श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने अपने शिक्षाष्टकम् में हमें सिखाया है—
न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ।।
“मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे जन या मुक्ति नहीं चाहिए और ना ही मुझे भौतिक ज्ञान चाहिए। कृपया मुझे अपने श्रीचरणकमल की ऐकान्तिक भक्ति प्रदान कीजिए। मुझे और कुछ नहीं चाहिए।” यदि हम इसके अलावा कुछ भी चाहेंगे तो स्वतः ही पछतावा होगा। जब हम साधुसंग अर्थात् सच्चे साधुओं की संगति प्राप्त करते हैं तब हम इस संसार के जन्म-मृत्यु के चक्र तथा तीन तापों से मुक्त हो जाते हैं। श्रीकृष्ण अपने निजजन को हमारा उद्धार करने के लिए भेजते हैं।
जब हम श्रीकृष्ण से जुड़ेंगे तो माया से हमारी मुक्ति हो जायगी। परन्तु श्रीकृष्ण हमसे बात नहीं करते; उनकी श्रीमूर्ति (श्रीविग्रह) मन्दिर में मौन खड़ी रहती है। उन्होंने अनेकों भक्तों में से शायद किसी से बात की होगी, पर वे मुझसे बात नहीं करते। दूसरी ओर मैं जानता हूँ कि मेरा शरीर नाशवान् है। और मैं यह भी जानता हूँ कि बाकी सब शरीर भी नाशवान् हैं, अस्थायी हैं और ये नहीं रहेंगे। यह जानने के पश्चात भी कि वे सब अस्थायी हैं, मैं उनसे विचारों का आदान-प्रदान करता हूँ। क्योंकि हम इस विश्व के जीवित प्राणियों के साथ वार्तालाप कर सकते हैं तथा विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं, इसलिए हम उनमें आसक्त हो जाते हैं तथा उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। पर श्रीकृष्ण तो वहाँ मौन होकर खड़े हैं, अतः हमारी उनमें आसक्ति कैसे होगी? यह हमारी समस्या है।
कपिल भगवान् ने इसका समाधान किया है। हो सकता है कि भगवान् की श्रीमूर्ति आपसे बात न कर रही हो, पर आप शुद्ध भक्तों को एवं साधुओं को देख सकते हैं, उनसे बात कर सकते हैं, उनके साथ विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
प्रसंगमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।
स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम्।।
-(41: 3/25/20)
यदि आप एक शुद्ध भक्त की संगति में हो तो आपका उद्धार हो जायगा। शुद्ध-भक्त सदा विश्व में परिभ्रमण करते रहते हैं।
अब साधु-संग करने के छः तरीके हैं। इसे श्रीरूप गोस्वामी जी ने अपने उपदेशामृत ग्रन्थ में बताया है—
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुंक्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ।।
जब हम किसी को प्रेम करते हैं तब हम क्या करते हैं? हम उसे कोई ऐसी वस्तु देते हैं जो हमें प्रिय हो और उसके बदले में जो प्राप्त होता है उसे हम स्वीकार करते हैं। यह लेन-देन है। हम उस व्यक्ति के लिए अपना हृदय खोलकर रख देते हैं तथा उसके हृदय के शब्दों को सुनते हैं। हम उसकी सेवा करते हैं, उसे विविध प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाते हैं और बदले में ऐसा ही कुछ स्वीकार करते हैं। यही तरीका है मित्रमंडली से सम्बन्ध बनाने का । अब यदि हम इसी प्रकार उन लोगों से सम्बन्ध जोड़ें जो बंधन में जकड़े हुए हैं (बद्ध जीव), तो हम सांसारिक वस्तुओं में आसक्त हो जायेंगे। परन्तु यदि हम साधुओं के साथ ऐसा आदान-प्रदान करेंगे तो यह श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की ओर ले जायगा। यदि हम साधु को संसार की कोई वस्तु देते हैं तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं और श्रीकृष्ण की सेवा में लगा देते हैं। तब इस प्रकार उसे पवित्र करने के पश्चात्, हमें वह प्रसाद रूप में वापिस दे देते हैं।
