श्रीगुरुदेव कृष्ण के परमप्रिय तथा उनसे अभिन्न हैं।

साधारण लोग गुरु को एक रूप में देखते हैं और अन्तरंग भक्त अन्य रूप में देखते हैं। अन्तरंग या शुद्धभक्त गुरु को अपना परम आत्मीय, कृष्ण का परमप्रिय, प्रीति के एकमात्र आधार, नित्यसेव्य, अपना जीवनस्वरूप एवं सर्वस्व मानते हैं । श्रीगुरुदेव कृष्ण के परमप्रिय तथा उनसे अभिन्न हैं । श्रीगुरुदेव का दास हुए बिना कृष्ण का दास बनने की लेशमात्र भी सम्भावना नहीं है। जो गुरु के दास्य या उनकी सेवा में नियुक्त रहते हैं, वे ही शुद्धभक्त या वैष्णव हैं । पापयुक्त नेत्रों से गुरुदेव का दर्शन नहीं होता है। मनुष्य दर्शन – गुरु – दर्शन नहीं है, अर्थात् गुरु को मनुष्य रूप में देखना, उससे नरक जाना पड़ता है । गुरु लघु नहीं हैं, या मनुष्य नहीं हैं। वे तो ईश्वर हैं अर्थात् भगवान के निजजन हैं। वे महापुरुष, महाजन, नामाचार्य कृष्ण प्रेष्ठप्रिय हैं ।

श्रीलप्रभुपाद
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वैष्णवों के प्रति हिंसा सहने में असमर्थ

श्रीचैतन्य मठ की सम्पत्तियों की प्रबन्धन-सेवा के अतिरिक्त श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी मठ के कोर्ट-कचहरी सम्बन्धित कार्यों को भी सम्भालते थे। उन दिनों श्रीधाम-मायापुर के चन्द्रशेखर-भवन, श्रीवास-आङ्गन, खोला बेचने वाले श्रीधर का घर एवं चाँदकाजी की समाधि सहित अन्य कई पवित्र स्थानों पर मुस्लिम व्यक्तियों का आधिपत्य था। एक दिन कुछ मुस्लिम युवाओं ने, जिन्होंने चाँदकाजी की समाधि पर कब्जा किया हुआ था, श्रीचैतन्य मठ के कुछ ब्रह्मचारियों पर आघात किया। श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी भक्तों के प्रति हुए इस हिंसक दुर्व्यवहार को सहन नहीं कर सके। उनकी रक्षा के उद्देश्य से उन्होंने श्रीचैतन्य मठ की ओर से न्यायालय में मुकद्दमा कर दिया जिसके परिणामस्वरूप कुछ मुस्लिम युवकों को कारागार में डाल दिया गया। श्रील प्रभुपाद ने मुस्लिमों को कारागार में डाले जाने के कार्य की सराहना नहीं की तथा असन्तुष्ट होते हुए कहा, “हमें दुराचारपूर्ण कार्यों का विरोध करना चाहिये न कि दुराचार करने वाले लोगों का। हमें उन्हें कारागार में डालकर दण्ड देने का प्रयास नहीं करना चाहिये अपितु निर्भीकतापूर्वक अपने सिद्धान्तों के पक्ष में खड़े होकर अधार्मिक कार्यों का उच्च स्वर से विरोध करना चाहिये।” अतएव श्रील प्रभुपाद के आदेश पर भक्तों ने मुस्लिम युवाओं की जमानत करवा दी।

श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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अर्थ स्वीकार करने में दायित्व अन्तर्निहित

