श्रीकृष्ण में द्वादश (बारह) रस पाये जाते हैं। रस का अर्थ है सम्बन्ध की परिपक्वता एवं वह आनन्द या आस्वादन जोकि श्रीकृष्ण के साथ एक विशेष सम्बन्ध के अंतर्गत अनुभव होता है। पाँच प्रकार के मुख्य रस हैं। वे हैं शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। इसके अलावा सात प्रकार के गौण रस हैं। वे हैं हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक तथा विभत्स । श्रीमद्भागवतम में इन सभी रसों का वर्णन है। में वहाँ पर इस बात का वर्णन है कि किस प्रकार दुष्ट राजा कंस ने श्रीकृष्ण को मारने का प्रयास किया था। कंस ने सोचा था कि, “मैं एक बहुत बड़ा अखाड़ा बनवाऊँगा। उसमें सभी मथुरावासियों और व्रजवासियों को भाग लेने के लिए आमंत्रित करूँगा। उसमें एक मल्लयुद्ध (कुश्ती) का आयोजन होगा। पहलवान के साथ श्रीकृष्ण और उनके भाई बलराम युद्ध करेंगे और मारे जायेंगे।” इस प्रकार कंस ने सारी व्यवस्था कर ली थी और बहुत से लोग उस विशाल अखाड़े में इस मल्लयुद्ध को देखने के लिए आये थे। जब श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम ने अखाड़े में प्रवेश किया तो सब दर्शकों ने श्रीकृष्ण को अलग-अलग रूपों में देखा ।

मल्लानामशनिर्नृणां नरवरः स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां शास्तास्वपित्रोः शिशुः ।
मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो रंगं गतः साग्रजः ।।
– (भा: 10/43/17)

अतः संपूर्ण बारह रस वहाँ प्रकाशित थे। प्रथम था ‘वीर-रस’, जो योद्धाओं का हुआ करता है। पहलवानों ने श्रीकृष्ण को इस प्रकार देखा। साधारण दर्शकों ने श्रीकृष्ण को एक अद्भुत व्यक्ति के रूप में देखा- ‘अद्भुत रस’ । सभी गोपियाँ वहाँ उपस्थित थीं और उन सभी ने श्रीकृष्ण को अपने प्रिय पति के रूप में देखा-‘स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्’ । 

श्रीकृष्ण के सभी मित्रों ने उन्हें अपने मित्र के रूप में देखा – ‘गोपानां स्वजनोऽसतां। मित्रों के बीच ‘हास्य-रस’ भी पाया जा सकता है। उदाहरण के लिए श्रीकृष्ण के सखा मधुमंगल श्रीकृष्ण की मिठाई चुरा लेते हैं और इसके फलस्वरूप एक हास्यजनक वातावरण की सृष्टि हो जाती है। ‘हास्य-रस’ एक गौण रस है। किन्तु प्रमुख रस ‘सख्य-रस’ है। इस ‘सख्य-रस’ में हम देखते हैं कि ‘हास्य-रस’ प्रेम की भावना को प्रेरित करता है।

जो अत्याचारी स्वभाव के थे, वे श्रीकृष्ण को देखकर भयभीत हो गए। उन्हें लगा कि उनको दण्ड देने वाला आ है। वे थे, क्योंकि उन्होंने श्रीकृष्ण को डरे बहुत हुए उत्तेजित व क्रोधित स्थिति में देखा। यह ‘भयानक-रस’ है। और सभी अभिवावकों (माता-पिता) ने जब श्रीकृष्ण को देखा तो उन्हें उनमें अपने प्रिय बालक की छवि दिखाई दी—‘स्वपित्रोः शिशुः’। यह ‘वात्सल्य रस’ है। माता-पिता के प्यार में ‘करुण रस’ की भी अपनी भूमिका है। करुण का अर्थ है सहानुभूति या दया की भावना । जब उन्होंने अपने समक्ष घटित हो रहे दृश्य को देखा कि एक छोटा-सा बालक उन भयानक योद्धाओं का सामना कर रहा है तो उनमें दया का भाव उत्पन्न हुआ। इसलिए ‘वात्सल्य रस’ में ‘करुण रस’ समाहित है।

इसके बाद कंस ने सोचा कि मृत्यु उसके पास आ गयी है— ‘मृत्युर्भोजपतेर’। उसने श्रीकृष्ण को एक भयानक रूप में देखा । श्रीकृष्ण भयानक नहीं हैं, पर कंस को वे इसी प्रकार दिखाई दिये। अज्ञानियों ने उन्हें एक साधारण मानव के रूप में देखा – ‘विराडविदुषां’। योगिओं ने श्रीकृष्ण को ‘शांत-रस’ में परम सत्य के रूप में देखा। जबकि यादवों ने श्रीकृष्ण का ‘दास्य-रस’ में दर्शन किया। अतः हम केवल श्रीकृष्ण में ही सभी पाँच प्रमुख रस व सात गौण रसों को अनुभव कर सकते हैं। श्रीकृष्ण की सेवा करके हम सभी प्रकार के रसों का आस्वादन कर सकते हैं, पर भगवान् किसी दूसरे स्वरूप की सेवा के द्वारा हम यही परिणाम नहीं प्राप्त कर सकते।

