श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः।
यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचित् जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखरः ॥
(श्रीमद्भा० १०/८४/१३)

जो मनुष्य वात, पित्त और कफ-इन तीन धातुओंसे बने हुए शवतुल्य शरीरको ही आत्मा -‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदिको ही ‘मेरा’ और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है- भगवद्भक्तों को नहीं, वह मनुष्य होनेपर भी पशुओं में नीच गधा ही है।

शरीरेर सुखे, मन देह जलान्जलि।
ए देह तोमार नय, वरन्य ए शत्रु हय, सिद्ध-देह-साधन-समये।
सर्वदा इहार बले रहियाछे बलि।
किन्तु नाहि जान, मन, ए-शरीर अचेतन,
पड़े रय जीवन-विलये ॥

आप अपने मन तथा बहुमूल्य मानव जीवन का उपयोग शारीरिक सुख प्राप्ति हेतु कर रहे हो। यह शरीर आपका नहीं है। इसके विपरीत, आध्यात्मिक उन्नति अनुकूल करते समय यह आपका शत्रु भी बन सकता है। आपको सदैव अपने भौतिक शरीर का अभिमान रहा है। हे मन! तुम नहीं जानते कि जब आत्मा इस शरीर को त्याग कर चली जाएगी तो यह निर्जीव होकर गिर पड़ेगा।

कल्याण कल्पतरु
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जीवमात्र का परम धर्म

वर्तमान समय में धर्म या देशसेवा आदि के नाम से जो सभी कार्य जगत के लोगों के निकट बड़े आदरणीय हैं और धर्म के रूप में माने जा रहे हैं, वे सब भगवद् -विमुख कर्म-ज्ञान-योग आदि की चेष्टाएँ नास्तिक – सम्प्रदाय की अक्षज (इन्दियों से उत्पन्न) – भोगमयी चेष्टा मात्र हैं; उन कार्यों में भगवान की सेवा की गन्ध भी नहीं है।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज’ श्लोक में सभी धर्मों का परित्यागकर भगवद् – आश्रयरूप धर्म को ग्रहण करने के लिए कहा है । किन्तु भगवान का उस साक्षात् आदेश और उपदेश का लंघनकर ‘सर्वधर्म समन्वय’ आदि नाम देकर भगवद्-बहिर्मुख नास्तिक सम्प्रदाय के लोग मनःकल्पित मत या मनोधर्म की सृष्टिकर स्वयं वञ्चित हो रहे हैं । एवं अन्य लोगों को भी वञ्चित कर रहे हैं। जगत के सभी लोग यदि उसको सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं, फिर भी वह वास्तव सत्य से बहुत दूर अवस्थित है। भगव‌द्द्विमुख अक्षज ज्ञानवादी की चेष्टा कदापि परम धर्म या सनातन धर्म नहीं है। अधोक्षज भगवान श्रीहरि में अहेतुकी और अप्रतिहता भक्ति या उनकी सेवा ही जीवमात्र का परम धर्म और एकमात्र सार्वजनीन धर्म है। यही आत्मधर्म, नित्यधर्म या सनातन धर्म है। पद्मपुराण में कहा गया है-

आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् ।
तस्मात् परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ।।

पृथ्वी में जितने प्रकार की आराधनाएँ हैं, उनमें विष्णु की आराधना श्रेष्ठ है । विष्णु की आराधना से विष्णुभक्त की आराधना और भी श्रेष्ठ है । कृष्ण की आराधना से वृषभानुनन्दिनी की आराधना श्रेष्ठ है, नन्द-यशोदा की आराधना श्रेष्ठ है, श्रीदास – सुदाम की आराधना श्रेष्ठ है, रक्तक-पत्रक की आराधना श्रेष्ठ है।

श्रीलप्रभुपाद
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श्रीकृष्णपादपद्म प्राप्ति

प्राचीन वैष्णवजन धीरे-धीरे इस लोक को छोड़कर हम लोगों को परमार्थ की ओर अधिक ध्यान देने का संकेत दे रहे हैं। हम लोगों की आयु बहुत ही कम है। फिर भी श्रीकृष्णपादपद्म प्राप्ति का अवसर, उसके अनुरुप सुविधा और पथ के विषय में जानते हुये भी हम तीव्रता से भजन करने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये हैं। जिस कारण हम देह-गेह (शरीर और घर) या उससे सम्बन्धित मायिक वस्तुओं को ही अपना धन और सर्वस्व समझ बैठे हैं। इसीलिये हम अपने वास्तविक सर्वस्व- अखिल रसामृत मूर्त्ति – श्रीकृष्ण की प्राप्ति से वन्चित हो गये हैं। जब तक हमारा अहंकार नहीं बदलेगा तब तक श्रीकृष्ण का वास्तविक अनुशीलन सम्भव नहीं है। सांसारिक अभिमान से जो भी साधन किया जाता है, वह अध्यात्म मार्ग में आगे नहीं ले जा सकता। जब तक इस मायिक barrier को transcend (अतिक्रमण) नहीं किया जायेगा तब तक परमात्मा का अनुशीलन नहीं हो सकता।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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बैकुण्ठ-पुरुषों का तिरोभाव होने पर भी, वे विग्रह के रूप में नित्य अवस्थित हैं

