एक समय में सिलचर, उत्तर-पूर्व आसाम गया था। वहाँ एक बड़ी धर्म-सभा का आयोजन किया गया था। शहर के बहुत नामी व्यक्ति उस सभा में आए हुए थे। उस सभा के मुख्य अतिथि एक प्रोफ़ेसर थे। अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा, “भगवान् निराकार ब्रह्म स्वरूप हैं। उनका कोई रूप नहीं है। वे निःशक्तिक, निराकार और निर्गुण हैं। किसी भी वस्तु का रूप होने से वह सीमित हो जाती है इसलिए उस असीम ब्रह्म का कोई रूप नहीं हो सकता है। किन्तु क्योंकि बद्ध जीव के लिए निराकार और असीम ब्रह्म का ध्यान करना संभव नहीं है, असीम ब्रह्म, सत्व-गुण को स्वीकार करके एक आकार धारण करता है। उसे ही कृष्ण, राम, नरसिंह, काली, दुर्गा इत्यादि नाम दिया जाता है। वास्तव में दुर्गा, काली, गणपति, कृष्ण या राम का नित्य अस्तित्व नहीं है। वे सभी अंत में उस निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं।”

उनका वक्तव्य पूरा होने के बाद अंत में मुझे सभी का आभार व्यक्त करने के उद्देश्य से कुछ शब्द बोलने के लिए कहा गया। मैंने कहा, “आदरणीय मुख्य अतिथि के सुंदर प्रवचन लिए मैं उनको धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ किन्तु उनसे मेरा एक साधारण सा प्रश्न है— यदि सर्वोत्तम सत्य निःशक्तिक, निर्गुण और निराकार है तो वह कोई स्वरूप कैसे धारण कर सकता है? निःशक्तिक वस्तु कैसे कोई गुण स्वीकार कर सकती है? इस जगत् में भी क्या कोई किसी ऐसे व्यक्ति के पास सहायता माँगने के लिए जाएगा जिसमें कुछ करने की क्षमता नहीं है? आपने कहा, “भगवान् का कोई रूप नहीं है।” यदि उनका रूप नहीं है तो उनसे रूप कैसे आ सकता है? Nothing से something आना कैसे संभव है? इसलिए सर्वोत्तम सत्य कभी भी आकारहीन, शक्तिहीन या गुणहीन नहीं हो सकता है। वह सर्वशक्तिमान है और सभी के रूप और गुण का मूल कारण है।”

भगवान् में इस जगत् के गुण—सत्व, रज और तम—न होने के कारण वे निर्गुण कहे जाते हैं। परन्तु वे शाश्वत जगत् के अप्राकृत गुणों से सम्पन्न हैं। उनकी तटस्था शक्ति का अंश होने के कारण जीव भी निर्गुण, चेतन और इस जड़ प्रकृति से परे है। चेतन और निर्गुण होने के कारण जीव भगवान् से अभिन्न है। अभिन्न होते हुए भी भगवान् और जीव में नित्य-भेद वर्तमान है। भगवान् विभु या पूर्ण चेतन वस्तु हैं किन्तु जीव उन विभु चेतन का अंश – अणु-चेतन है; भगवान् माया के अधिपति हैं किन्तु जीव माया के वश में आ सकता है। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इसी अचिन्त्य भेदाभेद तत्त्व के विषय में शिक्षा दी है।

इसी प्रकार इस विषय की चर्चा सहारनपुर, उत्तर प्रदेश में भी हुई थी। मैं गुरुजी के साथ वहाँ गया हुआ था। एक दिन गुरुजी मुझसे कुछ लिखवा रहे थे। उसी बीच अचानक से वे कहने लगे, “यहाँ सहारनपुर में अनेक धनी व्यक्ति हैं जो हमें वृन्दावन में ख़रीदी हुई ज़मीन पर मठ का निर्माण करने के लिए सेवा दे सकते हैं। यहाँ पर एक सेठानी है, जो इस प्रकार के कार्यों में योगदान देती है। तुम उनसे मिलो।”

मैं तो सहारनपुर में किसी को जानता नहीं था, किन्तु हमारे साथ एक प्रभु थे जिनका नाम विजयकृष्ण था। उनकी एक विशेषता थी कि वे जहाँ भी जाते, घूमते रहते और दो- तीन दिन में पूरे शहर के बारे में जान लेते। मैंने उनसे पूछा, “यहाँ कोई सेठानी है जो मठ के सेवा कार्य में सहायता कर सकती है? आप उनके घर का पता जानते हैं?”

