श्रीकृष्ण की मधुरता के कारण ब्रह्मा जी, जिन्हें भगवान् ने निखिल विश्व की सृष्टि का दायित्व सौंपा है, उन्हें भगवान् के रूप में नहीं पहचान सके। जब ब्रह्मा जी ने सुना कि व्रज का ग्वालबाल, श्रीकृष्ण भगवान हैं, तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि “ये स्वयं भगवान् कैसे हो सकता है? ये तो मेरे द्वारा सृष्ट ग्वाला, नन्द महाराज का पुत्र है। ये भगवान् नहीं हो सकता। एक ग्वालबाल के पास कोई ऐश्वर्य नहीं होता, कदापि नहीं। भगवान् सभी ऐश्वर्यों के स्वामी हैं, पर ये श्रीकृष्ण तो ग्वालों के साथ जंगल में टहलता है और इसके पास मूल्यवान् वस्तुएँ भी नहीं हैं। ये जंगली फूलों की माला पहनता है और इसके केश में मोर पंख लगा हुआ है। कोई कैसे कह सकता है कि यह भगवान् है? एक ग्वाला भगवान् नहीं हो सकता।”
अब उस समय अघासुर नामक एक राक्षस था जो श्रीकृष्ण और अन्य ग्वाल बालकों को मारना चाहता था। अघासुर ने एक विशाल सर्प का रूप धारण किया तथा अपने मुँह को इतना चौड़ा कर लिया कि दूर से देखकर ग्वाल बालकों ने सोचा कि वे एक सुन्दर गुफा को देख रहे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि गुफा की ओर एक रास्ता जा रहा है, जो कि वास्तव में उस सर्प-राक्षस की जिा थी । अतः अघासुर के मुख को गुफा समझकर ग्वाल बालक उसमें प्रवेश कर गये और तुरन्त उस राक्षस ने उन्हें निगल लिया। जब श्रीकृष्ण ने ऐसा होते हुए देखा तो उन्होंने अपने सखाओं को बचाने का निर्णय किया। वे उनके पीछे-पीछे असुर के
मुख के अन्दर चले गये और अपने आकार को बढ़ाना शुरू किया। उनके शरीर का आकार इतना विशालकाय हो गया कि उससे सर्प का कण्ठ अवरुद्ध हो गया। इससे वह सर्प साँस नहीं ले सका तथा दम घुटने से शीघ्र ही मर गया। जब ब्रह्मा जी ने देखा कि श्रीकृष्ण ने अघासुर का वध कर दिया है, तो वे चकित होकर सोचने लगे कि, “इस साधारण से ग्वाले ने इतने भयंकर राक्षस को कैसे मार दिया?” उस समय उन्होंने यह जानने का निर्णय किया कि श्रीकृष्ण भगवान् हैं कि नहीं।
इस बीच श्रीकृष्ण जिन्हें वनभोजन बहुत अच्छा लगता था, अपने सखाओं के साथ एक सरोवर के तट पर पहुँचे। ग्वालबाल श्रीकृष्ण के लिए कुछ भोजन लाये थे तथा उसे उन्होंने वहाँ पहले ही पेड़ों पर लटका दिया था ताकि कोई ले न सके। जब वे उस स्थान पर पहुँचे तो उन्होंने पेड़ों से अपने भोजन की थैलियों को उतारा तथा श्रीकृष्ण को खिलाने लगे, पर ऐसा करने के पूर्व वे स्वयं उस भोजन को चखते और बाद में श्रीकृष्ण को देते। यदि भोजन अच्छा होता तो वे कहते, “हे कृष्ण ! कन्हैया ! यह भोजन स्वादिष्ट है, इसे खा।” तब उसे वे श्रीकृष्ण को देते ।
उसी क्षण ब्रह्मा जी वहाँ पधारे और जब उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण सभी ग्वाल बालकों का जूठा भोजन ग्रहण कर रहे हैं तो वे पुनः सोचने लगे कि, “ये भगवान् नहीं हो सकता। ये तो बस एक ग्वाला ही है।” ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण के बाएँ हाथ में चावल और दही का मिश्रण भी देखा। वैदिक शास्त्रों में यह स्पष्ट बताया गया है कि हमें बाएँ हाथ से नहीं, बल्कि दाहिने हाथ से भोजन करना चाहिए। अतः ब्रह्मा जी ने सोचा कि “ये दाएँ और बाएँ का अंतर ही नहीं जानता, ये भगवान् नहीं हो सकता। ये और कुछ नहीं बस एक अज्ञ ग्वाला है।” उन्होंने यह भी देखा कि श्रीकृष्ण ने अपनी कमर में एक बांसुरी बांध रखी थी तथा अपनी बगल में एक श्रृंगा दबा रखा था। सभी ग्वालबाल सम्मानजनक शब्दों की बजाय सामान्य व्यावहारिक शब्दों में उससे बातें कर रहे थे। ब्रह्मा जी ने सोचा कि, “दूर से साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके भगवान् का सम्मान करना चाहिए। समुचित शिष्टाचार पूर्ण कथन के द्वारा उनका सम्मान किया जाना चाहिए। इस प्रकार के व्यवहार को भगवान् कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?”
