“धर्म मूलं हि हरितोषणाम्”
स्थूल देह और सूक्ष्म देह की आवश्यकताओं के पूरा होने में बाधा देना स्थूल और सूक्ष्म देह के प्रति हिंसा करना है, किन्तु आत्मा के वास्तविक स्वार्थ की प्राप्ति में बाधा देना उससे भी अधिक हिंसा है। एक जीवात्मा दूसरी जीवात्मा का कारण नहीं है इसलिये एक के तोषण से दूसरे की तुष्टि नहीं होती, एक के देह की पुष्टि से दूसरे की देह की पुष्टि नहीं होती। जैसे एक प्रकाश का परमाणु अन्य दूसरे प्रकाश के परमाणु की पुष्टि नहीं कर सकता, जबकि दीपक की बत्ती की लौ बढ़ा देने से प्रकाश के सभी परमाणुओं के सुख व समृद्धि की वृद्धि होती है। ठीक इसी प्रकार पूर्ण चिद्वस्तु जिनसे समस्त चिद्वस्तुओं की सत्ता है, उसी मूल चिद्वस्तु, श्रीहरि के तोषण को छोड़कर किसी की भी सुख और समृद्धि सम्भव नहीं है। जिस प्रकार वृक्ष के मूल को छोड़कर उसके तने, पत्तों, शाखाओं व प्रशाखाओं में जल देने से वृक्ष की वास्तविक तुष्टि-पुष्टि नहीं होती, उसी प्रकार भगवान् को छोड़कर किसी व्यक्ति विशेष की या सब व्यक्तियों की सेवा करने से उनकी वास्तविक सुख-समृद्धि नहीं होती- ये ही भारतीय शिक्षा का मूल मन्त्र है। “धर्म मूलं हि हरितोषणाम्”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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परलोक गमन के पश्चात् कर्त्तव्यपरायणता का बोध
श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर के आश्रित श्रील भक्तिशोभन पद्मनाभ गोस्वामी महाराज ने एक दिन गुरु महाराज से कहा, “महाराज ! मैंने कोलकाता तथा पुरी के मध्य स्थित मेछदा जंक्शन नामक स्थान पर एक छोटा-सा मठ बनाया है। मैं उस स्थान को आपके नाम पर कर देना चाहता हूँ और मैं आपके द्वारा स्थापित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की किसी शाखा में रह जाऊँगा।” गुरु महाराज ने उनसे कहा, “आप श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की किसी भी शाखा में प्रसन्नतापूर्वक रहिए, यह हमारे लिए सौभाग्य की बात है। हमसे जितना बन पड़ेगा हम आपकी सेवा भी करेंगे, किन्तु मेरी प्रार्थना है कि आप अपने स्थान की वसीयत मेरे नाम पर मत कीजिए। कारण, यदि आपके शरीर से पहले मेरा शरीर इस जगत् से चला जाए, तब अपनी समस्त सम्पत्ति मुझे देने के कारण आपके पास कुछ नहीं रहेगा और आप मेरे शिष्यों पर निर्भर हो जाओगे और मेरे शिष्य यदि आपकी मर्यादापूर्वक उचित सेवा नहीं करेंगे तो मुझे मन्यु अर्थात् दायित्व लेकर उसे नहीं निभाने का दोष लगेगा।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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वैष्णव सेवा में कृपणता मत करना
श्रील प्रभुपाद के चरणाश्रित श्रीकुञ्जबिहारी बाबाजी महाराज जो कि पहले कटक स्थित श्रीगौड़ीय मठ के मठाध्यक्ष थे, बाद में व्रज के विभिन्न स्थानों पर माधुकरी भिक्षा करके जिस-किसी प्रकार से जीवन यापन करते हुए सर्वदा भजन में विभोर रहते थे। अपनी वृद्धावस्था में वे श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ द्वारा सञ्चालित श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ, वृन्दावन में वास हेतु आए। उस समय श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ में रहने के लिए कमरों की बहुत अधिक सुविधा नहीं थी। बाबाजी महाराज की जिस घर में रहने की व्यवस्था की गई उसकी छत ऐस्बेस्टस पैनल की बनी हुई थी। जब परम् गुरु महाराज श्रीविनोदवाणी गौड़ीय मठ में गए तो वे बाबाजी महाराज के कक्ष में गए तथा उन्हें प्रणाम करने के पश्चात् उनसे पूछा, “हम यहाँ पर आपको उचित सुविधा प्रदान नहीं कर पा रहे, इससे आपको कोई असुविधा तो नहीं।” बाबाजी महाराज ने उत्तर दिया, “मैं तो माधुकरी करने वाला हूँ और यहाँ मुझे तीन बार उत्तम प्रसाद मिल रहा है। मैं कभी किसी कुटिया में, कभी किसी धर्मशाला में तो कभी वृक्ष के नीचे ही सोने का अभ्यस्त हूँ और आपके यहाँ मुझे अलग से एक कक्ष मिल गया है तब फिर क्या असुविधा हो सकती है?” इस घटना के पश्चात् गुरु महाराज ने हमें कहा, “हमारे दो ही सेव्य हैं विष्णु और वैष्णव तथा उसमें भी वैष्णव प्रधान हैं। अतएव वैष्णव-सेवा में कोई त्रुटि मत करना। मैं यह नहीं कहता कि बाबाजी महाराज को राजभोग देना, किन्तु जो भी सम्भवपर हो, अत्यधिक यत्न और मर्यादापूर्वक देना। उन्हें मर्यादा देने में कभी भी कृपणता मत करना अन्यथा तुम्हारी ही पारमार्थिक हानि होगी।”
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी
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