रति परमगुरुदेव जी का प्रेम यह प्रकाशित करता है कि हमें किस विचार के साथ आपस में रहना चाहिए
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज द्वारा सञ्चित
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‘विरह’ का अर्थ-सुख-सुविधा में बाधा आने पर दुखी होना नहीं
हम श्रील प्रभुपाद की अतिमर्त्य शक्ति के प्रति आकृष्ट हुए हैं और उनके अतिमर्त्य क्रियाकलापों का ही कीर्तन किया करते हैं। लेकिन अतिमर्त्यता का विचार या सोच सबके लिए एक समान नहीं है। जो जितना उनके अतिमर्त्य-भाव में विभावित हुए हैं, वे उतना ही उन्हें समझ सके हैं। हमारी भोगवृत्ति, इन्द्रियतर्पण की प्यास, सुख-प्राप्ति की इच्छा- यह सब कभी भी अतिमर्त्य धारणा की सहायता नहीं कर सकती हैं। हम लोग इस प्रकार की वृत्ति के साथ श्रीगुरुपादपद्म के प्रति जो ‘विरह’ ज्ञापन करते हैं, वह वास्तव में भोग का ही दूसरा रूप है। भोग में बाधा आने से जो दुख होता है, उसे ‘विरह’ नहीं कहा जा सकता है। अन्यथा भोग के विपरीत जो त्याग या वैराग्य है, उसे भी विरह कहा जा सकता था। भले ही त्याग या वैराग्य विरही व्यक्ति के चरित्र में स्वाभाविक रूप से दिखायी पड़ता है, फिर भी वह ‘विरह’ नहीं है।
हम भोग में बाधा आने पर ही विरह का अनुभव करते हैं। श्रील प्रभुपाद का ललित-लावण्य रूप, उनकी मधुर कोमल मुस्कान, सरल उदार व्यवहार, विश्वविजयी अतुल पाण्डित्य, सर्वदा हरिकथा कीर्त्तन करते रहने का स्वभाव आदि का दर्शन कर हम उनके प्रति मुग्ध हो जाया करते थे। उनकी करुणा और वात्सल्य से हमें बहुत आनन्द होता था। यहाँ तक कि, Veteran intelect class (प्रवीण बुद्धिजीवी वर्ग) भी उनके विचार और युक्तिओं से अत्यन्त आनन्दित हुआ करता था। श्रील प्रभुपाद के इन समस्त गुणों से मुग्ध होकर जो लोग उनके प्रति आकृष्ट हुए थे, आज उनके अभाव में वे दुख का अनुभव करेंगे- यह स्वाभाविक ही है। किन्तु मेरा वक्तव्य है कि, यह विरह नहीं है बल्कि इन्द्रियतर्पण में बाधा-स्वरूप है। गुरुदेव सुन्दर पुरुष हैं, उनका व्यवहार अच्छा है, वे हमें बहुत आनन्द देते थे, इसीलिए वे हमें बहुत अच्छे लगते थे, अब उनकी अनुपस्थिति में हमें वे सब चीजें प्राप्त नहीं हो रही हैं, और इसलिए जो दुख हो रहा है, वह कामना या भोग है।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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To make the best of a bad bargain
मनुष्य के स्वरूप के विषय में विचार करते समय कोई भी शरीर को व्यक्ति नहीं मानता और न ही व्यवहारिक जीवन में ऐसा विश्वास करके चलता है। जब तक मनुष्य के शरीर में चेतनता विद्यमान है तब तक ही मनुष्य का व्यक्तित्व है। चेतनता के चले जाने पर उसे व्यक्ति नहीं स्वीकार किया जाता। सद्भाव, चिद्भाव और आनन्दभाव- तीनों को लेकर ही जीव का चिद्-स्वरूप है। सदा रहने की भावना को ही सद्भाव कहा जाता है। ज्ञानवान होने की भावना को ही चिद्भाव जाना जाता है। आनन्द प्राप्ति की भावना को ही आनन्द भाव कहा जाता है। इन तीनों प्रकार की इच्छाओं के होने से, हम जीव के स्वरूप में सद्भाव, चिद्भाव और आनन्द भाव-तीनों के आस्तित्व का अनुभव करते हैं। अणु-सच्चिदानन्द चित्त-स्वरूप को ही आत्मा कहते हैं। आत्मा के लिए अनात्म वस्तु कभी भी सुखदायक नहीं हो सकती। आत्मा सच्चिदानन्द है, जबकि अनात्मा ठीक इसके विपरीत – असद्, अचिद् और निरानन्दमय है। इसलिए हम यदि दिन-रात अनात्म