मेरे गुरुजी ने मुझे बताया था कि अगर तुम अन्य प्रयोजन के लिए प्राप्त, दान, का प्रयोग स्वयं के लिए करते हो तो तुम विष पान कर रहे हो। तुम सबकुछ गुरु और वैष्णवों को दे दो, उनके द्वारा वह विष नष्ट कर दिया जायगा। उनके पास वह शक्ति है क्योंकि उन्हें अपने वास्तविक स्वरूप की पुनः प्राप्ति हो चुकी है। हम नहीं जानते कि सब कुछ श्रीकृष्ण का है, पर वे जानते हैं।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने तपन मिश्र को यह निर्देश दिया कि श्रीसनातन गोस्वामी जी को एक वस्त्र दिया जाय। श्रीसनातन गोस्वामी जी ने महाप्रभु से कहा कि वे कोई नया वस्त्र नहीं स्वीकार करेंगे। बल्कि वे ऐसा वस्त्र लेना चाहते हैं जिसे पूर्व में किसी भक्त ने धारण किया हो, फिर वह प्रसादी होगा।
दूसरी बात हम भक्त के लिए अपना हृदय खुला रखेंगे — “गुह्यम आख्याति पृच्छति।” यदि हम अपना हृदय खुला नहीं रखेंगे तो साधु भी अपना हृदय नहीं खोलेंगे; वे भजन के रहस्यों को नहीं बतायेंगे। वे खुलकर तभी बोलते हैं जब वे उस व्यक्ति की परीक्षा कर लें तथा उसे उपयुक्त पायें । अतः हमें अपनी दुर्बलताओं के बारे में निर्भीक होकर स्पष्ट बात करनी चाहिए। इस प्रकार साधु के साथ हमारा हृदय से हृदय मिलाकर सम्बन्ध स्थापित हो जायगा ।
इसके बाद हमें साधु को बहुत भक्ति एवं प्रीति के साथ भोजन कराना चाहिए। शुद्ध-भक्त ऐसा देखते हैं कि केवल श्रीकृष्ण ही एकमात्र भोक्ता हैं तथा समस्त वस्तुएँ उनकी ही हैं। इस प्रकार वे (शुद्ध भक्त) सब कुछ श्रीकृष्ण की सेवा में अर्पित कर देते हैं तथा अर्पण के पश्चात् हमें प्रसाद देते हैं। यदि तुम ऐसां सोचकर प्रसाद को ग्रहण करोगे कि यह श्रीकृष्ण का शेषांश (दिव्य उच्चिष्ट) है तो माया के चंगुल से तुम्हारा उद्धार हो जायगा।
इसी प्रकार हमें साधुओं का संग करना चाहिए। यदि हम बद्ध-जीवों के साथ अर्थात् विश्व के सुशुप्त जीवों के साथ इस प्रकार आदान-प्रदान करेंगे तो हम उनमें आसक्त हो जायेंगे। इसलिए एक साधु के साथ ऐसे सम्बन्ध को विकसित करना कहीं बहुत अधिक लाभदायक है। परन्तु केवल एक साधु के शरीर के निकट रहने मात्र से ही उनका संग नहीं हो जाता। खटमल और मच्छर भी साधु के शरीर के सम्पर्क में रहते हैं। पर वे क्या करते हैं? वे खून चूसते हैं। इस प्रकार साधु का शोषण करने से उनका संग नहीं होता। आपको साधु की मानसिकता, उनके विचारों का अनुसरण करना होगा। साधु श्रीकृष्ण की सेवा के बारे में सोचता है तथा यदि हम उनका अनुसरण करते हैं तो हम उनका संग प्राप्त कर सकते हैं. भले ही हम उनसे हज़ारों मील दूर हों। दूसरी ओर बिना उस चेतना के भले ही हम शारीरिक रूप से उनके बहुत निकट हों, यहाँ तक कि उनके साथ एक ही बिस्तर पर सोते हों, पर हम कभी भी साधु का संग नहीं प्राप्त कर पाते। साधु केवल श्रीश्रीराधाकृष्ण की सेवा के लिए हैं; हमें उनके इस विचार का अनुसरण करना होगा। वास्तविक संग का अर्थ है सेवोन्मुखी होकर साधु के संसर्ग में रहना।
