एक बार एक आसाम की महिला हमारे कोलकाता मठ में आई। श्रील भक्ति प्रचार पर्यटक महाराज से उन्हें हमारे मठ के विषय में जानकारी मिली थी। वह मेरे पास आई और रोने लगी।
मैंने उनसे उनके दुःख का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया, “मेरा एक बेटा है जिसकी एक आँख क्षतिग्रस्त हो गई है। इतनी कम आयु में ही एक आँख चले जाने से आगे का पूरा जीवन बिताना उसके लिए बहुत कठिन होगा। डॉक्टर कह रहे हैं कि उसकी आँख ठीक नहीं हो सकती । कृपया आप कोई उपाय बताइए।”
मैंने उनसे पूछा, “क्या आपका बेटा आपके साथ आया है?”
महिला ने उत्तर दिया “हाँ, वह मेरे साथ आया हुआ है।”
वह अपने बेटे को लेकर मेरे पास आई। मैंने देखा उनके बेटे का शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा है पर उसकी एक आँख ठीक नहीं है। मैंने कोलकाता के पी. बैनर्जी नाम के एक होम्योपैथिक डॉक्टर का नाम सुना था जो अनेक रोगों के उपचार के लिए जाने जाते थे। उन दिनों उनकी फीस २०० रुपए थी। मैंने उन्हें पी. बैनर्जी को दिखाने का सुझाव देते हुए कहा, “आपने इतने डॉक्टरों से जाँच करवाई है, तो एक और डॉक्टर को भी दिखा दीजिए।”
वह अपने बेटे को पी. बैनर्जी के पास ले गई। डॉक्टर ने उन्हें दो महीने के लिए कोलकाता में रहकर इलाज करवाने के लिए कहा पर महिला ने बताया कि इतने लंबे समय तक वे कोलकाता में नहीं रह सकते, अधिक से अधिक पंद्रह दिनों तक रह सकते हैं। डॉक्टर ने उन्हें दो महीने की दवाई एक साथ ही दे दी। दवाई से धीरे-धीरे उनके बेटे की आँख ठीक होने लगी और कुछ ही महीनों में उसे ठीक से दिखाई देने लगा। महिला ने सोचा कि उनके बेटे की आँख मेरे आशीर्वाद के कारण ठीक हुई है इसलिए उन्होंने मठ की शिष्या बनने का निर्णय लिया।
हमारे भक्ति प्रचार पर्यटक महाराज के बहुत आग्रह करने पर, आसाम यात्रा के दौरान, भक्तों के साथ मेरा उन माताजी के घर जाना हुआ। माताजी के परिवार वालों ने वहाँ एक बड़े संकीर्तन की व्यवस्था की थी। माताजी के अलावा उनके परिवार के बाकी सभी सदस्यों ने भी दीक्षा ली और मठ के शिष्य बने। उन्होंने और उनके परिवार के सदस्यों ने दीक्षा इसलिए ली क्योंकि उनके बेटे की आँख ठीक हो गई थी जिससे अब वह इस जगत् की वस्तुओं को देख सकता था और सुख अनुभव कर सकता था।
क्या भगवान् का भजन जागतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए है? आँखें कितने समय तक रहेंगी? मृत्यु के समय आँखें और अन्य सभी इन्द्रियाँ नष्ट हो जाएँगी।
अनेक व्यक्ति साधु के पास या भगवान् के पास भगवान् की सेवा के लिए नहीं बल्कि व्यवसाय करने जाते हैं। कन्या के विवाह के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए भगवान् के पास धन माँगने जाते हैं। वे कहते हैं, “विवाह के लिए पाँच लाख रुपए चाहिए। मेरे पास दो लाख हैं, आपको सौ रुपए देता हूँ, आप बाकी के तीन लाख रुपयों की व्यवस्था कर दीजिए !” यह क्या भगवान् की सेवा के लिए जाना हुआ? यह तो एक प्रकार का व्यवसाय है।
“सुत-दारा-लक्ष्मी पापी के भी होय, संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय।” तुलसीदास जी शिक्षा दे रहे हैं कि पुत्र-पुत्री, पत्नी, धन-संपत्ति आदि तो पापी के घर में भी होते हैं किन्तु सच्चा साधु और हरि-कथा दुर्लभ है, सहजता से नहीं मिलते।
अनेकों स्थानों पर देखा जाता है कि केवल, ‘संत समागम हरिकथा तुलसी दुर्लभ दोय’ – इसी वाक्य की व्याख्या की जाती है, “साधु आ गए हैं। त्रिवेणी संगम आ गया है। गंगाजी यमुना जी आ गईं हैं। अभी यहाँ डुबकी लगाइए। आपका कल्याण होगा।” किन्तु ‘सुत-दारा-लक्ष्मी पापी के भी होय’ वाक्य की व्याख्या नहीं की जाती। तुलसीदास जी जैसे महात्मा के सभी वचन क़ीमती हैं।
सुत-दारा-लक्ष्मी, करोड़ों रुपयों का घोटाला करनेवाले व्यक्ति के पास जाने से भी मिलेंगे। इन सबके लिए साधु के पास जाने की क्या आवश्यकता है? तुलसीदास जी हमें शिक्षा दे रहे हैं कि यदि हम नाशवान वस्तुओं के लिए साधु के पास जाएँगे तो साधु का वास्तविक संग नहीं होगा। साधु के पास सांसारिक वस्तुओं के लिए जाना उचित नहीं है। ऐसा करने से हम अपना और साधु, दोनों का समय व्यर्थ करते हैं।
मनुष्य जीवन में भगवान् ने सत्-असत् का विवेक दिया है जिसका उपयोग कर जीव असत् (नाशवान वस्तुओं) को छोड़ सत् को ग्रहण कर सकता है। भगवान् कहते हैं, “यदि तुम अपने विवेक का उपयोग करके सत् को ग्रहण नहीं करोगे तो पशुओं से किस प्रकार से श्रेष्ठ कहलाओगे? आहार, निद्रा, भय और मैथुन पशु भी करते हैं। मनुष्य शरीर में जीव यदि सत्-असत् के विवेक के द्वारा असत् को छोड़ सत् को ग्रहण न करे तो वह पशु-तुल्य ही कहलाएगा। मनुष्य जन्म भगवान् के भजन के लिए है। मनुष्य योनि की सृष्टि करके भगवान् को आनंद हुआ क्योंकि केवल मनुष्य योनि में ही जीव भजन करके भगवान् के पास जा सकते हैं, किसी अन्य योनि में नहीं। इसलिए देवता भी मनुष्य जन्म प्राप्त करने की इच्छा करते हैं। मनुष्य जन्म दुर्लभ है। ८० लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मनुष्य जन्म मिलता है, किन्तु उससे भी दुर्लभ है मनुष्य जन्म में शुद्ध भक्तों के दर्शन का सौभाग्य मिलना। यह अत्यंत दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त करने के बाद भी यदि हम शुद्ध भक्तों से संसार की नाशवान वस्तुएँ माँगे, तो क्या यह बुद्धिमानी कहलाएगी? जो साधु ऐसी नाशवान वस्तुएँ देते हैं, वे वास्तविक साधु नहीं हैं। साधु कभी यह नहीं कह सकते कि आग में कूदकर जलो और मरो संसार की नाशवान वस्तुएँ आग के समान हैं। ऐसा कौन साधु है जो जीव के सर्वनाश के लिए उसे आग में कूदकर मरने को कहेगा? कोई साधु ऐसा नहीं कह सकता। ये साधु के लक्षण नहीं हैं।