श्रील स्वामी महाराज के अप्रकट लीला को प्रकाशित करने से कुछ समय पूर्व उन्हें हेनरी फोर्ड के पोते अल्फ्रेड फोर्ड ने जिसका दीक्षित नाम श्रीअम्बरीष दास है, उनके समक्ष अपनी इच्छा को प्रकाशित करते हुए कहा कि वह कुरुक्षेत्र में भगवद्गीता की शिक्षा हेतु विश्वविद्यालय बनाने के लिये सम्पूर्ण अर्थ व्यय करने के लिये प्रस्तुत हैं। उसकी बात सुनकर श्रील स्वामी महाराज ने यह कहकर मना कर दिया, “मैं इस जगत् में अब और अधिक समय के लिये नहीं रहूँगा। यदि मैं तुमसे अर्थ ले लूँ तथा यदि उसे ठीक से भगवद् सेवा के उद्देश्य से व्यय न कर पाऊँ तो मुझे दोष लगेगा।” अपने इस आचरण के द्वारा श्रील स्वामी महाराज ने हमें शिक्षा प्रदान की है कि हमें अन्यों के द्वारा प्रदत्त केवल मात्र उन्हीं वस्तुओं को ग्रहण करना चाहिये जिन्हें हम भगवद् सेवा में लगा सकें, अन्यथा उसमें दोष की आशंका है।

श्रीमद्भक्तिवेदान्त स्वामी महाराज
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अपनी गलती को देखने की कला से सीखने सुधरने का सुयोग होता है।

साधक के या श्रीगुरुचरणाश्रित व्यक्तियों के चित्त में, अन्याभिलाष – कर्म, ज्ञान की मैल या भुक्ति-मुक्ति-सिद्धिवाञ्छा आदि अवान्तर उद्देश्य रहने तक, उनको श्रीगुरुदेव या अनन्यभक्त के चित्त का सम्यक् अनुसरण करने या उनके दर्शन करने में बाधा रहती है। ऐसी अवस्था में, वह वस्तु की यथार्थ उपलब्धि न कर पाने के कारण अपनी गलती का आरोप, अनन्यभक्त या श्रीगुरुदेव में आरोपित करता है तथा मूल में ही गलती है – ऐसा कह कर अपनी त्रुटि-विच्युति की सफाई देने में व्यस्त रहता है। इस प्रकार प्रतिष्ठा की आशा से, कपटता का आश्रय लेकर, भक्त व श्रीगुरु-चरणों में अपराधों को इकट्ठा करने की व्यवस्था करता रहता है। इन अपराधों का पता लगने पर भी यदि इनका मार्जन न होगा, तो धीरे-धीरे अपराधों के ढेर बढ़ जाएँगे और वैष्णव व गुरु की अवज्ञा और निन्दा एवं अन्त में भगवत्-विद्वेष शुरु हो जाएगा। तब वह सबके मूल – भगवान की गलती या दोष दिखाने के लिए कमर कस लेगा। ऐसी अवस्था में आनुषंगिक भाव से, पहले उसे विषयी और बाद में घोरतर आसुरिक स्वभाव-सम्पन्न होना होगा।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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शास्त्रीय उपदेशानुसार जीवन गठित होने पर भगवान् के प्रति आकर्षण में वृद्धि

श्रीभगवान् ने शास्त्रों में जो उपदेश-निर्देश दिये हैं, उन्हें ही अपने जीवन में सामर्थ्य अनुसार पालन करने से और उनके अनुरूप जीवन गठित होने पर उनके प्रति आकर्षण बढ़ता है। वे ही प्रेमास्पद (प्रेम के पात्र) भगवान् हैं, उनको केन्द्र करके ही जगत में समस्त स्नेह-ममता, प्रेम-प्रीति है। उन्हीं प्रेममय भगवान् को सदैव अपने निकट रख पाने पर ही उनकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता है। दिनभर में जो काम किया जाता है, वह उस परमेश्वर के उद्देश्य से होने पर ही उसकी सफलता एवं मूल्यांकन है। उसे तुम अपने कृष्ण-संसार के अन्तर्गत सेवा समझना। तुम्हारा कर्म, तुम्हारे नित्य-धर्म से बिल्कुल भी अलग नहीं है, इसे याद रखना। भगवत् सेवा-परायण जीवन ही भक्त का वैशिष्ट्य और भक्तत्व है।

श्रीश्रीमद् भक्तिवेदान्त वामन गोस्वामी महाराज जी
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हरि-गुरु-वैष्णव की प्रत्येक सेवा को मनोयोग के साथ में करना ही उनके प्रति भक्त की प्रीति का निदर्शन है।

श्रीमद् भक्तिसारंग गोस्वामी महाराज जी
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