तब माता देवहुति ने पूछा, “आपने हमें साधुसंग करने का परामर्श दिया है। पर साधु कौन है? कृपया हमें उन गुणों के बारे में बताइये जिससे हम साधु को पहचान सके। कपिल भगवान् ने उत्तर दिया कि साधु के दो प्रकार के गुण होते हैं। यथा-स्खलक्षण तथा वट-लक्षण | प का अर्थ है मूल या वास्तविक लक्षण उस गुण को लक्ष्य करता है जिसके बिना कोई व्यक्ति सच्चा सा नहीं बन सकता। साधु का वास्तविक लक्षण यही है कि वह सभी कार्य केवल भगवान् की संतुष्टि के लिए करता है। जब यह गुण भक्त में विद्यमान रहता है, तब दूसरे गुण अर्थात् तटस्थ-लक्षण उसका अनुसरण करते हैं। ये गौण-लक्षण क्या हैं? भगवान् कपिल कहते हैं-
तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम्।
अजातशत्रवः शान्ताः साधवः साधुभूषणाः ।
भाग -3/25/21)
तितिक्षवः साधु सदैव सहनशील एवं दयालु होगा। क्यों? श्रीकृष्ण की सेवा के अलावा उसकी अन्य कोई इच्छा नहीं होती। यदि इस सेवा के अलावा आपकी कोई और इच्छा है तो आप सहनशील नहीं बन सकते। यही श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के शिक्षाष्टकम् के तीसरे श्लोक का अर्थ है-
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना ।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥
“हमें तृण से अधिक सुनीच होना चाहिए और वृक्ष से अधिक सहिष्णुः हमें सबका सम्मान करना चाहिए तथा किसी दूसरे से सम्मान की आशा नहीं करनी चाहिए यह इस श्लोक का सामान्य अर्थ है। श्रीश्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने कहा है कि जिन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है अर्थात् जिनका स्वरूप भ्रम है, ये तृण से अधिक दीन नहीं हो सकते; वे कभी भी हरि-कीर्तन नहीं कर सकते तथा भक्ति योग का पालन नहीं कर सकते। जिसकी अपने निज स्वरूप के प्रति भ्रान्त धारणा है, उसमें शरीर सम्बन्धि इच्छाएँ रहेंगी। उसकी कनक (धन की चाह, कामिनी (स्त्रीसंग का आकर्षण) और प्रतिष्ठा (नाम, सम्मान और यश) की इच्छा होगी। जब उसके भोग में बाधा उत्पन्न होगी तब वह क्रुद्ध को जायगा। वह असंतुलित व असहिष्णु हो जायगा। भले वह बाहरी तौर पर सम्मान व सहिष्णुता का दिखावा करेगा, पर यह पाखण्ड होगा। साधु बनना इतना आसान नहीं है। किसी व्यक्ति में इन गुणों का पाया जाना बहुत दुर्लभ है।
कारुणिकाः – साधु उदार होंगे, उनकी विश्व के सभी जीवों के प्रति अनुकम्पा की भावना होगी। साधु श्रीकृष्ण को देखता है और यह कि सबकुछ श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है। अतः वह विश्व के सभी प्राणियों को स्वाभाविक रूप से समान प्रीति करता है। अपनी योग्यता के अनुसार साधु, गुरु एवं वैष्णवों के व्यवहार में कुछ अन्तर देख सकता है, पर उनकी प्रीति सबके लिए एक समान होती है। वे जानते हैं कि हम भगवान् श्रीकृष्ण के साथ अपना सम्बन्ध भूल गए हैं और यही हमारे दुःखों का मूल कारण है। हम हमेशा सोये रहते हैं—शरीर का यह स्वाभाव है कि वह सुप्त अवस्था में रहता है, पर हमें इस आलस्य भाव के विरुद्ध लड़ना चाहिए अन्यथा हम सुष्ठु रूप से श्रीकृष्ण का भजन नहीं कर पायेंगे। भले ही हम पूरा दिन और पूरी रात सो जायें पर फिर भी हमें नींद आती रहेगी। देखिये गोस्वामियों ने किस प्रकार भजन किया। वे जानते थे कि यह नश्वर शरीर किसी भी समय छूट सकता है, इसलिए उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया कि, “हम अपना समय नष्ट क्यों करें?” श्रीकृष्ण का भजन करने का अर्थ है श्रीकृष्ण की कथा श्रवण करना। श्रीकृष्ण के विषय में श्रवण करना भक्ति है, श्रीकृष्ण के विषय में कथा करना भक्ति है। यही हमारा जीवन है। हमें अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए बल्कि बारम्बार यह सब बातें सुननी चाहिए।