एक मौके पर ग्वालबालों ने श्रीकृष्ण से कहा, “हमें जाकर बछड़ों को लाना होगा नहीं तो घर वापस जाने में देर हो जायगी।” पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, “नहीं, तुम सब यहीं रुककर विश्राम करो, मैं उन्हें ले आऊँगा।” अब जब श्रीकृष्ण बछड़ों को ढूँढने निकले तो उन्हें कोई भी दिखाई नहीं पड़ा क्योंकि ब्रह्मा जी ने उन्हें चुरा लिया था और एक गुफा में छिपा रखा था। श्रीकृष्ण उदास हो गए और जिनको भी देखते, उनसे पूछने लगे, “हमारे बछड़े खो गए हैं, क्या आपने उन्हें देखा है? उनके बिना मैं कैसे घर जा सकता हूँ।”
जब तक श्रीकृष्ण उस वनभोज के स्थान पर वापस पहुँचे, तब तक ब्रह्मा जी ने सभी ग्वालबालों को भी चुरा लिया था। वे उन सबको सुमेरु पर्वत की उसी गुफा में ले गए थे जहाँ उन्होंने बछड़ों को पहले छुपाया था। अब चूँकि वे सभी बछड़ों एवं ग्वालबालों को खो चुके थे, वे बैठकर क्रंदन करने लगे। ब्रह्मा जी ने यह देखा और मुस्कुराने लगे। उन्होंने बड़ी संतुष्टि के साथ सोचा, “भगवान् तो सब कुछ जानते हैं। अगर कृष्ण भगवान् होते तो वे बछड़ों को बलपूर्वक वापस ले जा सकते थे। पर उन्हें तो यह भी नहीं पता कि बछड़े और बालक कहाँ पर है तथा वे उन्हें ढूंढ निकालने में असफल रहे हैं। अतः मेरा विचार ठीक था, ये तो एक साधारण ग्वालबालक है।” और इस प्रकार वे वहाँ से चले गए।
ब्रह्मा जी के वहाँ से जाने के पश्चात् श्रीकृष्ण भी मुस्कुराने लगे और ब्रह्मा जी ने जितने बछड़ों एवं ग्वालबालको को चुराया था श्रीकृष्ण ने उन सबका रूप धारण कर अपना विस्तार किया। इसलिए जब वे वापस घर पहुँचे तो गायों की इस बात का तनिक भी आभास नहीं हुआ कि उनके बछड़े खो गए हैं तथा गोप एवं गोपियों को भी इस बात का पता नहीं चला कि उन्होंने अपने बच्चों को खो दिया है। श्रीकृष्ण के लिए सबकुछ संभव है। गोप एवं गोपियाँ उन्हें अपने पुत्र के रूप में प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए, श्रीकृष्ण उनके पुत्र बनकर उनके पास आ गए। गोप एवं गोपियाँ हमेशा यह सोचते थे कि नन्द और यशोदा कितने भाग्यशाली हैं जो श्रीकृष्ण उन्हें पुत्र रूप में प्राप्त हुए हैं। अब जबकि श्रीकृष्ण उनके अपने पुत्र बनकर उनके पास आए थे तो वे उन्हें पहचान नहीं सके पर ज्यों ही उन्होंने उनका (श्रीकृष्ण का) स्पर्श किया, उन्हें अत्यधिक प्रेम की अनुभूति हुई जो केवल श्रीकृष्ण से ही प्राप्त हो सकती है। वे आनंद के अथाह समुद्र में निमज्जित हो गए।
