कः पण्डितस्त्वदपरं शरणं समीयद् भक्तप्रियादृतगिरः सुहृदः कृतज्ञात्।
सर्वान् ददाति सुहृदो भजतोऽभिकामा-नात्मानमप्युपचयापचयो न यस्य ।।
(चै.च. मध्य 22.96)

हे प्रभु! आप अपने भक्तों के प्रति अत्यन्त वत्सल हैं। आप सत्यनिष्ठ तथा कृतज्ञ मित्र भी हैं। भला ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो आपको त्यागकर किसी और की शरण ग्रहण करेगा? आप अपने शरणागत् भक्तों की सभी इच्छायें पूर्ण करते हैं, यहाँ तक कि उनके ऋण से उऋण होने के लिए आप अपने आपको भी दे डालते हैं। फिर भी ऐसे कार्य से आप में ना तो वृद्धि होती है और ना ही कमी आती है। परमआराध्य श्रील प्रभुपाद अपने अनुभाष्य में लिखते हैं कि दीक्षा के समय में भक्त अपने प्राकृत अनुभूति समूहों को समर्पण करके अप्राकृत सम्बन्ध ज्ञान में स्थित होता है। अप्राकृत दिव्य ज्ञान को प्राप्त करके वो अप्राकृत शरीर में कृष्ण की सेवा अधिकार को प्राप्त करता है। भक्त किसी व्यक्ति को माया से छुड़ाकर एवं उसको कृष्ण के शरणागत बनाकर आत्मसात करते हैं। तब उसका भोग राज्य में भोक्ता अभिमान दूर हो जाता है और वह अपने अस्तित्व में नित्य कृष्ण दासत्व प्राप्त कर लेता है। तब वह सच्चिदानन्दमय स्वरूप में नित्य सेवक भाव को प्राप्त करके अप्राकृत देह में श्री कृष्ण चन्द्र की सेवा का अधिकारी होता है। भक्त के उसी समय के अप्राकृत देह के द्वारा अप्राकृत भावमय-सेवा को जो कर्मी लोग प्राकृत बुद्धि द्वारा प्राकृत मान लेते हैं, वह अपने गुरु की कृपा से वंचित हो जाते हैं। श्रीमन् महाप्रभु ने अपनी शिक्षाओं के द्वारा सदैव यही दर्शाया है कि वैष्णव की देह दिव्य है। श्रीमन् महाप्रभु ने यवन कुल में जन्मे श्रील हरिदास ठाकुर, खुजली रस से पीड़ित सनातन गोस्वामी एवं कुष्ठ रोग से पीड़ित वासुदेव घोष की देह को प्राकृत न समझकर उन्हें आलिंगन का सुख प्रदान किया था। इसी से वह (महाप्रभु) शिक्षा देते हैं कि भोगमय जड़ानन्द में स्थित प्राकृत जीव की देह कभी भी वैष्णव की देह के समान नही हो सकती। भक्त की देह चिदानन्दमय अर्थात् कृष्ण सेवा के उपयोगी और प्रकृति से अतीत भावमय और सच्चिदानन्दमय है। आत्मा के समान “आत्मसम” इत्यादि वाक्यों के द्वारा षड़ऐश्वर्य पूर्ण ईश्वर के साथ जीव की कभी भी समानता नहीं करनी चाहिये।

श्रीलप्रभुपाद
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