श्रीमद्भागवत में भक्ति-साधन के विविध अंगों का वर्णन किया गया है। सामान्य रूप से दो प्रकार के साधन होते हैं, जिनके अनुसार हम भक्ति का अभ्यास कर सकते हैं— ‘वैधि-भक्ति’ और ‘रागानुगा भक्ति’ । विधि का अर्थ है नियम या कानून । जिन्हें श्रीकृष्ण से स्वाभाविक प्रेम नहीं है उनके लिए वैधि-भक्ति ही उपयुक्त है। ऐसे बहुत-से बद्ध जीव हैं जिन्हें श्रीकृष्ण की आराधना में कोई रूचि नहीं है, क्योंकि उन्हें भगवान् के साथ कोई सम्बन्ध अनुभव नहीं हुआ है। जब किसी के साथ हमारा सम्बन्ध होता है तो स्वाभाविक रूप में ही उस व्यक्ति की सेवा या उससे प्रीति करने की इच्छा होती है। माता-पिता को अपने बच्चों से प्यार करने की शिक्षा नहीं देनी पड़ती। उनमें वह प्रवृत्ति उनके स्वाभाविक रिश्ते की वजह से होती ही है। चूँकि हममें से बहुत कम लोगों को भगवान् से ऐसे सम्बन्ध की अनुभूति होती है, इसलिए विधि की व्यवस्था है। हमें बताया जाता है कि ‘वे भगवान् हैं, वे ही सृष्टि एवं पालन-पोषण करने वाले हैं। उनकी आराधना करना हमारा कर्तव्य है।” हममें से अधिकांश की भक्ति के प्रति कोई स्वाभाविक प्रीति नहीं होती, पर हम भक्ति का अभ्यास इसलिए करते हैं क्योंकि ऐसा शास्त्रों का आदेश है। अतः साधारण साधकों के लिए ‘वैधि-भक्ति’ की व्यवस्था है।
रागानुगा का अर्थ है स्वाभाविक आकर्षण। जिन भक्तों में श्रीकृष्ण के लिए आकर्षण अंतर्जात (नैसर्गिक) होता है, उन्हें रागात्मिक-भक्त कहते हैं। वे भगवान् श्रीकृष्ण के नित्य पार्षद होते हैं। कोई भी बद्ध-जीव कभी रागात्मिक नहीं बन सकता। पर बद्ध-जीव के रूप में हमारा रागानुगा-भक्ति के साथ सम्बन्ध हो सकता है। रागानुगा भक्तों का भी श्रीकृष्ण के लिए स्वाभाविक प्रेम होता है, पर इसकी प्राप्ति उन्हें साधन के द्वारा होती है। यदि हम उनका संग कर सकें तो शायद हमारा भी श्रीकृष्ण के लिए तीव्र एवं स्वाभाविक प्रेम स्वतः उत्पन्न हो जायगा। परन्तु ऐसा होना बहुत दुर्लभ है।
हम मन्दिर में श्रीराधाकृष्ण के विग्रहों की सेवा अनेक नियम व विधियों के अनुसार करते हैं, शास्त्रों के आदेश अनुसार हमारी प्रीति सीमित है। वास्तव में केवल राधा और कृष्ण ही स्वाभाविक प्रेम के सम्भावित लक्ष्य हैं। श्रीकृष्ण के अप्राकृत राज्य वृन्दावन के निवासी, ‘व्रजवासी’, सोचते हैं कि श्रीकृष्ण उनके अधीन हैं। स्वाभाविक भक्ति की पराकाष्ठा श्रीकृष्ण की नित्य-संगिनी श्रीमति राधारानी एवं उनकी अपनी सखियों अर्थात् गोपियों में देखी जाती है। यदि हम राधारानी के अनुगत सखियों एवं मंजरियों से मंत्र ग्रहण करते है तो वह मंत्र हमें उन्हीं (सन्झी और मंजारी) के सेवारस में श्रीश्रीकृष्ण तक ले जाना। चूंकि इस समय हमने केवल सावन प्रारम्भ किया है इसलिए ऐसी अनुभूति नहीं होगी। का हम देहि-भक्ति चालन करने योग्य हैं, किन्तु ततः यदि हम साधन करते रहेंगे तो अंतरंग नाव से श्रीराधाकृष्ण की सेवा करने की इच्छा हृदय-गुहा से स्वतः जालात होगी। तानुभक्त भी वैधि-भक्ति के अंगों का पालन करते हैं. पर प्रीति के साथ। अगर हम निष्कपट होकर अभ्यास करें, तो अतः सेवा की ऐसी तीव्र इच्छा स्वतः ही हृदय से उत्पन्न होगी। हमें धैर्य धारण करना होगा और वैधिभक्ति के नियमों का पालन करते हुए अभ्यास जारी रखना है।