विजयकृष्ण प्रभु: “हाँ, मैं उनके घर का पता जानता हूँ।”

“हम वहाँ जा सकते हैं?”

“हाँ, क्यों नहीं?”

वे मुझे उनके घर ले गए। हमने देखा कि सेठानी सीढ़ी से नीचे उतर रही थीं। उनका शरीर इतना मोटा था कि ऊपर से नीचे उतरने में भी उनको असुविधा हो रही थी। नीचे आकर उन्होंने हमें बैठने के लिए निवेदन किया। हमने बैठकर उनसे बात आरम्भ की। मैंने उनसे कहा, “हमारे गुरुजी यहाँ आए हुए हैं। हम आपको उनके दर्शन और हरिकथा-श्रवण करने के लिए निमंत्रण देने आए हैं।”

सेठानी: “आप लोग कौन से संप्रदाय से हैं और उसकी शिक्षा क्या है?”

मैंने यह कहकर कि हम लोग श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनुयायी हैं, श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के विषय में उन्हें बताना शुरू किया। वे ध्यान से सुनने लगीं। सुनते समय कुछ बोलती नहीं थीं, केवल बीच-बीच में थोड़ा मुस्कुरातीं । इस प्रकार लगभग ४५ से ५० मिनट सुनने के बाद वे बोलीं, “आपके विचार में जीव भगवान् से भिन्न और अभिन्न दोनों हैं। किन्तु मेरे मत अनुसार जीव भगवान् से अभिन्न है। जीव साधन करते-करते अंत में भगवान् में लय हो जाता है। यह संसार झूठ है, सब कुछ झूठ है। ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या’ – ब्रह्म ही केवल सत्य है और ये जगत् मिथ्या है।”

मैंने बार-बार उन्हें श्रीचैतन्य महाप्रभु की अचिन्त्य-भेदाभेद शिक्षा के विषय में समझाने का प्रयास किया किन्तु वे कहती रहीं, ‘ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या ।’
बार-बार समझाने के बाद भी वे नहीं मानीं तो मुझे कहना पड़ा, “आप कहती हैं सब कुछ झूठ है, यह पूरा जगत् झूठ है। और क्योंकि आप भी इस जगत् के अंतर्गत ही हैं, आप भी झूठ हैं और आपकी बात भी झूठ है, उसे हम क्यों सुनें?”

इसी प्रकार एक और व्यक्ति जिसने वृन्दावन में गुरुजी से मंत्र लिया था, वह भी भगवान् में लीन होने के विचार का समर्थन करता था। हम दोनों एक ही कमरे में ठहरे हुए थे। वह मुझसे बार-बार विचार-विमर्श करता किन्तु अंत में निर्विकार, निर्विशेष, निःशक्तिक ब्रह्म के विचार का ही समर्थन करता था। बहुत समझाने पर भी जब वह शास्त्र की शिक्षा को नहीं समझ पा रहा था तब मैंने उससे पूछा, “आपको जो ज्ञान मिला है वह कहाँ से मिला है?” उसने बताया, “मेरे पहलेवाले गुरुजी से मिला।”

मैंने पूछा, “क्या आपके गुरुजी निराकार हैं या उनका कोई आकार है?” “उनका तो आकार है। ”

“आपके गुरुजी को यह ज्ञान कहाँ से मिला?”

“उनके गुरुजी से मिला।”

“ऐसा एक व्यक्ति दिखाइये जिसने किसी निर्विकार, निर्विशेष, निःशक्तिक व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त किया हो। यह संभव नहीं है। जब भगवान् द्वारा दी गई शिक्षा को ग्रन्थ के रूप में लिखनेवाले श्रीव्यासदेव साकार हैं, तो शिक्षाओं के मूल स्त्रोत भगवान् निराकार कैसे हो सकते हैं?”

भगवान् को निर्विकार, निर्विशेष, निःशक्तिक माननेवाला मायावाद विचार एक बार किसी व्यक्ति के मन में प्रवेश कर जाए तो उसका बाहर निकलना कठिन है।