हमलोग सत्कर्मी या कुकर्मी नहीं हैं। हम अकैतव (निष्कपट) हरि भक्तों के पादुका वहनकारी हैं तथा ‘कीर्तनीयः सदा हरिः मन्त्र में दीक्षित हैं। ग्रन्थों के प्रकाशन में, हरिकथा प्रचार में और हरि गुरु एवं वैष्णवों की सेवा में अर्थ (धन) का प्रयोग करना ही अर्थ का सद्व्यवहार है । यह अक्षय फलप्रद है ।

श्रीलप्रभुपाद
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स्थायी सेवा में नियुक्ति की अभिलाषा

श्रीलपरमगुरुदेव ( श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी) कोलकाता में जिस उद्योग में कार्य करते थे, उस उद्योग का मालिक एक अंग्रेज था। यद्यपि गुरु महाराज एक भारतीय मैनेजर के अधीन कार्य करते थे तब भी गुरु महाराज की समस्त कार्यों को करने की अभूतपूर्व दक्षता, क्षमता, निरालसता तथा तत्परता को देखकर मालिक सब समय उन्हें ही ‘मिस्टर बैनर्जी, मिस्टर बैनर्जी’ कहकर पुकारता था। जब गुरु महाराज ने अपनी नौकरी को छोड़कर सम्पूर्ण रूप से गौड़ीय मठ का आश्रय लिया तब श्रील प्रभुपाद के निर्देशानुसार उन्हें सर्वप्रथम प्रचारपार्टी के साथ मद्रास (चेन्नई) में भेजा गया। गुरु महाराज के साथ पहले कार्य करने वाले किसी एक बन्धु ने उन्हें पत्र में लिखकर भेजा, “मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आपको हमारे कोलकाता वाले उद्योग से कहीं अधिक बड़े उद्योग में कार्य मिल गया है तथा वेतन भी बहुत अधिक मिल रहा है, अन्यथा आप के लिए, यहाँ से बिना किसी सूचना के, कार्य छोड़कर चले जाना कैसे सम्भवपर होता, विशेषकर जहाँ पर, अन्यों का तो कहना ही क्या, मालिक तक भी आपको बहुत अधिक पसन्द करते थे और अन्यों के रहने पर भी सदैव आपको पुकारते थे।” गुरु महाराज ने उन्हें लिखकर भेजा, “आपने ठीक ही लिखा है। मुझे वास्तव में बहुत बड़े उद्योग में अत्यधिक दायित्वपूर्ण कार्य प्राप्त हुआ है। वेतन भी कल्पनातीत है। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप सब लोग मुझ पर अपना आशीर्वाद रखना जिससे मेरी यह नौकरी स्थायी हो जाए।”

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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क्षमा प्रार्थना किसे कहते हैं?

‘क्षमा’ शब्द का मुख से उच्चारण करने पर ही क्षमा माँगना नहीं हो जाता, बल्कि हृदय से अनुताप या अनुशोचना न होने पर जीव का चित्त, शुद्ध नहीं हो सकता है। अनुताप की अग्नि समस्त त्रुटि-विच्युतियों को एक मुहूर्त में ही भस्म कर साधक को निष्पाप निरपराध कर सकती है, इसी को कहते हैं क्षमा-भिक्षा। सहजिया लोगों के बनावटी दैन्य-भाव को वास्तविक दैन्य या क्षमा-भिक्षा नहीं कहा जा सकता है। क्षमा-भिक्षा की वृत्ति आ जाने पर चित्त द्रवीभूत हो (पिघल) जाता है, मन उद्वेलित (अभिभूत) हो जाता है तथा हृदय में उन्मत्तता उत्पन्न हो जाती है। उसके विशेष लक्षण हैं। शास्त्रों में विस्तृत रूप से वह वर्णित है। Mechanical habits को श्रद्धा या भक्ति नहीं कहते हैं, भक्ति Emotional नहीं है, यह चित्त की स्वाभाविक वृत्ति है।

श्रीमद् भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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अनन्त ब्रह्माडों में जितने भी जीव हैं, सभी मेरे दास हैं

भागवत, तुलसी, गंगाय, भक्तजने।
चतुर्द्धा-विग्रह कृष्ण एइ-चारि-सने ।।
जीवन्यास करिले श्रीमूर्ति पूज्य हय।
जन्ममात्र ए चारि ईश्वर वेदे कय ।।

(चै.भा. मध्य 21.81-82)

