एक बार गेंदाराम नामक एक व्यक्ति ने गुरुजी से श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा के विषय में उपदेश श्रवण करने के लिए उन्हें अम्बाला कैंट में आमंत्रित किया। उनका निमंत्रण स्वीकार कर गुरुजी चंडीगढ़ से अम्बाला गए। मैं उस समय गुरुजी के साथ था। अम्बाला के लक्ष्मी-नारायण मंदिर में सभा का आयोजन किया गया। सम्मेलन के दो दिन बाद, मनीषानंद नामक एक स्वामी वहाँ आए। वे आयु में मुझसे भी छोटे थे। वे गेंदारामजी के पास आए और सभा में प्रवचन करने की अपनी इच्छा व्यक्त करने लगे।

गेंदारामजी हमारे गुरुजी को ‘गुरुजी’ कहकर ही संबोधित करते थे। उन्होंने मनीषानंद स्वामी से कहा, “मैंने बहुत विनती करके गुरुजी (श्रील माधव महाराज) को इतनी दूर से, उनके मुखारविंद से श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा श्रवण करने के लिए यहाँ आमंत्रित किया है। उनका समय मूल्यवान है इसलिए हम इस सम्मेलन में आपको समय नहीं दे सकते।”

इस प्रकार मना करने पर भी मनीषानंद स्वामी बार-बार अपने प्रस्ताव को लेकर गेंदारामजी के पास आने लगे। उनके बार-बार आग्रह करने पर गेंदारामजी गुरुजी के पास आए और उनसे कहा, “गुरुजी, मैं आपके पास एक समस्या के समाधान के लिए आया हूँ। मनीषानंद नामक एक स्वामी यहाँ आए हैं जो मुझसे आग्रह कर रहे हैं कि उन्हें इस सम्मेलन में बोलने का अवसर दिया जाए। मैंने उन्हें कहा कि इस सम्मेलन में हम उन्हें समय नहीं दे सकते हैं, फिर भी वे बार-बार मेरे पास आकर विनती कर रहे हैं। अब मुझे क्या करना चाहिए?”

गुरुजी ने उत्तर दिया, “हाँ, उन्हें बोलने दीजिए। कोई समस्या नहीं है। पहले आधा घंटा वे बोलेंगे, मैं उनके बाद बोलूँगा।”

गेंदारामजी ने मनीषानंद स्वामी को बुलाकर कहा, “मैंने गुरुजी से पूछा। उन्होंने कहा कि आप आज की सभा में आधा घंटा बोल सकते हैं।”

इस प्रकार उस दिन की सभा में कीर्तन के बाद मनीषानंद स्वामी को आधे घंटे बोलने का अवसर दिया गया। मनीषानंद स्वामी ने अपना वक्तव्य पंजाबी में दिया। उसमें उन्होंने अनेक उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया। गुरुजी ने उनके वक्तव्य को ध्यान से सुना। उनकी बोली गई बातों में से एक बात पर गुरुजी को संदेह हुआ। उन्होंने बोला था, “मैं तो राम का रूप हूँ, सजदा करूँ किसका।” गुरुजी ने सभा के बाद हमारे पुरी महाराज से, जोकि पंजाब प्रांत से हैं, मनीषानंद स्वामी की उस बात का अर्थ ‘ पूछा।

पुरी महाराज ने गुरुजी को मनीषानंद स्वामी की बात का शाब्दिक अर्थ बताया, “मैं तो स्वयं राम हूँ, मैं और किसकी पूजा करूँ?”

यह सुनकर गुरुजी बोले, “यह बात तो ठीक नहीं है। जीव कभी राम (भगवान्) नहीं हो सकता।”

दूसरे दिन जब गुरुजी सभा में आए तब मनीषानंद स्वामी ने उन्हें प्रणाम किया। गुरुजी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा, “आपके कल के भाषण से सब लोग बहुत खुश हुए। आइए साथ बैठकर कुछ बात करते हैं।”

गुरुजी ने उन्हें अपने कमरे में बैठाया और उनसे बात करने लगे। मनीषानंद स्वामी ने बताया कि उनके तीन अलग-अलग जगहों पर मठ हैं एवं सरकार से सहायता मिलने पर वे एक विद्यालय की स्थापना करना चाहते हैं। जब इस प्रकार की बातें हो रही थी तब गुरुजी ने उनसे कहा, “आपके भाषण में बोली गई एक बात मुझे समझ में नहीं आयी। क्या आप मुझे समझा सकते हैं?”

मनीषानंद स्वामी: “हाँ बताइए, कौन सी बात समझ में नहीं आयी।”

गुरुजी: आपने बोला था, ‘मैं तो राम का रूप हूँ, सजदा करूँ किसका’, इसका अर्थ क्या है?

मनीषानंद स्वामी सरल थे। उन्होंने अपने उस वाक्य का अर्थ इस प्रकार बताया, “मैं तो स्वयं राम हूँ, मैं भला और किसकी पूजा करूँ?”

मनीषानंद स्वामी सोच रहे थे कि उनकी इस बात से गुरुजी प्रसन्न होंगे। किन्तु गुरुजी ने थोड़ी ऊँची आवाज़ में उनसे पूछा, “क्या आप राम हैं? क्या आप सच में राम हैं?”

मनीषानंद स्वामी गुरुजी का प्रश्न सुनकर डर गए। उन्हें यह समझ में आ गया कि उन्होंने जो कहा वह गलत है। गुरुजी ने उनसे पूछा, “आपने इस प्रकार की बात क्यों बोली ?”

मनीषानंद स्वामी ने उत्तर दिया, “इस विषय में मेरा तो कोई विशेष ज्ञान नहीं हैं, मैंने किसी से इस प्रकार सुना था इसलिए बोल दिया।”

गुरुजी के प्रश्न का ठीक से उत्तर न दे पाने के कारण वह हताश होकर कहने लगे, “मैं संन्यास आश्रम छोड़ दूँगा और घर वापिस चला जाऊँगा।”

उन्हें इस प्रकार हताश हुआ देख गुरुजी ने कहा, “देखिए, आपने जो बात कही उसका वास्तविक अर्थ में आपको बताता हूँ। आपने कहा, ‘मैं तो राम का रूप हूँ’, जिसका अर्थ है, मैं राम का हूँ, राम के द्वारा हूँ। रूप और स्वरूप में भेद है। किसी व्यक्ति की शक्ति को उसका रूप कहा जा सकता है। जीव, क्योंकि भगवान् की शक्ति का अंश है, उसे भगवान् का रूप कहा जा सकता है किन्तु भगवान् का स्वरूप अर्थात् स्वयं भगवान् नहीं कहा जा सकता। इसलिए, ‘मैं तो राम का रूप हूँ’ का अर्थ है—मैं राम की शक्ति का अंश हूँ, मैं राम का हूँ, राम के द्वारा हूँ। यदि मैं राम का हूँ, तो राम की सेवा करना ही मेरा धर्म है, इसलिए ‘सजदा करूँ किसका?’, राम को छोड़कर मैं और किसका भजन करूँ? जो राम का है वह राम का ही भजन करेगा। आपकी बात का अर्थ यह नहीं है कि मैं ही राम हूँ। जीव भगवान् की शक्ति का अंश है। जीव और भगवान् में नित्य भेद है। सूर्य की रोशनी सूर्य से आती है, वह सूर्य की शक्ति है किन्तु स्वयं सूर्य नहीं है, इसी प्रकार जीव भगवान् से आता है, भगवान् की शक्ति का अंश है किन्तु स्वयं भगवान् नहीं है।”