श्रीमद्भागवतमें ऐसा कहा गया है कि भगवान्‌के शरणागत व्यक्ति किसीके भी ऋणी नहीं होते

देवर्षिभूताप्त नृणां पितॄणां न किङ्करो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्त्तम् ॥

(( जो सब प्रकार से शरणागतवत्सल भगवान् मुकुन्द की शरण में आ गया है, वह देवताओं, पितरों, प्राणियों, कुटुम्बियों और अतिथियोंके ऋणसे उऋण हो जाता है, वह किसीके अधीन या किसी अन्यका सेवक नहीं रहता। ))

(श्रीमद्भा० ११/५/४१)

सम्पूर्ण गीताका चरम (१८/६६) तात्पर्य यह है कि जो लोग समस्त धर्मोका भरोसा छोड़कर भगवान्के शरणागत होते हैं। भगवान् उन्हें समस्त पापोंसे मुक्त कर देते हैं। गीताका तात्पर्य यह है कि जब अनन्य भक्तिके प्रति अधिकार पैदा हो जाता है, तब वह अधिकारी व्यक्ति ज्ञानशास्त्र और कर्मशास्त्रकी विधियोंको पालन करनेके लिए बाध्य नहीं होता। केवल भक्तिके अनुशीलनसे ही उसकी सर्वसिद्धि हो जाती है। अतएव, “न मे भक्तः प्रणश्यति” (गीता ९/३१) – भगवान्‌की इस प्रतिज्ञाको ही सर्वोपरि समझना।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर

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सद्गुरु ही प्रत्येक जीव के चिरस्थायी मंगल के उपदेष्टा हैं

इस जगत में उपदेष्टाओं का अभाव नहीं है। जगत के लोग कहते हैं-यहाँ की जो आवश्यकताएँ हैं, पहले उनमें विशेषरूप से मन लगाओ। परन्तु उससे हित के विपरीत फल होता है – आवश्यकताओं की मात्रा केवल बढ़ती जाती है । सामयिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए अनेक आवश्यकताओं के बीच में अनेक अभाव और असुविधाओं में डूबना पड़ता है ।

इस जगत में आसक्ति के साथ वास या आसक्तिरहित होकर अति वैराग्य का प्रदर्शन, इन दोनों में से किसी से भी मंगल नहीं होने वाला । जगत में बहुत से ठग लोग साधु के वेष में जीवों को धर्म – अर्थ-काम-मोक्ष के लिए प्रेरितकर तथाकथित धार्मिक करने के लिए व्यस्त हैं । ऐसे ठगों के चंगुल से छुटकारा पाने के लिए चतुर होना आवश्यक है और चतुर होने के लिए श्रीचैतन्यदेव की बातों में मन को लगाना होगा।

मनुष्य – जाति में भी अनेक अच्छे-अच्छे लोग परामर्शदाता हैं । कुलपुरोहित, समाजपति, देशपति, आत्मीय स्वजन आदि जो समस्त परामर्श देते हैं, वह केवल मानव – जाति की भोगवृद्धि के लिए। जबकि वशिष्ठ् की भाँति कुलगुरु भी हैं, वे निवृत्त – जीवन का परामर्श देते हैं। किन्तु वैष्णव- सद्‌गुरु एकमात्र हरिभजन के लिए ही परामर्श देते हैं। प्रवृति या निवृति उनके उपदेश की अन्तिम सीमा नहीं है। वे प्रत्येक जीव के चिरस्थायी मंगल के उपदेष्टा हैं।

श्रीलप्रभुपाद

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तुच्छ व्यक्तियों के दुःख, भय शोकादि को दूर करने के लिये काय-मन-वाक्य की बलि देने का तनिक भी लाभ नहीं है

उत्साह न होने से कोई भी व्यक्ति, किसी भी मार्ग पर उन्नति नहीं कर सकता। इसलिये आप उत्साह के साथ जितना अधिक से अधिक समय सम्भव हो श्रीभगवान् को पुकारें। संख्या पूर्वक, अपराध त्याग कर श्रीमाला पर श्रीमहामन्त्र का जप करें। अपने आप को श्रीकृष्ण की सम्पत्ति मान लेने पर अपनी इन्द्रियों को तर्पण करने का उत्साह नहीं जागेगा। श्रीकृष्ण-सेवा के निमित्त नियुक्त होने से ही आनन्द और उत्साह होगा।

श्रीकृष्ण अखिल रसामृत मूर्ति हैं, उनसे प्रार्थना करने से हरेक प्रकार के रस की प्रार्थना करने वाले की प्रार्थना पूरी होगी। जिन लोगों का और कोई विशेष स्वार्थ नहीं होता वे श्रीभगवान् के पूर्ण रस-मय
स्वरूप को पूर्ण रूप से आस्वादन करने का सुयोग प्राप्त करते हैं। जो जैसा रस भगवान् को अर्पण करते हैं वे उसी प्रकार का रस श्रीभगवान् से प्राप्त करते हैं। भक्ति-पथ में भगवान् को समर्पण कर देने की ही बात है और इस के लिये अपनी सुख-सुविधा और प्रवृत्तियों की बलि देनी ही होगी। तुच्छ व्यक्तियों के दुःख, भय शोकादि को दूर करने के लिये काय-मन-वाक्य की बलि देने का तनिक भी लाभ नहीं है। अनन्त, सर्वशक्तिमान्, सच्चिदानन्द श्रीकृष्ण को ही इन सब का उपहार देने का विधान है। आप निश्न्चित होकर भगवान् को पुकारें, वे अवश्य ही आपके सभी अनर्थों को दूर करेंगे”

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

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“भक्तेर हृदये सदा गोविन्देर विश्राम”

