“भगवान् मंगलमय हैं, अतः उनकी इच्छा से जो भी होता है, उसमें मङ्गल अवश्य ही निहित होता है।”
“23 दिसम्बर 1936 को पुरुषोत्तम धाम से बाग-बाजार स्थित श्रीगौड़ीय मठ में लौटने से पूर्व व नित्यलीला में प्रवेश करने से पहले श्रील प्रभुपादजी ने वहाँ पर उपस्थित भक्तों को प्रातः काल के समय अन्तिम उपदेश दिया जिसमें उन्होंने अपने आश्रित शिष्यों को निर्देश दिया ‘सभी श्रीरूप-रघुनाथ की कथाओं का परमोत्साह के साथ प्रचार करें। श्रीरूपानुग-गणों के चरणकमलों की धूलि बनना ही हमारी चरम आकाङ्गा है। आप सभी अद्वय-तत्त्व की अप्राकृत इन्द्रियों की तृप्ति करने के उद्देश्य से, आश्रय-विग्रह श्रीगुरु के आनुगत्य में परस्पर मिल-जुल कर रहना, आप सभी एक ही उद्देश्य से एक साथ मिल कर मूल आश्रय विग्रह राधाजी की सेवा करें।’ “जगद्गुरु श्रील प्रभुपादजी ने अपने आश्रित शिष्यों को आश्रय विग्रह (गुरुपादपद्म) के आनुगत्य में रहते हुए, एक ही उद्देश्य से एक साथ रहकर रूप-रघुनाथ की वाणी का प्रचार करने का उत्साह प्रदान किया था। श्रील प्रभुपाद जी के अप्रकट होने के बाद जो लीला घटित हुई, उसे देखकर अनर्थयुक्त, अदूर-दृष्टि-सम्पन्न व्यक्तियों में ये भावना आ सकती है कि इन घटनाओं से श्रील प्रभुपादजी की आज्ञाओं का उल्लङ्घन हुआ है। परन्तु, मङ्गलमय श्रीहरि की इच्छा से जो होता है, मङ्गल के लिए होता है, पारमार्थिक जीवन का यह मूल विषय ध्यान में न रहने के कारण हम दुःखी होते हैं। श्रीभगवान् की इच्छा न होने से कुछ भी नहीं हो सकता। दूसरी ओर भगवान् मङ्गलमय हैं, अतः उनकी इच्छा से जो भी होता है, उसमें मङ्गल अवश्य ही निहित होता है। किसी भी विराट उद्देश्य की पूर्ति के लिए भगवान् की इच्छा से एक के बाद एक जो घटनाएँ होती हैं, बहुत से अदूर दृष्टि वाले व्यक्ति उन्हें समझ नहीं पाते।
श्रीलगुरुदेव द्वारा लिखित पावन जीवन चरित्र से
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