जगत में लोग लोकप्रियता चाहने वाले हैं

मनुष्यों के रोग विभिन्न प्रकार के होते हैं । अतः सब की चिकित्सा अलग – अलग करनी चाहिए। रोग का निर्णय न होने पर चिकित्सा अच्छी प्रकार से नहीं हो सकती, जिससे रोग दूर नहीं होगा। अनुभवहीन चिकित्सक ऐसे भिन्न भिन्न प्रकार के रोगियों की चिकित्सा नहीं कर सकते अर्थात् उनकी चिकित्सा से थोड़ा-बहुत ही लाभ हो सकता है। मुझे चालीस वर्ष तक कोई व्यक्ति ही नहीं मिला। अब जो लोग मिल रहे हैं, वे कुछ कथा तो सुन रहे हैं। परन्तु अपने विद्या बुद्धि का भरोसा नहीं छोड़ना चाहते हैं । जगत में लोग लोकप्रियता चाहने वाले हैं, वास्तव सत्य-वस्तु को कोई नहीं चाहता। जो अपने को धर्म का प्रचारक मानते हैं, वे लोगों के कल्याणजनक कथाओं को न कहकर सबके मन के अनुसार कथाओं को कहकर अपना मान-सम्मान अर्जन करने में ही व्यस्त हैं। सत्यकथा कहने एवं सुनने से लोकप्रिय नहीं हुआ जा सकता, इसीलिए हम बहिर्मुख लोगों की सहानुभूति नहीं चाहते हैं ।

प्रभुपाद
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सर्वोत्तम आदर्श चरित्र

“My Principle is to Help and serve the devotees, not to save money.” एक बार जब हम उत्तर भारत दर्शन के लिए गए थे, तब श्रील भक्तिसम्बन्ध अकिञ्चन गोस्वामी महाराज ने परामर्श दिया था कि यदि हम डाकोर, उज्जैन आदि नहीं जाएँ तो हजार किलोमीटर नहीं जाने से हमारा बहुत पैसा बच जाएगा तथा वह मठ की सेवाओं में लग सकेगा। उनकी बात सुनकर गुरु महाराज ने उनसे अंग्रेजी भाषा में कहा था, “My Principle is to Help and serve the devotees, not to save money. मैं यात्रियों को अपने साथ उनकी सेवा करने के उद्देश्य से लाया हूँ, न कि उनसे कुछ लाभ लेने के लिए। दूसरा, ये भक्त लोग हम पर सम्पूर्ण रूप से विश्वास करके तथा हम पर निर्भर होने का अभिनय करते हुए हमारे साथ आए हैं, ये जीवन में एक या दो बार ही यहाँ आएँगे, अतएव इन्हें ठगना उचित नहीं है।”

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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असुविधाओं में भी श्रील प्रभुपाद के आनुगत्य में दृढ़ विश्वास

“जब तक हम हरि-कथा का परिवेशन करते रहते हैं, हम स्वस्थ अनुभव करते हैं किन्तु जब हमें इस सुयोग से वञ्चित किया जाता है तब हम वास्तविक रूप में अस्वस्थ अनुभव करते हैं।” १९७८ ई० में श्रील प्रभुपाद के आविर्भाव-स्थान पुरी में आयोजित प्रथम व्यास-पूजा महोत्सव के अवसर पर सभी निमन्त्रित भक्तों के ठहरने की व्यवस्था का सेवा-दायित्व मुझ पर था। मैंने श्रीमद्भक्ति हृदय वन गोस्वामी महाराज के लिये विकल्प रूप में दो स्थानों की व्यवस्था की। उनमें से एक तो हमारे उस समय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की भूमि की खरीद में संग्रहीत एक पुरानी कोठी में साधारण कक्ष था तथा दूसरा श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज के मठ में पर्याप्त सुविधाओं से युक्त एक अच्छा कक्ष था। स्वाभाविक रूप से किसी भी प्रकार की जागतिक-सुविधाओं के विचार की अवहेलना करते हुए श्रील वन गोस्वामी महाराज ने श्रील प्रभुपाद के जन्मस्थान पर रहना पसन्द किया तथा उन्होंने मुझसे कहा, “कौन जानता है कि मैं इस जगत् में कितने समय के लिये रहूँगा? हो सकता है कि इसके पश्चात् मुझे इस स्थान पर पुनः लौटने का सुअवसर ही न मिले। इसलिये मेरे गुरुपादपद्म की आविर्भाव एवं बाल्य-लीला स्थली में वास करना ही श्रेयस्कर है। मैं इस स्थान पर ही वास करूँगा जिसे श्रील प्रभुपाद ने निज चरण-कमलों से अलंकृत किया।” हमारे मठ में वास करने के उनके निर्णय को सुनकर मैंने शीघ्रतापूर्वक मात्र एक रात्रि में ही उनके लिये नारियल-पत्रों द्वारा एक व्यक्तिगत शौचालय निर्मित किया जिसकी छत को एक भारी तिरपाल से ढक दिया। यद्यपि हमारे मठ में सुविधाओं का अभाव था तथापि श्रील महाराज ने सब कुछ प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हुए अपनी अगाध गुरु-निष्ठा का प्रदर्शन किया। श्रील वन गोस्वामी महाराज ने आरती एवं व्यास-पूजा उत्सव के अन्य सभी कार्य सम्पन्न किये। सन्ध्या के समय हरि-कथा का परिवेशन करते समय उन्होंने कहा, “यह अति हर्ष का विषय होगा यदि आज के पश्चात् श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के अनुगत-जन उनकी व्यास-पूजा महोत्सव में यहाँ इस स्थान पर तथा तिरोभाव-तिथि का पालन करने के लिये श्रीधाम मायापुर में उनके समाधि-मन्दिर में एकत्रित हों।” श्रील महाराज की हार्दिक अभिलाषा अब पूर्ण हो रही है। श्रील प्रभुपाद की आविर्भाव-तिथि एवं तिरोभाव-तिथि के वार्षिक महोत्सव क्रमशः श्रीपुरी-धाम एवं श्रीधाम मायापुर में आयोजित किये जाते हैं।

श्रीमद्भक्तिहृदय वन गोस्वामी महाराज
श्रील भक्ति विज्ञान भारती गोस्वामी महाराज जी द्वारा सञ्चित
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भगवान् कृष्ण सदैव आपके हृदय में विराजमान रहते हैं, इसलिए आप मेरे प्राणाधर कृष्ण, मुझे प्रदान करने के योग्य हैं। कृष्ण की सेवा करने के अतिरिक्त मेरी अन्य – कोई अभिलाषा नहीं है। कृपया तदानूसार मुझे उपदेश दीजिए।

(श्री चैतन्य-भागवत मध्य खंड 28.109-110)
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संसार-समुद्र हइते उद्धारह मोरे। एइ आमि देह समर्पिलान् तोमारे।। कृपया संसार के इस भव सागर से मेरा उद्धार कीजिए। मैं आपके चरणकमलों में स्वयं को समर्पित करता हूँ।

(श्री चैतन्य भागवत, आदि खण्ड- अध्याय 17, श्लोक 54)
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