श्रीचैतन्य चरितामृत में श्रीकविराज गोस्वामी जी ने लिखा है कि जीवात्माओं में पचास प्रकार के दिव्य गुण अंश मात्रा में पाये जाते हैं। शिव और ब्रह्मा में पाँच अतिरिक्त अप्राकृत गुण अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। पुनः नारायण अथवा विष्णु में पाँच और गुण पूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं। इस प्रकार सब में कुल मिलाकर साठ प्रकार की दिव्य विशेषताएँ या गुण पाये जाते हैं। अब चार अन्य गुण हैं जो श्रीकृष्ण के अलावा और कहीं नहीं मिलेंगे। ये गुण हैं— श्रीकृष्ण-लीला की अतुलनीय मधुरता (लीला माधुय), उनके रूप की मधुरता (रूप-माधुय). उनकी वंशी की मधुर ध्वनि (वेणु-माधुय) तथा उनके प्रेम की मधुरता ( प्रेम- माधुय)। श्रीकृष्ण की अनेकों आर्श्वयजनक लीलायें हैं जिनमें वे एक मधुर रूप धारण करते हैं। वे एक बहुत विशाल रूप में समस्त अस्त्र-शस्त्रों सहित प्रकट नहीं होते। इसलिए वे पूतना राक्षसी के साथ युद्ध नहीं करते, बल्कि एक शिशु के रूप में अवतरित होते हैं तथा उसके प्रति मधुरता का प्रदर्शन करके उसके स्तन का दूध पीकर उसका वध कर देते हैं। यही श्रीकृष्ण-लीला की विचित्रता है। हम यह भी देखते हैं कि अपने मधुर रूप को संरक्षित रखते हुए भी श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को अपने बाएँ हाथ की छोटी अंगुली पर उठा लेते हैं। ऐसा कार्य करने के लिए वे कोई बहुत विशाल और बलशाली आकार नहीं ग्रहण करते । एक छोटे बालक के रूप में श्रीकृष्ण ने भयंकर कालिया नाग के हज़ारों फनों पर कूदकर उसका दमन किया था। भगवान् के और किसी रूप (अवतार) में आपको इस प्रकार की विचित्र लीलाएँ देखने को नहीं मिलेंगी।

श्रीकृष्ण के परिकर भी बहुत मधुर है। उनके सखा उनके कन्धों पर चढ़कर पेड़ों की सबसे ऊँची डालियों से फलों को तोड़ते हैं। फिर वह फल श्रीकृष्ण को देने के पहले वे स्वयं तसे चखकर देखते हैं कि यह फल श्रीकृष्ण के खाने लायक है या नहीं। ऐसा स्नेहो ऐसी घनिष्ठता व्रज में ऐश्वर्य का कोई स्थान नहीं है। वहाँ पर वे श्रीकृष्ण को अपना घनिष्ठ मित्र मानते हैं। श्रीकृष्ण के माता-पिता उन्हें अपने बच्चे की तरह प्यार करते हैं और श्रीकृष्ण की माता यशोदा देवी तो उन्हें अनुशासित करने का भी प्रयास करती हैं, ऐसा सोचकर कि अन्यथा कृष्ण का भविष्य ठीक नहीं होगा… | भगवान् का भविष्य ठीक नहीं होगा !! और नन्द महाराज बड़े स्नेह के साथ श्रीकृष्ण से कहते हैं, “ओ लाला, मेरी चरण पादुका ले आ।” यह क्या है? वे भगवान् को आदेश दे रहे हैं कि वे उनकी चरण पादुका ले आएँ!! अतएव श्रीकृष्ण दौड़कर उन चरण पादुकाओं को अपने मस्तक पर रखकर ले आते हैं। यह देखकर नन्द महाराज सोचते हैं कि उनका पुत्र बड़ा होकर बहुत ही अच्छा व्यक्ति बनेगा। श्रीकृष्ण और नन्द महाराज एक दूसरे की ओर दौड़कर गले लगते हैं।

जो भी हो, किन्तु हम श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के प्रेम की तुलना किसी से नहीं कर सकते। वह अतुलनीय है। और श्रीकृष्ण की वंशी ध्वनि ! जब गोपियाँ वंशी की ध्वनि सुनती हैं। तो वे सब काम छोड़कर और यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी छोड़कर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ पड़ती हैं। श्रीकृष्ण की वंशी-ध्वनि को सुनकर समस्त पहाड़ भी पिघल जाते हैं। इस ध्वनि को सुनकर यमुना नदी विपरीत दिशा में प्रवाहित होने लगती हैं। यह सबकुछ इतना सुन्दर है कि स्वयं श्रीकृष्ण भी अपनी सुन्दरता और प्रेम के प्रति आर्कषित हो जाते हैं। कोई भी उनके बराबर या उनसे श्रेष्ठ नहीं है।