श्री भावगत, तुलसी, गंगा और भक्त, ये श्रीकृष्ण के चार प्रकार के विग्रह हैं। मूर्ति तो प्रतिष्ठा से पूज्य होती है परन्तु ये चारों तो जन्म से ही ईश्वर हैं ऐसा वेद कहते हैं। परम आराध्य श्रील प्रभुपाद अपने गौड़ीय भाष्य में लिखते हैं कि श्रीकृष्ण अपने विग्रह को इस जगत् मे इन चार प्रकार की मूर्तियों द्वारा प्रकाशित करते है। यद्यपि इन चारों के दर्शन करने से यह ज्ञात नहीं होता है कि ये चारों भगवान् हैं, तथापि ये चारों भगवद् सम्बन्धी वस्तुएँ हैं और भगवान् के प्रकाश विग्रह रूप में पूजनीय हैं इसलिए इन चारों को भगवान् का प्रकाश विग्रह भी कहा जाता है। वेदों में कहा गया है कि ये चारों भगवान् से अभिन्न एवं चिन्मय ज्ञान प्रदाता हैं। भगवद् सम्बन्धी वस्तु, श्री भगवान् के अद्वितीय प्रकाश स्वरूप वैष्णव के पाद-प‌द्मों में किसी भी प्रकार के सामान्य अनादर से हम श्री भगवान् की कृपा की प्राप्ति से वंचित हो जायेंगे और हमारा पूरा साधन भजन भस्म मे घी की आहुति की भाँति निष्फल हो जायेगा। इसलिए श्रीमन् महाप्रभु स्वयं कहते हैं कि- ‘मोर एइ सत्य सभे शुन मन दिया। जेइ मोर पूजे मोरे सेवक लाँघिया। से अधम जने मोरे खण्ड खण्ड करे। तार पूजा मोर गाये अग्नि हेन पड़े।। जेइ आमार दासेर सकृत निन्दा करे। मोर नाम कल्पतरू संहारे ताहारे ।। अनन्त ब्रह्माण्ड जत सब मोर दास। एतेके जे परहिसे सेई जाय नाश ।। (चै.भा. मध्य 19.207-210) सब लोग मेरे इस सत्य वचन को मन लगाकर सुनो, जो मेरे सेवक का उल्लंघन करके मेरी पूजा करता है, वह अधम मेरे अंग के टुकड़े-2 करता है, उसकी पूजा मेरे शरीर पर अग्नि के समान ताप पहुँचाती है। जो मेरे दास की एक बार भी निन्दा करता है, मेरा कल्पतरू नाम उसका संहार कर देता है। अनन्त ब्रह्माडों में जितने भी जीव हैं, सभी मेरे दास हैं। इसी कारण जो दूसरे की हिंसा करते हैं, उनका नाश हो जाता है।

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज
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मैं बचपन में गीत एवं संगीत को सुनकर अत्याधिक उल्लासित हो उठता था, इसलिए मेरे पिता जी ने मुझे प्रमोद भूषण नाम दिया। हमारे नगर में एक मदन मोहन जी का मन्दिर था। मैं वहाँ जाता था। एक दिन वहीं पर भक्ति रत्नठाकुर से मेरी वार्तालाप हुई और भगवान् की इच्छा से उसी दिन से मुझे श्रीलप्रभुपाद, श्रीभक्तिविनोद एवं गौड़ीय वैष्णवों के विषय में जानकारी प्राप्त होने लगी। मैं श्रील भक्तिरत्न ठाकुर के समीप बैठकर श्रील भक्तिविनोदठाकुर, श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी व अनयान्य महाजनों के द्वारा रचित ग्रन्थों का अध् ययन करता था एवं उन्हीं की कृपा से ही मृझे वास्तव में श्रीमन् महाप्रभु द्वारा दी गई शिक्षाओं का ज्ञान हुआ। वहीं पर ही मुझे अनुभूति हुई कि प्रत्येक जीव का कर्त्तव्य है कि वह एक सद्‌गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करे और सदाचार का पालन करते हुए भगवान् हरि का भजन करे। तभी मुझे यह भी अनुभव हुआ कि शुद्व वैष्णवों के संग में बैठकर शास्त्र-अध्ययन करने का कितना लाभ है।

श्रील भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज
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जब आप प्रातःकाल से रात्रि तक, भगवान् के संदेश के प्रचार में संलग्न रहते हैं तो वही, वास्तविक सौभाग्य है। कृपया इसे भूलिएगा नहीं। कृपया भूलिएगा नहीं कि यह संकीर्तन कार्य कितना महत्वपूर्ण है।

श्रील गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज
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