वृन्दावन की गइया साधारण गइया नहीं थीं। अपने पूर्व जन्म में वे सभी ऋषि-मुनि थीं। साधारणतः गइया का अपने छोटे बछड़ों के प्रति ही स्नेह होता है, पर अब जबकि श्रीकृष्ण ने उनके बछड़ों का रूप धारण कर लिया था, तो जिन रस्सियों से वे बंधी हुई थीं उन्हें तोड़कर वे उनकी ओर भागी। यहाँ तक कि, वे कंटीली झाड़ियों के बीच दौड़ रही थीं तथा इससे उन्होंने अपने आप को जख्मी तक कर लिया – था और चारों ओर से रक्त बह रहा था। ऐसा था उनका श्रीकृष्ण के प्रति प्रगाढ़ प्रेम । श्रीकृष्ण के प्रति उनकी तीव्र उत्कण्ठा के कारण, श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके बछड़ों के रूप में आ गये तथा उनका स्तनपान किया। केवल उनकी (गइया की) संतुष्टि और इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से श्रीकृष्ण पूरा एक वर्ष उनके पास रहे।
एक वर्ष के पश्चात ब्रह्मा जी वापस आए। उन्होंने उन्हीं बछड़ों और ग्वालबालों को देखा जो इसके पूर्व वहाँ पर थे। उन्होंने सोचा, “असंभव, ऐसा हो ही नहीं सकता! मैंने उन सबको पहाड़ की गुफा में कैद कर दिया था। यह मेरी समझ के बाहर है।” ऐसा सोचकर वे सुमेरु पर्वत की गुफा में वापस गए और देखा कि वही बछड़े और ग्वालबाल वहाँ पर अभी तक सो रहे थे। वे पुनः एकबार वृन्दावन लौटे और देखा कि सभी बछड़े एवं ग्वालबाल वहाँ पर भी मौजूद थे। तब ब्रह्मा जी स्थिति को समझे और सोचने लगे, “सभी जीव मेरी माया से मोहित रहते हैं, पर अब मैं स्वयं ही अपने स्वामी की माया से मोहित हो गया हूँ।” तब वे श्रीकृष्ण के पूर्ण – शरणागत हो गये तथा उनसे क्षमा-याचना करने लगे। जब एकबार उन्होंने शरण ग्रहण कर ली, तब दयालु श्रीकृष्ण वहाँ प्रकट हुए और ब्रह्मा जी को प्रत्येक ग्वालबाल एवं बछड़े में अपने विराट चर्तुभुज (चार-हाथों वाले) रूप का दर्शन कराया। तब ब्रह्मा जी ने स्तुति की—
नौमीड्य तेऽप्रवपुषे तडिदम्बराय गुंजावतंसपरिपिच्छलरान्गुखाय ।
वन्यराजे कवलवेत्रविषाणवेणु लक्ष्मश्रिये मृदुपदे पशुपांगजाय
– (भा: 10/14/1)
“आप भजन का चरम लक्ष्य हैं। मैं इसे सत्य मानता हूँ कि आप सभी कारणों के कारण और सभी अवतारों के मूल हैं। आप सब प्रकार के रसों के स्वामी हैं। आपकी अंग-कांति वर्षाधारी मेघों के समान श्यामल है। आपके वस्त्र विद्युत के समान देदीप्यमान हैं। गले में गुंजा की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा सिर पर मोरपंखों के मुकुट से आपके मुखमंडल का सौन्दर्य बढ़ गया है। विविध प्रकार के वनफूलों एवं पत्रों की माला पहनकर, वेत, श्रृंगा और वेणु को धारण करके तथा अपनी हथेली पर दही-अन्न का कवल लेकर आपका रूप अत्यन्त सुन्दर दिख रहा है।”
इस प्रकार ब्रह्मा जी ने मधुरातिमाधुर प्रभु श्रीकृष्ण की महत्ता को समझा। सम्पूर्ण सृष्टि में इनकी कोई तुलना नहीं है।