कृष्ण एवं कृष्णनाम दोनों पृथक् वस्तुएँ नहीं हैं
हरि – गुरु – वैष्णवों की सेवा से उदासीन होकर यदि संसार की सेवा में ही व्यस्त रहे, तो कभी भी नामपरायण नहीं हो पायेंगे। हमें नामपरायण करने के लिए ही श्रीराधागोविन्द – मिलित – तनु गौरांगदेव इस जगत में आये थे। किन्तु यदि हम उनकी बात न सुनकर श्रीनाम की सेवा से उदासीन रहें, तो हमारा कभी भी मंगल नहीं होगा। कृष्ण को प्राप्त करने का सबसे उत्कृष्ट साधन श्रीनामसंकीर्तन ही है। इसके अतिरिक्त अन्य साधन यदि कृष्णनाम संकीर्तन में सहायक हों, तभी उन्हें साधन कहा जायेगा, अन्यथा उन सभी साधनों को व्याघात समझना होगा। श्रीकृष्णनामसंकीर्तन साधनसम्राट् है। सर्वसिद्धि प्राप्ति का एकमात्र अमोघ साधन वैकुण्ठनाम कीर्तन ही है। श्रीमन्महाप्रभु ने अर्चन की शिक्षा नहीं दी है, बल्कि शिक्षाष्टक में उन्होंने श्रीनामभजन की ही शिक्षा प्रदान की है। भक्ति के अन्य अंगों का पालन करते समय भी मुख से श्रीनामसंकीर्तन करने की ही विधि है। ‘यद्यपि अन्याभक्ति कलौ कर्तव्या तदा कीर्तनाख्या – भक्तिसंयोगेनैव कर्तव्या ।’ कलियुग में कीर्तनाख्या भक्ति के साथ ही अन्यान्य भक्ति के अंगों का पालन करना होगा। कृष्ण एवं कृष्णनाम दोनों पृथक् वस्तुएँ नहीं हैं। कृष्ण ही नाम हैं एवं नाम ही कृष्ण हैं। कृष्ण एवं कृष्णनाम अभिन्न हैं। कृष्णनाम ही नन्दनन्दन हैं, श्यामसुन्दर हैं। अतः कृष्णनाम संकीर्तन ही हमारे लिए एकमात्र अभिधेय या कर्तव्य है, ऐसा विचार करने पर ही हमारा मंगल होगा।
श्रीलप्रभुपाद
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“If you love me, love my dog”
‘श्रुतिमपरे स्मृतिमितरे भारतमन्ये भजन्तु भव भीताः । अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परंब्रह्म’ ।। (पद्यावली 1 अंक 126 श्लोक) कई व्यक्ति संसार सागर से भयभीत हो कर श्रुति, कई स्मृति तो कई भयभीत हो कर महाभारत का भजन करते हैं। मैं कहता हूँ यदि वे ऐसा करते हैं तो करें किन्तु मैं तो नन्द महाराज जी की वन्दना करता हूँ जिनके आंगन में परब्रह्म श्रीकृष्ण नाना प्रकार के खेल खेलते हैं। नन्द महाराज एवं यशोदा माता ने असीम वस्तु को अपने शुद्ध प्रेम द्वारा वशीभूत कर लिया है। यदि ऐसे भक्त के दरवाज़े तक मैं जा सकूँ तो भगवान् के दर्शन तो अपने आप ही हो जायेंगे। दोनों तरफ की बात को समझने के लिये हमें सावधानी से चेष्टा करनी होगी। भगवद् भक्त हमेशा भगवान् का सुख चाहते हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान् के सुख की इच्छा करता है तो उसकी इस भावना व क्रिया के कारण भक्त उसके गुलाम हो जाते हैं। जबकि दूसरी ओर भगवान् हमेशा अपने भक्तों का सुख चाहते हैं। इसलिये भक्त को प्रेम करने से भगवान् उसके वशीभूत हो जाते हैं और यही कारण है कि भक्त को प्रेम करने वाले भगवान् की कृपा अति सहजता से प्राप्त कर सकते हैं। अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि “If you love me, love my dog” – भगवान् को प्रेम करना कठिन नहीं है, इस प्रेम में विद्या, ऐश्वर्य, रूप, यौवन आदि की आवश्यकता नहीं है जन्मैश्वर्यश्रुत-श्रीभिरेधमानमदः पुमान् । नैवर्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगौचरम् ॥ (भा. 8/26) अर्थात् जो व्यक्ति जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य और रूप आदि के अभिमान में प्रमत्त रहते हैं, वे लोग अकिन्चन व्यक्तियों के ग्रहणीय श्रीकृष्ण नाम का कीर्त्तन करने में असमर्थ होते हैं। दुनियाँदारी के अभिमान यदि हमारे दिल में स्थान बना लें, और यदि हम कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहें तो ऐसे चित्त में भगवान् का आगमन कैसे होगा? बाहर दरवाज़े पर ‘स्वागतम्’ लिखा रहने पर भी अन्दर कूड़ा-कर्कट भरा रहने के कारण बैठने का स्थान न देखकर घर आया हुआ व्यक्ति जैसे वापस चला जाता है, उसी प्रकार बाहर-बाहर से हम भगवान् के स्वागत की बात करें और हृदय में और-और कामनायें भरकर रखें तो ऐसे में यदि भगवान् आ भी जायें तो बैठने का स्थान न देखकर वापस चले जायेंगे।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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धाम में रहकर धामापराध करने की अपेक्षा, दूर से धाम को स्मरणादि करना श्रेयस्कर
‘तद्रूपवैभव’ (भगवान् के समान वैभव) नववन (नवद्वीप) की आराधना न करने पर मायापुर-धाम सेवक-सेविका के निकट क्यों आत्मप्रकाश करेंगे? श्रीधाम को जड़ ग्राम समझने पर धामापराध हो जाता है। श्रीधाम की कृपा से ही उनके चिन्मय स्वरूप की उपलब्धि होती है, तभी उनकी निष्कपट कृपा का परिचय प्राप्त होता है। “माया कृपा करि जाल उठाय जखन। आँखि देखे सुविशाल चिन्मय भवन।।” (माया जब कृपा करके जाल उठा लेती है, तब आँखें- सुविशाल चिन्मय भवन देखती हैं)। यही अप्राकृत दर्शन है। श्रीधाम, श्रीधामेश्वर, धामाश्रित साधुगण के प्रति अवज्ञा आदि भी धामापराध के अन्तर्गत है। श्रीगौर-धाम की कृपा होने पर ही अप्राकृत ब्रजधाम का सेवा-अधिकार प्राप्त होता है। इसीलिए गौर-निजजन नित्यसिद्ध महाजन श्रीनरोत्तम ठाकुर महाशय ने गाया है- “श्रीगौड़मण्डल भूमि, जेबा जाने चिंतामणि, ताँर हय ब्रजभूमे वास।” (श्रीगौड़मण्डल की भूमि को जो चिंतामणि मानता है, उसका ब्रजभूमि में वास होता है)। अतः धामापराध आवाहन करने की अपेक्षा दूर में रहकर श्रीधाम और धामवासी की सेवा की आकांक्षा और उनका स्मरण कई गुणा श्रेष्ठ है एवं उसके लिए अपना दुर्भाग्य और दुर्दैव ही ज़िम्मेदार है-ऐसी चिन्ता अमानी-मानद धर्म का आनुकूल्य विधान करती है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज