चंडीगढ़ में हमारा एक बड़ा मठ है। वहाँ बहुत गृहस्थ भक्त आते हैं। एक दिन एक माताजी मठ में आई और एक ब्रह्मचारी भक्त से कहने लगीं, “हमारे शहर में एक प्रसिद्ध भागवत्-वक्ता आए हुए हैं। वे भागवत् की बहुत सुन्दर व्याख्या करते हैं। आपको भी जाकर उनके प्रवचन सुनने चाहिए।”

ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, “मठ-रक्षक ने मुझे कुछ सेवा दी हुई है, मैं अभी व्यस्त हूँ। यदि सेवा के बाद मुझे समय मिला तो मैं जा सकता हूँ।”

उस दिन वे नहीं गए। अगले दिन फिर से वह माताजी उनसे कहने लगी, “आप भागवत् कथा सुनने गए नहीं? वह वक्ता हमारे शहर में अधिक दिन नहीं रुकेंगे, आपको वहाँ जाना चाहिए और उनकी कथा सुननी चाहिए।”

ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, “कल मुझे समय नहीं मिला, आज जाने का प्रयास करता हूँ।” उस दिन भी वे वहाँ नहीं गए। अगले दिन, माताजी ने फिर एक बार उनसे पूछा, “क्या आप गए थे?”

इस बार उस ब्रह्मचारी ने माताजी से प्रश्न किया, “आप ऐसा क्यों सोचती हैं कि उनकी कथा सुनने से मुझे लाभ होगा?”

माताजी ने कहा, “मुझे ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि बहुत लोग उनकी कथा सुनने आते हैं। और तो और वे कथा सुनाने के दस हज़ार रुपए भी लेते हैं।”

इतना सुनते ही ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया, “मुझे ऐसे वक्ता की कथा नहीं सुननी जो भगवान् की कथा के नाम पर व्यवसाय करता हो।”

जो व्यक्ति भागवत् को अपनी जीविका बनाता है उससे भागवत् श्रवण करके किसी का मंगल नहीं हो सकता। कारण, वक्ता जिस इच्छा के साथ कथा कहेंगे वही इच्छा श्रोता में जागृत होगी। यदि वक्ता धन की इच्छा से कथा कहेंगे तो श्रोता में भी धन पाने की इच्छा उदित होगी, न कि भगवान् को पाने की।

ऐसे भागवत् वक्ताओं को यह विश्वास नहीं है कि यदि हम भगवान् की सेवा के लिए भगवान् की कथा कहेंगे तो भगवान् अवश्य हमारी रक्षा और पालन करेंगे।

यदि इस जगत् में भी हम किसी व्यक्ति के पास जाएँ जो संभवतः सज्जन भी नहीं है और उससे बिना कुछ माँगे उसकी सेवा करते रहें, तो वह व्यक्ति कितने दिन तक इस प्रकार की सेवा को स्वीकार करता रहेगा? वह सोचेगा, “यह व्यक्ति मेरी इतनी सेवा करता है, उसे खिलाए बिना मैं कैसे खा सकता हूँ? उसे कपड़े दिए बिना मैं कैसे कपड़े पहन सकता हूँ?” एक असज्जन व्यक्ति भी अयाचक वृत्ति से सेवा करनेवाले को कुछ देने के लिए बाध्य हो जाएगा। जब एक साधारण जीव कुछ दिए बिना सेवा स्वीकार नहीं कर सकता, तो भगवान्, जो अनंत ब्रह्माण्डों के रक्षक और पालक हैं, यदि हम उनकी सेवा करेंगे तो क्या वे हमारी रक्षा और पालन नहीं करेंगे? उनकी सेवा के बदले में क्या हमें पैसे लेने की आवश्यकता है? क्या हमें उन पर विश्वास नहीं है?

जैसे सर्प के द्वारा पिया हुआ दूध ज़हरीला हो जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति स्वयं भागवत् की शिक्षाओं पर नहीं चलता, उसके मुख से सुनी गई भगवान् की कथा भी उल्टा फल देनेवाली होती है। भगवान् की कथा कहने का एकमात्र उद्देश्य भगवान् की प्रसन्नता होना चाहिए। कार्य के उद्देश्य से यह पता चलता है कि कार्य ठीक है या नहीं। यदि उद्देश्य ठीक है तो सब कुछ ठीक है, किन्तु यदि उद्देश्य ठीक नहीं है तो कार्य कितना भी अच्छा हो उसे अच्छा नहीं माना जाएगा। वक्ता, भगवान् की प्रसन्नता को छोड़कर किसी और उद्देश्य से भगवान् का कीर्ति-गान करेगा तो भगवान् वहाँ नहीं आएँगे, भगवान् की माया आएगी। वर्तमान समय में अनेकों व्यक्ति अपने किसी सांसारिक लाभ के लिए साधु का वेश धारण करते हैं और अपनी इन्द्रियों के सुख के लिए कार्य करते हैं। उन्हें साधु कैसे कहा जा सकता है? वास्तविक साधु का प्रत्येक कार्य भगवान् के लिए होता है, उनका संपूर्ण जीवन भगवान् की सेवा में समर्पित है।