विभक्ति के मूल 64 अंग हैं। इनमें से 9 मक्ति अंगों श्री श्रीमद्भागवत (7/5/23-24) में अति आवश्यक बताया गया है—
श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्न निवेदनम् ।।
हमें श्रीकृष्ण के विषय में श्रवण करना चाहिए। और श्रवण के बाद श्रीकृष्ण का कीर्तन करना चाहिए। हमें उनके अप्राकृत नाम, रूप, गुण व लीला के सम्बन्ध में जानना चाहिए। इनके बारे में जानने के बाद हम इनका गुणगान कर सकते हैं। पर सबसे पहले हमें उनके पास जाना चाहिए जिन्हें यह ज्ञान परम्परा से प्राप्त हुआ है। उनसे श्रवण करने पर, वे अप्राकृत शब्द हमारे कानों के माध्यम से प्रवेश करेंगे और हमारे वास्तव स्वरूप को स्पर्श करके जाग्रत करेंगे। केवल यही एक मार्ग है। हमें एक जागरूक जीव से श्रवण करना चाहिए, न कि एक पेशेवर वक्ता से श्रवण करने के बाद हमें कीर्तन करना चाहिए। साधन के और भी अंग हैं, जैसे स्मरण। एक भक्त अपनी समस्त इन्द्रियों को श्रीकृष्ण की सेवा में नियुक्त कर देता है।
श्रवणादि क्रिया तार ‘स्वरूप’-लक्षण।
‘तटस्थ’ लक्षणे उपजय प्रेमधन ।।
— (थे. च. मध्य 22/103)
स्वरूप लक्षण का अर्थ है शुद्ध-भक्त का मूल वैशिष्ट्य । एक शुद्ध भक्त सदा श्रीकृष्ण के बारे में ही बोलेगा तथा श्रीकृष्ण के बारे में ही सुनेगा। जिस प्रकार मछली एवं अन्य जलीय प्राणी पानी के बिना जीवित नहीं रह सकते, उसी प्रकार शुद्ध भक्त भी श्रीकृष्ण के बारे में बोले या श्रवण किये बिना जीवित नहीं रह सकते। यही उनका जीवन है। जब हम एक शुद्ध भक्त के साथ श्रवण व कीर्तन में नियुक्त होंगे तो आनुषंगिक रूप में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होगा। यह प्रेम प्रत्येक प्राणी की प्रकृति में स्वभाविक रूप से विद्यमान रहता है। हम उसे तपस्या और योग के द्वारा जाग्रत नहीं कर सकते, किन्तु आत्मा का यह नित्य स्वभाव स्वतः जाग्रत हो जायगा अगर हम शुद्ध भक्तों का संग करेंगे।
श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने भक्ति में पाँच मुख्य अंगो को स्वीकार किया है— (1) भागवत श्रवण, (2) मथुरा-वास, (3) श्रीमूर्ति सेवन, (4) साधुसंग, एवं (5) नाम कीर्त्तन ।
हमें श्रीमद्भागवत में वर्णित भगवान् की अप्राकृत कथाओं को श्रवण करना चाहिए। हमें यह कथाएँ शुद्ध भक्तों से श्रवण करनी चाहिए और इस प्रकार उनका संग (साधुसंग) करना चाहिए, तथा हमें मथुरा या वृन्दावन जैसे पवित्र स्थानों में निवास करना चाहिए, जहाँ श्रीकृष्ण ने अपनी भौम-लीला का विस्तार किया। हमें अप्राकृत राज्य में वास करना है। जिस स्थान पर भक्तगण भगवान् का महिमा गुणगान करते हैं, उसे भी अप्राकृत राज्य माना जाता है। और हमें पूरी श्रद्धा के साथ श्रीकृष्ण के श्रीमूर्ति रूप (श्रीविग्रह) की सेवा करनी चाहिए। तथापि भक्ति के इन प्रमुख अंगों में नाम-कीर्तन को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है।
अपराध-रहित होकर श्रीकृष्ण के पवित्र नामों का कीर्तन करने से सब प्रकार के दुःख तुरन्त दूर हो जाते हैं और जीवन के चरम लक्ष्य कृष्णप्रेम की प्राप्ति होती है। अब हम इन पाँच प्रमुख भक्ति-अंगों की और विस्तार से चर्चा करेंगे।