कभी-कभी हम कहते हैं कि, “ओह, मैंने तो पहले से ही यह सब बातें सुन रखी हैं।” वास्तव में हमने कभी ठीक से सुना ही नहीं है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने प्रहलाद महाराज जी की कथा सौ बार सुनी थी और उसके बाद भी वे अपने पार्षदों को उसे पुनः सुनाने के लिए कहते थे। ऐसी कथाएँ भौतिक शब्दों से रचित नहीं होती, अतः वे कभी नीरस नहीं हो सकती। आप इनको श्रवण करके हर पल भक्ति रस का आस्वादन कर सकते हैं। इसलिए हमें अपनी सम्पूर्ण अज्ञानता को त्यागकर, एक पल समय व्यर्थ किये बिना कृष्ण-भजन प्रारम्भ कर देना चाहिए।
करौ हरेर्मन्दिरमार्जनादिषु श्रुतिं चकाराच्युतसत्कथोदये ।।
– (भाः 9/4/18)
एक भक्त अपने कानों को किसी शुद्ध-भक्त से श्रीकृष्ण का महिमा गुणगान श्रवण करने में लगाता है। ऐसा शुद्ध-भक्त जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन श्रीकृष्ण की सेवा के लिए समर्पित कर दिया है, वह ही श्रीकृष्ण का महिमा गुणगान कर सकता है। यही सत्कथा है। मंच पर भाषण देने वालों का अन्य उद्देश्य होता है। जब वे श्रीकृष्ण के विषय में बोलते हैं, तब उनका ध्येय धन, नाम और यश आदि प्राप्त करना होता है। वह हरिकथा नहीं है। हरिकथा केवल एक सच्चा साधु ही कह सकता है।
मुकुन्दलिंगालयदर्शने दृशौ तद्धृत्यगात्रस्पर्शेडंगसंगमम् ।
घ्राणं च तत्पादसरोजसौरभे श्रीमत्तुलस्या रसनां तदर्पिते ।।
– (माः 9/4/19)
मुकुन्दलिंगालयदर्शने दृशौ — जिस मन्दिर में भगवान् के श्रीविग्रहों की सेवा होती है साधु अपने नेत्रों को उस मंदिर तथा श्रीविग्रहों का दर्शन करने में लगाता है। वह अपने शरीर को भगवान् का श्रीविग्रह स्पर्श करने में लगाता है ताकि उत्तम भक्ति उसके भीतर प्रवेश कर सके। यदि उसे कोई सुन्दर सुगंधित पुष्प मिलता है तो वह स्वयं उसकी सुगन्ध नहीं लेता बल्कि सर्वप्रथम भगवान् को अर्पण करता है तथा बाद में उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है।
पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे — साधु अपने चरणों को भगवान् के अप्राकृत तीर्थों की परिक्रमा करके तथा भगवत् पूजा सामग्री एकत्रित करके श्रीकृष्ण की सेवा में लगाता है। इस प्रकार हमें अपनी सभी इन्द्रियों को श्रीकृष्ण-सेवा में लगाना चाहिए।”
हम अपनी व्यक्तिगत क्षमता के अनुरूप इसे समझ सकते हैं। एक शुद्ध-भक्त श्रीकृष्ण का साक्षात् दर्शन करता है; वह श्रीकृष्ण से बात करता है। श्रीकृष्ण भी उसके साथ चलते हैं, पर हमारे साथ नहीं क्योंकि हमने इस शरीर के साथ कुछ सम्बन्ध बनाकर रखा हुआ है तथा शरीर में आसक्ति भी है।
हम इसे नहीं देख सकते क्योंकि हमारे नेत्र (दृष्टि) शुद्ध नहीं है। हमे ऐसे प्रेम-नेत्रों की आवश्यकता है, जो अप्राकृत प्रेम के द्वारा शीतल हो चुके है। हम श्रीकृष्ण का दर्शन केवल भक्ति-नेत्रों के द्वारा ही कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण का दर्शन करना इतना सहज नहीं है क्योंकि उन्हें हम केवल भक्ति-नेत्रों से ही देख सकते है। हमारे अन्दर भोग करने की वासना है, हम काम-वासना से परिपूर्ण है। जब यह भोग-वासना हमे इन्द्रिय-तृप्ति के लिए लालायित करती है, तब हम भौतिक पदार्थों के सम्पर्क में आते हैं। इस प्रकार हम मृत्यु