भगवान् उपलब्ध करवायेंगे

“मैं किसी भी वस्तु का संग्रह क्यों करूँ? यदि भगवान् के वचन पर विश्वास न करूँ तब फिर मेरा इतने दिनों तक शास्त्रों को श्रवण करने का क्या लाभ हुआ?” श्रील भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज ‘वैराग्य’ शब्द के मुख्य अर्थ ‘विशिष्टे परमपुरुषे राग’ में प्रतिष्ठित होने के कारण स्वाभाविक रूप में उसके गौण अर्थ ‘विगतराग’ से भी सुशोभित थे। वे अपने वस्त्रों के तीन जोड़े से अधिक चौथा किसी भी अवस्था में नहीं रखते थे। कभी यदि तीन जोड़े से कुछ वस्त्र बच जाता तो वह उसे किसी अन्य को दे देते किन्तु भविष्य के लिये अपने निकट एकत्रित करके नहीं रखते थे। वे हमें कहते थे, “यदि मैं इस प्रकार बचे हुए वस्त्र को अपने निकट एकत्रित करने का अभ्यास बनाऊँगा तो विषयी बन जाऊँगा। भगवान् ने श्रीमद्भगवद्गीता (९.२२) में गम्भीर प्रतिज्ञा की है- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ (अन्य कामनाओं से रहित तथा मेरी चिन्ता में निरत जो व्यक्तिगण सर्वतोभावेन मेरी उपासना करते हैं, नित्य मुझमें एकनिष्ठ उन व्यक्तियों का योग एवं क्षेम मैं वहन करता हैं।) “अतएव भगवान् तो सर्वत्र हैं, मुझे जिस समय जिस वस्तु की आवश्यकता होगी, जब वह वस्तु मुझे वहीं पर मिल ही जायेगी, तब फिर किसी भी वस्तु का संग्रह क्यों करूँ? यदि भगवान् के वचन पर विश्वास न करूँ तब फिर मेरा इतने दिनों तक शास्त्रों को श्रवण करने, साधुसङ्ग तथा भजन-साधन आदि करने का क्या लाभ हुआ? श्रील माधवेन्द्र पुरी गोस्वामी के लिये स्वयं दूध लाकर भगवान् ने शिक्षा प्रदान की है कि वे अपने सभी भक्तों को उनकी प्रयोजनीय वस्तु प्रदान करेंगे। मेरी मृत्यु का समय भी निकट आ गया है, यदि अभी भी भगवान् तथा उनके निजजनों के वचनों के प्रति मेरा विश्वास नहीं होगा तो फिर कब होगा?”

श्रील भक्तिप्रकाश अरण्य गोस्वामी महाराज
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श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील प्रभुपाद की विचारधारा एक तात्पर्यपर

श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने अनेक स्थानों पर ऐसा कहा है कि मठ-मन्दिरों का निर्माण करना अनावश्यक है, क्योंकि ऐसा करने से परस्पर मतभेद के फलस्वरूप कोर्ट-कचहरी में मुकद्दमों का होना अवश्यम्भावी है, जिसमें मठवासी भूमि-भवन आदि विभिन्न सम्पत्तियों के लिये झगड़ा करेंगे। किन्तु दूसरी ओर हम देखते हैं कि श्रील प्रभुपाद ने कई मठों का निर्माण किया। हमें इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिये कि श्रील प्रभुपाद ने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के निर्देशों का उल्लङ्घन किया, अपितु हमें यह समझना होगा कि उन्होंने श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के आदेश का अतिविशिष्ट रूप में पालन किया। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अन्तरङ्ग पार्षद होने के कारण श्रील प्रभुपाद उनके हृद्गत भावों को सम्पूर्ण रूप में समझते थे। इसलिये वह सहजता से ही उनके प्रत्येक निर्देश के पीछे उनके सूक्ष्म विचार एवं उसमें निहित गूढ़ अर्थ को ग्रहण कर सके। प्रत्येक शिक्षा में सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलू होते हैं। पारमार्थिक संस्थानों के निर्माण को व्यर्थ एवं प्रतिकूल बताकर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर ने इसके नकारात्मक परिणामों के विषय में सतर्क किया है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि पारमार्थिक संस्थानों के निर्माण का कोई सकारात्मक पहलू ही नहीं है। श्रील प्रभुपाद यह भलीभाँति समझते थे कि यदि एक मठवासी भी निष्कपट रूप से शुद्ध-भगवद्भक्ति के पथ पर अग्रसर हो पाये, तब आन्तरिक कलहों की सम्भावना के मूल्य पर भी मठों का निर्माण करना श्रेयस्कर होगा। श्रीविनोदविहारी ब्रह्मचारी सहित श्रील प्रभुपाद के मिशन के सभी भक्तों ने भूमि-संग्रह, मठ-निर्माण एवं उनकी देखरेख के लिये अत्यधिक कठोर परिश्रम किया है। उन्होंने कभी भी श्रील प्रभुपाद द्वारा श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के निर्देशों का समुचित ढङ्ग से पूर्ण करने की उनकी निष्ठा पर सन्देह नहीं किया। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि श्रील प्रभुपाद की वाणी एवं आचरण सम्पूर्णतया श्रील भक्तिविनोद ठाकुर की विचारधारा के अनुरूप था एवं उन्हें श्रील भक्तिविनोद ठाकुर का पूर्ण अनुमोदन प्राप्त था।

श्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज जी
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‘कृष्णेर नित्य दास’ का विशेष अर्थ

श्रीचैतन्य देव द्वारा श्रील सनातन गोस्वामीपाद को “जीवेर स्वरूप हय-कृष्णेर नित्यदास” (चै०च० मध्य-लीला २०.१०८) रूपी प्रदत्त शिक्षा के सम्बन्ध में श्रील सन्त गोस्वामी महाराज वर्णन करते हुए कहते, “इस पद्य का सरल अर्थ है कि जीव स्वरूप से कृष्ण का नित्यदास है। यद्यपि यह पूर्णतः सत्य है तथापि मैं इसकी थोड़ी-सी भिन्न प्रकार से व्याख्या करूँगा। मेरे विचार में ‘कृष्ण’ शब्द का तात्पर्य गोलोक वृन्दावन में लीला कर रहे कृष्ण से नहीं है। उसके स्थान पर मेरे लिये इसका अर्थ उस कृष्ण से है जो गुरु रूप में इस जगत् में आकर माया के जाल से निष्कपट जीवों का उद्धार करके उन्हें श्रीकृष्ण के चरण-कमलों में समर्पित करके उन्हें स्नेहमयी सेवा में नियुक्त करते हैं। श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी के वाक्य मेरे इस विचार को पुष्ट करते हैं- गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे। चै०च० (आदि-लीला १.४५) [गुरु रूप से ही श्रीकृष्ण भक्तों पर कृपा करते हैं।] “अतएव यह कहना गलत नहीं होगा, ‘जीवेर स्वरूप हय गुरुर नित्यदास’। “मैंने इस विचार को ग्रहण क्यों किया ? क्योंकि अनादि काल से मैं चौरासी लाख योनियों के विभिन्न शरीर धारण करके विभिन्न रूपों से ब्रह्माण्डों में भ्रमण कर रहा हूँ तथा एकमात्र इसी जन्म में श्रीकृष्ण कृपा करके गुरु रूप में मेरे समक्ष प्रकट हुए हैं। अतएव मैं उनके इस रूप, श्रीगुरु रूप को नित्य पूजनीय मानता हूँ।

श्रीमद्भक्तिकुमुद सन्त गोस्वामी महाराज जी