अर्थात् जड़-पदार्थों को इकट्ठा करने में लगे रहें तो हमें वास्तविक शान्ति या सुख कैसे मिल सकता है। निरानन्द का संग करने से निरानन्द ही प्राप्त होता है। जड़ विषयों का अत्यधिक संग्रह भी हमें सुख नहीं दे सकता – कारण, उनमें सुख का अस्तित्व ही नहीं है। आत्मा के लिए आत्मा ही सुखदायक है और परमात्मा परम सुखदायक । बद्ध-अवस्था में जड़-शरीर में कैद होने के कारण हम इस जड़ शरीर की पूरी तरह उपेक्षा नहीं कर पा रहे हैं। हमें आत्म-स्वार्थ के अनुकूल शरीर की भी रक्षा करते हुए चलना पड़ता है, तब तक जब तक कि शारीरिक सम्बन्ध पूरी तरह त्याग करने में समर्थ नहीं होते। ऐसी प्रतिकूल अवस्था में गिरने के बाद – To make the best of a bad bargain – इस Policy को छोड़कर उद्धार का और कोई उपाय नहीं। न चाहते हुए भी आत्मा के इस अवस्था में होने का कारण ढूँढते हुए तत्त्वज्ञ व्यक्तियों ने कहा है कि जीव अपनी अणु स्वतन्त्रता के कारण असंख्य अणु- आत्माओं के कारण स्वरूप-विभु- आत्मा – भगवान विष्णु के विमुख होने से ही ऐसी अवस्था में गिरा। इसीलिए उसकी ऐसी दुर्गति हुई है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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पाप, अपराध और प्रायश्चित
मनुष्य इस जगत में जाने-अनजाने में शास्त्र-विरुद्ध अर्थात् नीति-आदर्श-वर्जित बहुत सारे कर्म करता है, जिसका अन्य नाम पाप या अपराध है। “Violation of the rules of state-laws or moral laws.” (राज्य के कानूनों या नैतिक कानूनों के उल्लंघन) को ही साधारण रूप में पाप कहा जाता है और गुरु-वैष्णवों के प्रति जो ईर्ष्या अवज्ञा प्रदर्शित होती है, उसे ‘अपराध’ कहते हैं। पाप का श्रेष्ठ प्रायश्चित्त श्रीनाम-संकीर्तन है। किन्तु अपराध का प्रायश्चित्त है— अनुताप (पश्चाताप) सहित क्षमा-प्रार्थना। श्रीहरि के रुष्ट होने पर श्रीगुरु ही रक्षक हैं और गुरुदेव के रुष्ट होने पर और कोई रक्षाकर्ता नहीं है; इसीलिए श्रीगुरुपादपद्म को सर्वतोभाव से संतुष्ट रखना ही उनके आश्रित व्यक्तियों का विशेष कर्त्तव्य है। सद्गुरु कभी भी जगत की लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा, धन-सम्पत्ति की कामना नहीं करते हैं। किन्तु साधु-शास्त्र-गुरु की आज्ञा पालन करने वाले ही उनकी प्रीति को आकर्षित करने में समर्थ होते हैं।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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मेरे प्रिय वैष्णव, आपके जैसे व्यक्ति को देखना ही, व्यक्ति की दृष्टि की पूर्णता है। आपके चरण कमलों को स्पर्श करना ही, स्पर्श की पूर्णता है। आपके सद्गुणों की महिमा का गुणगान करना ही, जिह्वा का वास्तविक कार्य है, क्योंकि भौतिक जगत में, भगवान् के शुद्ध भक्त को ढूंढना अत्यधिक कठिन है।
(हरि-भक्ति-सुधोदय 13.2)
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सिद्धिर्भवति वा नेति संशयाऽच्युत-सेविनाम्
निःसंशयस्तु तद-भक्त-परिचर्या-रतात्मनाम्
वे जो अच्युत परम पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा करते हैं, सिद्धि प्राप्त कर भी सकते हैं और नहीं भी। इसमें कुछ संदेह है। परन्तु वे जो भक्तिभाव से व निष्ठापूर्वक परम भगवान् के भक्तों की सेवा करते हैं, निश्चित रूप से सिद्धि प्राप्त करेंगे। इसमें कोई संशय नहीं है।
(वराह पुराण)
वन्दे गुरौः चरणारविन्दम्
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