के कारागार में लाखों वर्षों से कैद हैं। यही हमारी विरासत है। तथापि जब हमारे नेत्र केवल श्रीकृष्ण के लिए होंगे, तब श्रीकृष्ण प्रकट हो जायेंगे। अतः शुद्ध-भक्त उत्तम-भक्त सभी जगह श्रीकृष्ण का ही दर्शन करते हैं। और वे केवल प्रसाद ग्रहण करते हैं। वे ऐसा कुछ भी नहीं ग्रहण करते जो श्रीकृष्ण को अर्पण नहीं किया जा सकता। वे हमेशा श्रीकृष्ण के बारे में सोचते हैं। भगवान् के शुद्ध-भक्त केवल उनका स्मरण एवं कीर्तन ही पसन्द करते हैं। दिन-रात वे भक्तों के मुख-कमल से श्रीकृष्ण के अप्राकृत नाम, रूप, गुण तथा लीलाकथा श्रवण करते हैं।
हमें दूसरों के दोष नहीं देखने चाहिए। यदि हम हालात में सुधार लाना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अपनी कमियों (दोषों) को देखना चाहिए। एक वास्तव वैष्णव या भक्त एक हंस की भाँति है। हंस के पास यह क्षमता होती है कि वह दूध और पानी के मिश्रण में से दूध निकाल ले। वैष्णव परमहंस होते हैं। वे दूसरे के अच्छे गुणों को देखते हैं. बुरे गुणों को नहीं। सभी सुप्त बद्ध-जीवों में अच्छे व बुरे दोनों गुण होते हैं। केवल आत्म-अनुभूति-प्राप्त (सिद्ध) जीवों में कोई दुर्गुण नहीं होता। इसके बावजूद वे दूसरे के सद्गुणों को देखते हैं तथा दुर्गुणों की उपेक्षा करते हैं। हम बद्ध जीव, दुर्गुण देखते हैं व सद्गुणों को नकार देते हैं। यही एक कारण है कि हम बंधन में हैं। यदि हम इस बंधन की अवस्था से जाग्रत (मुक्त) होना चाहते हैं तो हमें अपने अन्दर सुधार लाने की आवश्यकता है। जो गुरु-वैष्णव अपने शिष्यों से प्रीति करते हैं, वे उनके हित के लिए कभी-कभी उनमें संशोधन करते हैं। वे उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं या दण्ड दे सकते हैं पर साधक के प्रति उस प्रकार का शासन या कड़े शब्दों का प्रयोग, गुरु-वैष्णवों की अपनी काम-वासना की पूर्ति में बाधा की प्रतिक्रिया नहीं होती। शुद्ध-भक्तों में काम (अहं) नहीं होता। अतः यदि संयोगवश वे शासन करते हैं तो वह प्रीतिवश होता है।
कुछ लोग अपना गुस्सा साधु पर उतारते हैं, पर हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। साधु की निन्दा करना एक घोर अपराध है तथा हमारे पारमार्थिक मंगल के लिए हानिकारक है। ऐसे अपराधों को रोकने के लिए शुद्ध-भक्त अपना क्रोध व्यक्त कर सकते हैं। पर ऐसा वे उस अपराधी के पारमार्थिक मंगल (उत्थान) के लिए करते हैं, न कि अपने व्यक्गित अहं की तुष्टि के लिए। किन्तु इस प्रकार हर व्यक्ति को क्रोध प्रदर्शित करने का अधिकार नहीं है। जो शुद्ध-भक्त या सद्गुरु जीवों से प्रीति करते हैं, उन्हें ही ऐसा करने का अधिकार है। वे दण्ड दे सकते हैं क्योंकि वे दूसरों का वास्तविक मंगल कर सकते हैं। हमें उनकी कृपा की आवश्यकता है। बिना श्रीहरि की कृपा के हम साधु से नहीं मिल सकते तथा बिना साधु की कृपा के हम श्रीहरि को नहीं प्राप्त कर सकते। यदि आप श्रीकृष्ण-सेवा-प्राप्ति के लिए बहुत उत्सुक हैं तो श्रीकृष्ण साधु के रूप में आपके पास आ जायेंगे। जब आपकी श्रीकृष्ण-सेवा करने की सच्ची इच्छा होगी तब आपको यह पहचानने की शक्ति मिल जायगी कि वास्तव में कौन साधु है और कौन नहीं। भगवान् आपके अन्दर बैठे हैं और वे आपको सच्चे साधु की खोज करने में सहायता करेंगे। वे आपको श्रद्धा-विश्वास तथा समझने की शक्ति प्रदान करेंगे। एक निष्कपट जीव के साथ कभी धोखा नहीं होगा।