एक सज्जन मारवाड़ी व्यक्ति हमारे हैदराबाद मठ में आया करते थे। एक दिन उन्होंने मुझे अपने निवास स्थान पर होनेवाले एक यज्ञ के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने विशेष रूप से उल्लेख किया कि वे उस यज्ञ में १०० मन (~४००० किलोग्राम) घी की आहुति देनेवाले हैं। मैंने उन्हें बताया कि आजकल गाय के दूध से बना शुद्ध घी उपलब्ध नहीं है और यदि वे यज्ञ में शुद्ध घी का उपयोग नहीं करेंगे तो उन्हें पाप लगेगा। मैंने उन्हें यह भी समझाने का प्रयास किया कि कलियुग के लोगों के लिए यज्ञ निर्धारित साधन नहीं है। कलियुग के लोगों के लिए एकमात्र निर्धारित साधन है— हरिनाम संकीर्तन | यह सुनकर उन्होंने मुझे बताया कि यज्ञ के समय वहाँ हरिनाम संकीर्तन भी किया जाएगा।

वे मुझे यज्ञ में ले जाने के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने मेरे लिए एक कार की व्यवस्था भी की। उनके द्वारा बार-बार अनुरोध किए जाने पर मुझे वहाँ जाना पड़ा। वहाँ पहुँचने पर वे मुझे यज्ञ के लिए की गई सारी व्यवस्था दिखाने लगे। व्यवस्था देखने के बाद मैंने उनसे पूछा, “हरिनाम संकीर्तन कहाँ किया जा रहा है?”

उन्होंने कहा, “हाँ, आइए मैं आपको वहाँ ले चलता हूँ।”

वे मुझे एक छोटे से कोने में ले गए जहाँ मैंने देखा कि दो-तीन व्यक्ति बैठकर कीर्तन कर रहे थे। उनके लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि यज्ञ में कितना घी लगनेवाला था, न कि हरिनाम संकीर्तन । मैंने उनसे कहा कि यदि उनका झुकाव यज्ञ करने की ओर ही है। तो उन्हें कुछ गायें रखनी चाहिए और उनके दूध से तैयार किए गए घी के द्वारा यज्ञ करना चाहिए। किन्तु क्योंकि कलियुग में यह संभव नहीं है, कलियुग के जीव के लिए भगवान् के नाम-जप या हरिनाम संकीर्तन को ही साधन के रूप में निर्धारित किया गया है।

बृहद्-नारदीय पुराण (३८/१२६) में दिया गया है—

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनर्मिव केवलम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

कलियुग में हरिनाम के बिना और गति नहीं है, नहीं है, नहीं है; हरिनाम ही एकमात्र गति है।

इस सिद्धांत को दृढ़ता से स्थापित करने के लिए यहाँ ‘हरेर्नाम’ तीन बार कहा गया है। इतने पर भी जिनको विश्वास न हो, ऐसे जड़ लोगों को समझाने के लिए पुनः ‘एव’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

संत तुलसीदास जी ने भी लिखा है, “कलियुग केवल नाम आधारा, सुमिर सुमिर नर उतरहि पारा।” अर्थात् कलियुग के जीव के लिए केवल भगवान् का नाम ही एकमात्र आधार है।

कलियुग में व्यक्ति कितना भी बड़ा यज्ञ करे, कितनी ही तपस्या करे या कोई और साधन करे किन्तु, शास्त्रों के निर्देशानुसार उसे सर्वोत्तम लाभ केवल हरिनाम संकीर्तन से ही होगा। शास्त्रों में सतयुग के लिए ध्यान, त्रेतायुग के लिए यज्ञ, द्वापरयुग के लिए अर्चन और कलियुग के लिए हरिनाम संकीर्तन को सर्वोत्तम साधन बताया गया है। हमारे पूर्वाचार्यों ने भी कर्म, ज्ञान, योग, त्याग, व्रत व तपस्यादि का परित्याग करके हरिनाम करने का ही उपदेश दिया है। अतः अन्य सभी प्रकार के साधनों का मोह छोड़कर, भगवान् के नाम को भगवान् से अभिन्न मानकर, एकान्त भाव से उसका जप करना ही परम लाभदायक है। इससे बड़ा साधन और कोई नहीं है। हज़ारों प्रकार के भक्ति-अंगों में श्रीनाम-भजन ही सर्वेश्रेष्ठ है। श्रीनाम-भजन ही श्रीचैतन्यदेव की शिक्षाओं का सार है।