मनुष्य – जन्म में केवल श्रेयः अर्थात् आत्मकल्याण हेतु ही चेष्टा करनी चाहिए । प्रेयः अर्थात् जागतिक विषय भोगों के लिए पशु भी चेष्टा करते ही हैं। मनुष्य की यही विशेषता है कि वह भगवान की कथाओं को सुन सकता है, उसका आचरण एवं आलोचना भी कर सकता है। किन्तु पशु परस्पर आलोचना नहीं कर सकते । अतः श्रेयः केवल मनुष्य जन्म में ही प्राप्त किया जा सकता है। मनुष्य जन्म प्राप्त कर भी यदि आत्मकल्याण के सम्बन्ध में विचार न किया जाय, तो निम्न श्रेणी के पशु-पक्षियों के साथ मनुष्यजन्म की समानता हो जाती है।

श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _

धन-सम्पत्ति से अप्रभावित रहने हेतु एक गम्भीर प्रार्थना

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज की शतवार्षिकी आविर्भाव-तिथि के उपलक्ष्य में श्रीगोपीनाथ गौड़ीय मठ ने श्रीजगन्नाथ पुरी में एक विराट उत्सव का आयोजन किया था। जब श्रील महाराज अपने कक्ष से सभा में उपस्थित हुए, तब उन्होंने श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज के साथ ही मेरे सतीर्थ श्रीभक्तिवल्लभ तीर्थ महाराज तथा मुझे भी अपने साथ मञ्च पर बैठाया तथा अपने हाथों से हमें चन्दन तथा माला प्रदान की। उस दिन उन्होंने अपने प्रवचन में जो सब कहा, उसमें से एक बात मुझे विशेष रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण लगी तथा पुनः पुनः स्मरण होती है। यथा, “आजकल हम लोग जिस प्रकार का जीवन-यापन कर रहे हैं, वह पूर्वकाल में व्यतीत किये गये जीवन से बहुत अधिक भिन्न है। पूर्वकाल में दो लाख, तीन लाख रुपये हमारे लिये बहुत बड़ी धनराशि थी, किन्तु आजकल हमारे पास श्रील प्रभुपाद की कृपा से देश-विदेश से आने वाले भक्तों के द्वारा जो प्रणामी आदि दी जा रही है, उससे दो अथवा तीन लाख रुपये हमारे लिये बहुत बड़ी राशि नहीं रह गयी है। “ऐसी अवस्था में जब हमारे पास जन-बल, धन-बल आदि वर्धित हो रहा है, मैं श्रील प्रभुपाद एवं सपरिकर श्रीचैतन्य महाप्रभु के श्रीचरण-कमलों में प्रार्थना करता हूँ कि मेरे आश्रित भक्त धन एवं जन के मिथ्या मद में ‘तृणादपि सुनीचेन अर्थात् स्वयं को तृण से भी तुच्छ समझना’ श्लोक के वास्तविक व्यवहारिक प्रयोग को न भुला बैठें, इसके कारण उनके भजन के मार्ग में कोई बाधा न आये, वे भक्ति-मार्ग से च्युत न हो जायें। उनके जीवन का उद्देश्य कहीं परिवर्त्तित न हो जाये। मैं प्रार्थना करता हूँ कि उन पर इस ऐश्वर्य का कोई प्रभाव न पड़े एवं ये लोग श्रील रूप गोस्वामी द्वारा कथित शिक्षाओं के वास्तविक मर्मार्थ को जीवन में पालन कर पायें।” श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने तब निम्नलिखित दो श्लोक उच्चारित किये

प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरिसम्बन्धिवस्तुनः।
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते॥
भक्तिरसामृतसिन्धु (१.२.१२६)

[मुमुक्षुगण शास्त्र, श्रीमूर्त्ति, नाम, महाप्रसाद, गुरु आदि हरि-सम्बन्धी वस्तुओं को भी प्राकृत समझकर उनका परित्याग कर देते हैं, इसी को फल्गु वैराग्य कहते हैं।]

अनासक्तस्य विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः।
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते॥
भक्तिरसामृतसिन्धु (१.२.१२५)

[कृष्णेतर विषयों में आसक्तिरहित होकर तथा कृष्ण के साथ सम्बन्ध स्थापितकर, उनके सेवानुकूल विषयमात्र ग्रहण करने को ही युक्त वैराग्य कहते हैं।]

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _

“इस अपार दुःख सागर को पार करने का एकमात्र उपाय सम्पूर्ण रूप से श्रीगुरु के चरण-कमलों में शरणागत होना है।”

भक्ति-रस का आस्वादन करने के लिये दो वस्तुओं का होना अनिवार्य है- एक सिद्ध वक्ता एवं दूसरा निष्कपट जिज्ञासु श्रोता। हमारी इस रस को अनुभव करने की असमर्थता का एकमात्र कारण इन दोनों में किसी एक वस्तु का अभाव है। इस प्रकार की वास्तविक, अप्राकृत अनुभूति मात्र कृत्रिम अनुकरण के द्वारा कदापि प्राप्त नहीं हो सकती।

श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _

शास्त्र कहते हैं- हर्षे प्रभु कहे-शुन स्वरूप-रामराय।
नाम-संकीर्तन कलौ परम उपाय ।।
संकीर्तन-यज्ञे कलौ कृष्ण-आराधन।
सेइ त’ सुमेधा, पाय कृष्णेर चरण।।
(चै० च० अ० २०/८-९)

हर्ष से श्रीमन्महाप्रभु, श्रीस्वरूपदामोदर एवं श्रीरायरामानन्द से कहते हैं कि, कलियुग में श्रीहरिनाम संकीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। कलियुग में श्रीहरिनाम संकीर्तन यज्ञ द्वारा, श्रीकृष्ण की आराधना करने की शास्त्रीय विधि है। जो श्रीहरिनाम संकीर्तन द्वारा श्रीकृष्ण की आराधना करते हैं, वही सुबुद्धिमान् हैं और वे ही श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा प्राप्त करते हैं। आजकल के तथाकथित मतावलम्बी श्रीनाम के स्वरूप को नहीं जानते हैं। नाम से नामी को पृथक् बुद्धि करते हुये घोर अपराध करते हैं। नाम का मुख्य फल धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष नहीं, अपितु कृष्णप्रेम ही हमारे लिये मुख्य प्रयोजन है।

* * * * * * * * * * * * * * * * * *