अर्थात् भक्त के हृदय में सदैव गोविन्द विश्राम करते हैं। यहाँ ‘विश्राम’ शब्द का विशेष तात्पर्य है। कामी व्यक्तियों की कामना पूरी करते-करते भगवान् परेशान होकर थक जाते हैं। किन्तु भक्त के हृदय में किसी प्रकार की कामना-वासना नहीं होती है इसलिए भगवान् वहाँ विश्राम लेते हैं। कामना-वासना रहित न होने पर भगवान् की ऐकान्तिक उपासना संभव नहीं है-हृदय को निष्काम करना होगा; अन्यथा जन्म-मरण की माला समाप्त नहीं होगी।

भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज

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परम मंगल की खोज केवल पारमार्थिक गुरु के पास

मनुष्य जन्म में जीव का एकमात्र कर्त्तव्य है- परम मंगल प्राप्त करना। किन्तु वह मंगल कैसे होगा, वह यथार्थ पथ क्या है, उसका निर्धारण करना आजकल बहुत मुश्किल हो गया है। इसीलिए सोचने-समझने और विचार करने की आवश्यकता है। बिना सोचे-विचारे किसी भी पथ को मंगल का मार्ग नहीं माना जा सकता है। अज्ञानी जीव अमंगल को मंगल और मंगल को ही अमंगल समझ बैठते हैं। गिल्टी सोना वास्तविक सोना नहीं है। असली सोना पाने के लिए जिस प्रकार से सोने के विषय में विशेषज्ञ की सहायता और परामर्श लेना पड़ता है- वैसे ही यथार्थ मंगल प्राप्ति करना जिनका उद्देश्य है, वे गुरु-चरणाश्रय करेंगे। गुरु-चरण ही एकमात्र मंगल है- इसके अलावा कहीं भी मंगल नहीं है। हम पाठशालाओं में, हाईस्कूलों में, कालेजों में, समाज में एवं रास्ते सड़क पर कईयों को गुरु बनाते हैं-परन्तु यहाँ उन गुरुओं की बात नहीं कही जा रही है। भौतिक वस्तुओं के लिए भौतिक गुरु की आवश्यकता है-किन्तु भौतिक वस्तु प्राप्त करके जीव का कोई मंगल नहीं हो सकता है- “भाल क’रे देख भाई, अमिश्र आनन्द नाई, जे आछे से दुःखेर कारण।। से-सुखेर तरे तबे, केन माया-दास हबे, हाराइबे परमार्थ-धन।।” (ठीक से देखो भाई, कहीं भी अमिश्र (शुद्ध) आनन्द नहीं है, जो है वह दुख का कारण है। उस सुख के लिए फिर क्यों माया का दास बनकर परमार्थ धन से वंचित होना चाहते हो।) इसीलिए उस अमंगल के रास्ते पर नहीं जाकर, परमार्थ-धन प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए। वह धन प्राप्त करने के लिए पारमार्थिक गुरु के पास जाने की आवश्यकता है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज

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भक्त और अभक्त की शारीरिक अस्वस्थता के विषय में विचार का अन्तर

श्रील वृन्दावनदास ठाकुर ने लिखा है “जत देख वैष्णवेर व्यवहार-दुःख। निश्चय जानिह सेइ परानन्द सुख ।।” (वैष्णवों के जितने भी व्यवहारिक दुःख दिखाई देते हैं, उन्हें निश्चित रूप में परानन्द सुख ही समझना)। जो भक्तिवान् हैं, वे गृहस्थ हों या संन्यासी, पण्डित हों या मूर्ख, वे ही वैष्णव हैं। शरीर-यात्रा (शरीर सम्बन्धी क्रियाकलाप) का निर्वाह करते समय वैष्णवों को भी शारीरिक-मानसिक आदि विविध व्यवहार-दुःख आ सकते हैं। परन्तु भक्तों के लिए वह क्षणस्थायी हैं और परिणाम में सुखदायी हैं। भोगी, प्राकृत-विषयों में आसक्त अभक्तों के लिए नश्वर जीवन ही सब कुछ है। अतः उनके शारीरिक-मानसिक कष्ट आदि सामान्य आकार में दिखायी देने पर भी उसमें वे लोग सहज ही व्याकुल हो जाते हैं। उस क्लेश के निवारण के लिए वे लोग अन्य को उद्वेग देने में भी कुण्ठित नहीं होते। ‘जीवन यन्त्रणामय, मरणेते सदा भय’ (जीवन कष्टों से पूर्ण है और मृत्यु का सदा भय रहता है) यही जड़ विषयी लोगों की अन्तिम दुरावस्था है। परन्तु जिन लोगों ने श्रीहरिगुरु-वैष्णवों की सेवा में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है, वे मृत्यु के भय और यन्त्रणा से विचलित नहीं होते, वे धैर्यवान् और स्थिर होते हैं। भक्तों का जीवन उपद्रव रहित है, वे कभी भी अन्य के दुःख-कष्ट का कारण नहीं होते। “जीवन निर्वाहे आने उद्वेग ना दिबे। पर-उपकारे निज सुख पासरिबे ।।’ (जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों को उद्वेग न देना। दूसरों के उपकार के लिए अपने सुख को भी भूल जाना)-इस विचार में ही वे सुप्रतिष्ठित हैं। जागतिक सुखसम्पत्ति को तिलांजलि देकर व्यर्थ समय नष्ट न करके भक्तगण निरन्तर भजननिष्ठ रहते हैं, इसीलिए ही वे लोग निर्भय, निर्भीक होकर वास्तक्सत्य की आराधना में तत्पर हैं।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज

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मुझे कोई संदेह नहीं है कि यदि आप विधि का गंभीरता से पालन करते रहें, तब निश्चित रूप से आप सवयं को अनर्थों से मुक्त कर पाऐंगे।

श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज

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