ॐ विष्णुपाद श्रील गौरकिशोर दास गोस्वामी महाराज फरीदपुर जिला के अन्तर्गत टेपाखोला- नामक स्थान के पास पद्मा नदी के तट पर ‘वाग्यान’ नामक गाँव में सन् 1837 में, किसी वैश्यकुल में आविर्भूत हुए थे। इनके पिताजी ने इनका नाम रखा था ‘वंशीदास’। ये माता-पिता के आग्रह पर बचपन में ही विवाह कर, 29 वर्ष की आयु तक घर में रहे। ये गृहस्थाश्रम में रहते समय अनाज की आढ़त (दलाली) का कारोबार करते थे। पत्नी वियोग (मृत्यु) के बाद इन्होंने व्यवसाय बन्द करके वैष्णव- सार्वभौम ॐ विष्णुपाद श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज जी के वेष-शिष्य श्रीमद् भागवत दास बाबाजी महाशय से कौपीन (बाबाजी वेष) ग्रहण किया। वेष – ग्रहण के बाद प्राय 30 वर्षों तक श्रीब्रजमण्डल के विभिन्न ग्रामों में वास कर निरन्तर कृष्ण भजन किया। बीच-बीच में उन्होंने उत्तर भारत और गौड़ मण्डल के तीर्थस्थानों का भी परिभ्रमण किया था। श्रीक्षेत्र (जगन्नाथ पुरी) में श्रीस्वरूपदास बाबाजी, कालना में श्रीभगवान दास बाबाजी और कुलिया में श्रीचैतन्यदास बाबाजी महाराज जी के साथ उनका साक्षात्कार (मिलन) हुआ। इसके अलावा ब्रजमण्डल के महापुरुष और ‘भजनानन्दी’ नाम से परिचित उस समय के सभी प्रसिद्ध व्यक्तियों के साथ उनका विशेष परिचय था। परिचित होने पर भी उन्होंने किसी व्यक्ति के भी किसी प्रकार की छिपी हुई विषय चेष्टा का बिन्दुमात्र भी अनुमोदन नहीं किया। स्वयं अन्दर से सम्पूर्ण भाव से अलग होकर और उस प्रकार के व्यक्यिों का संग छोड़ एकान्त शुद्ध-भजन में निविष्ट रहते थे।

जिस वर्ष श्रीमहाप्रभु जी श्रीधाम मायापुर में योगपीठ में प्रकाशित हुए थे, उसी वर्ष अर्थात् 1300 बंगाब्द (सन् 1893) के फाल्गुन मास में श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी ने श्रील जगन्नाथ दास बाबाजी महाराज जी के आदेशानुसार व्रजमण्डल से गौड़मण्डल में आगमन किया एवं तब से (अप्रकट) शरीर छोड़ने तक नवद्वीप की विभिन्न पल्लियों पर उन्होंने वृन्दावन से अभिन्न भाव से वास किया। वहाँ के गृहस्थ लोगों को ‘वे धामवासी हैं’ इस दर्शन से उन लोगों के घरों से सूखी वस्तुएँ भिक्षा में ले आते और उन्हें अपने हाथों से रसोई कर भगवान को नैवेद्य अर्पण करते थे। वे किसी रास्ते से सूखी लकड़ी संग्रह कर, उसके द्वारा रसोई बनाने का कार्य पूरा करते थे। ग्रहण आदि के उपलक्ष में जिन सब व्यवहार हुये मिट्टी के बर्तनों को लोग रास्ते पर फेंक देते थे, वे उन सभी को गंगाजल से धोकर रसोई आदि बनाने के लिए व्यवहार करते थे। दाह-क्रिया के लिए गंगा के किनारे पर लाये गये शवों पर से जो वस्त्रादि गंगा जी में फेंक दिये जाते थे, वे उन्हें गंगाजल से धोकर उससे शरीर – आच्छादन (ढ़कने) का कार्य करते थे अर्थात् दूसरे से किसी वस्तु की अपेक्षा रहित होकर, दूसरों के द्वारा फेंकी गई और अप्रयोजनीय वस्तुओं के द्वारा वे अपने व्यवहारिक कार्य सम्पन्न करते थे। ‘निरपेक्ष’ शब्द का प्रकृत तात्पर्य पूर्ण मात्रा में उनके आचरण में परिदृष्ट होता था इसलिए ठाकुर भक्तिविनोद कई बार श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी के असामान्य वैराग्य, शुद्ध भक्ति और भगवद् – अनुराग की कथा आलोचना करते थे। ये बीच-बीच में श्रीमद् भक्तिविनोद ठाकुर जी के पास नवद्वीप के अन्तर्गत गोद्रुम के स्वानन्द सुखद – कुंज में आते थे। वे श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी से श्रीमद् भागवत – श्रवण और भक्ति-सिद्धान्त की आलोचना करने में विशेष उत्साहित रहते थे।

उनके गले में तुलसी की माला, हाथ में संख्यापूर्वक नाम ग्रहण के लिए तुलसी की माला एवं श्रील नरोत्तम ठाकुर महाशय जी की ‘प्रार्थना’ और ‘प्रेम भक्ति चन्द्रिका’ इत्यादि बंगला भाषा में लिखे कुछ ग्रन्थ ही उनके सर्वस्व थे। और फिर कभी-कभी उनके गलदेश में कोई माला भी नहीं, हाथ में संख्या करने की तुलसी माला के बजाय फटे हुए वस्त्रों की गूंथी माला, कौपीन रहित, दिगम्बर, अकारण विरक्ति और तीखे वाक्य इत्यादि अनेकानेक दृश्य उनमें देखे जाते थे। संस्कृत भाषा में पाण्डित्य (ज्ञान), बाहरी दृष्टि से उनमें दृष्टिगोचर नहीं होने पर भी, शास्त्रों का समस्त तात्पर्य और सिद्धान्त उनके हृदय में और वास्तव आचरण में स्पष्ट रूप से प्रकाशित था। किसी को कभी उनकी सेवा परिचर्या करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। वे किसी से भी, किसी प्रकार की भी सेवा ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं थे। उनके सच्चे अतिमर्त्य आदर्श वैराग्य का दर्शन कर श्रील रघुनाथदास गोस्वामी प्रभु की कथा याद आ जाती है। कृष्ण से सम्बन्धहित विषयों के प्रति विरक्ति को जो ‘वैराग्य’ कहा जाता है, वह ‘वैराग्य’, उनका आश्रय प्राप्त कर धन्य हो गया था।

उनके श्रीपादपद्मों के पीछे ‘सर्वज्ञता’ आदि विभूतियाँ निरन्तर हाथ जोड़कर प्रतीक्षा करती थीं। वे सभी कपटी व्यक्तियों के हृदय की बातों को बता सकते थे। बहुत दूर अवस्थित होने पर भी वहाँ किस समय, कौनसा कपटी व्यक्ति हरिसेवा और भगवान हरि के कार्य के नाम पर भोग कार्य में रत है, वे उसे अतिसूक्ष्म रूप से, अन्तर्यामी – सूत्र से जान लेते थे एवं सभी व्यक्तियों को बताकर उन्हें कपटता से बचने का सुयोग प्रदान करते थे। किन्तु यह सर्वज्ञता उनके श्रीपादपद्म का सर्वश्रेष्ठ गुण नहीं था। उन्होंने जगत में कृष्ण – भजन का जो सर्वोत्तम आदर्श और कृष्ण प्रेम का जो विप्रलम्भ(विरह-युक्त) स्वरूप प्रकाशित किया, उसी ने उनके श्रीचरणों की नित्य शोभा का विस्तार किया।