हम श्रील भक्ति विनोद ठाकुर की तिरोभाव-तिथि को सम्मान देने के लिए यहाँ एकत्रित हुए हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे अभी इस संसार में अवस्थित नहीं हैं, इसीलिए उनके अभाव में हम यहाँ एक स्मृति-सभा का आयोजन कर रहे हैं। “वैष्णवेर गुणगान, करिले जीवेर त्राण।” (वैष्णवों का गुणगान करने से जीवों का उद्धार हो जाता है) – यह बात सत्य है; और यह बात भी सत्य है कि, “अद्यापिह सेइ लीला करे गोराराय।” (आज भी श्रीचैतन्य महाप्रभु वही लीला कर रहे हैं)। इसलिए मेरा कहना है कि, श्रील ठाकुर आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं। हम यहाँ उनके सुसज्जित आलेख्य ‘अर्चा’-रूप दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। वे हमारी अक्षज-धारणा के अन्तर्गत कोई चित्रपट मात्र नहीं हैं- वे स्वयं श्रील भक्तिविनोद ठाकुर हैं। उन्होंने अपने विभिन्न ग्रंथों में हमें बताया है कि, -श्रीविग्रह ही स्वयं वही तत्त्व-वस्तु हैं। इसलिए उनके वाक्य या ‘शब्द’ को प्रमाण के रूप में मानकर मैं कह रहा हूँ कि यह आलेख्य मूर्ति ही वही अप्राकृत श्रीमूर्ति है। जड़विद्या-बुद्धि को पकड़े रहने पर श्रीविग्रह का चिन्मयत्व, नित्यत्व कभी भी अनुभव में नहीं आ सकता है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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हरिनाम के द्वारा पिछले पाप तथा पापों की गन्ध भी अति शीघ्र दूर हो जाती है

निरन्तर हरिनाम करते रहने से पहले के जो दुष्ट भाव हैं, वे धीरे-धीरे क्षीण होते चले जाते हैं और उनके स्थान पर साधक के हृदय में पवित्र स्वभाव प्रकटित होने लगता है। जब हरिनाम में थोड़ी थोड़ी रुचि उत्पन्न हो रही होती है, ऐसे समय में अर्थात् पापमय जीवन एवं हरिनाम के आश्रय में जीवन के सन्धिकाल में कभी – कभी पिछले पापों की कुछ गन्ध रह जाती है। किन्तु निरन्तर हरिनाम करते रहने से या यूँ कहें कि श्रीहरिनाम के प्रभाव से उसके हृदय में विद्यमान पूर्व पापों की वह गन्ध भी शीघ्र ही समाप्त हो जाती है और जीव की भगवद् – भक्तिमय मति उदित हो जाती है।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! आपने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन के सामने प्रतिज्ञा की थी कि मेरा भक्त कभी भी संकट में नहीं पड़ेगा और यदि कभी किसी कारणवश ऐसा हुआ भी तो आप स्वयं उस की रक्षा करेंगे। यही कारण है कि हरिनाम करने वाले के तमाम पाप आपकी कृपा से खत्म हो जाते हैं, जबकि ज्ञानमार्गी व्यक्ति पापों से छुटकारा पाने के लिए बहुत प्रयत्न करता है परन्तु आपका आश्रय छोड़ने के कारण उसका शीघ्र ही पतन हो जाता है। अतः हे प्रभु! ये सिद्धान्त है कि जो आपके चरणाश्रित है, ऐसे भक्त के निकट विघ्न कभी नहीं आते।

श्रीहरिनाम चिंतामणि
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श्रील वृन्दावनदास ठाकुर ने लिखा है “जत देख वैष्णवेर व्यवहार-दुःख। निश्चय जानिह सेइ परानन्द सुख ।।” (वैष्णवों के जितने भी व्यवहारिक दुःख दिखाई देते हैं, उन्हें निश्चित रूप में परानन्द सुख ही समझना)। जो भक्तिवान् हैं, वे गृहस्थ हों या संन्यासी, पण्डित हों या मूर्ख, वे ही वैष्णव हैं। शरीर-यात्रा (शरीर सम्बन्धी क्रियाकलाप) का निर्वाह करते समय वैष्णवों को भी शारीरिक-मानसिक आदि विविध व्यवहार-दुःख आ सकते हैं। परन्तु भक्तों के लिए वह क्षणस्थायी हैं और परिणाम में सुखदायी हैं। भोगी, प्राकृत-विषयों में आसक्त अभक्तों के लिए नश्वर जीवन ही सब कुछ है। अतः उनके शारीरिक-मानसिक कष्ट आदि सामान्य आकार में दिखायी देने पर भी उसमें वे लोग सहज ही व्याकुल हो जाते हैं। उस क्लेश के निवारण के लिए वे लोग अन्य को उद्वेग देने में भी कुण्ठित नहीं होते। ‘जीवन यन्त्रणामय, मरणेते सदा भय’ (जीवन कष्टों से पूर्ण है और मृत्यु का सदा भय रहता है) यही जड़ विषयी लोगों की अन्तिम दुरावस्था है। परन्तु जिन लोगों ने श्रीहरिगुरु-वैष्णवों की सेवा में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया है, वे मृत्यु के भय और यन्त्रणा से विचलित नहीं होते, वे धैर्यवान् और स्थिर होते हैं। भक्तों का जीवन उपद्रव रहित है, वे कभी भी अन्य के दुःख-कष्ट का कारण नहीं होते। “जीवन निर्वाहे आने उद्वेग ना दिबे। पर-उपकारे निज सुख पासरिबे ।।’ (जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों को उद्वेग न देना। दूसरों के उपकार के लिए अपने सुख को भी भूल जाना)-इस विचार में ही वे सुप्रतिष्ठित हैं। जागतिक सुखसम्पत्ति को तिलांजलि देकर व्यर्थ समय नष्ट न करके भक्तगण निरन्तर भजननिष्ठ रहते हैं, इसीलिए ही वे लोग निर्भय, निर्भीक होकर वास्तक्सत्य की आराधना में तत्पर हैं।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज

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मुझे कोई संदेह नहीं है कि यदि आप विधि का गंभीरता से पालन करते रहें, तब निश्चित रूप से आप सवयं को अनर्थों से मुक्त कर पाऐंगे।

श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज
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