निष्किंचन – वैष्णव – जगत के सम्राट, ॐ विष्णुपाद श्री श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जी की अतिमर्त्य अननुकरणीय, विशुद्ध चिन्मय चरित-कथा को जगत्गुरु श्रीगौरकिशोर – प्रेष्ठ, ॐ विष्णुपाद श्री श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद की वाणी और साहित्त्य से उपलब्ध हुआ है। जगद्गुरु श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद जी ने, सन् 1916 में, अपनी ‘सज्जनतोषणी’ पत्रिका के 19वें खण्ड की पंचम और षष्ठ संख्या में, ‘मेरे प्रभु की कथा’ नामक कुछ लेखों में श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के अतिमर्त्य चरित – प्रसंग की आलोचना की थी। साधारण लौकिक साहित्यकार और लेखक जिस प्रकार से महापुरुषों और अपने गुरु एवं आचार्यों के चरित को व्यक्त करते हैं, श्रील सरस्वती ठाकुर की वर्णन प्रणाली ने उससे कुछ अलग वैशिष्ट्य और स्वतन्त्रता संरक्षण कर श्रीगुरु और अतिमर्त्य महापुरुषों के चरित्रों के सामने जाने का तरीका प्रदर्शन किया है हम लोग किस प्रकार सम्भोग मद से अहंकारी होकर और आध्यक्षिकत्ता से पूर्ण चित्तवृत्ति लेकर गुरु और महापुरुषों के निकट जाने का अभिनय मात्र करते हैं, उसका विश्लेषण कर दिखाने के लिए ही श्रील प्रभुपाद ने अपने गुरुदेव की कथा की भूमिका में दीनतापूर्वक कहा है —

“अपने अभाव की पूर्ति के लिए ब्रह्मलोक तक अनेक विषयों को प्राप्त करने में ही में व्यस्त था। सोचता था कि विषय को प्राप्त करके ही हमारा अभाव दूर होगा। कई बार अनेक दुर्लभ वस्तुओं को प्राप्त किया; किन्तु मेरा अभाव दूर नहीं हुआ। जगत में कई महान चरित्र वाले व्यक्तियों से मिला; किन्तु उनकी विभिन्न कमियाँ देखकर उन्हें सम्मान नहीं दे पाया। इस प्रकार के बुरे दिनों में मेरी शोचनीय अवस्था देखकर परम कारुणिक श्रीगौरसुन्दर ने अपने दो सबसे प्रिय पार्षदों को मुझ पर प्रसन्न होने की अनुमति प्रदान की। में जागतिक अहंकार में प्रमत्त होकर अपनी जड़ीय प्रशंसा करते हुए अपने यथार्थ मंगल को ही भूल गया था। किन्तु पूर्व सुकृतियों के प्रभाव से मेरे मंगलमय शुभाकाक्षि रूप में श्रीठाकुर भक्तिविनोद को प्राप्त किया। उनके ही पास मेरे प्रभु कई बार शुभागमन करते थे एवं कई बार उनके पास रहते थे। श्रीमद् भक्तिविनोद ठाकुर ने दया करके मुझे मेरे प्रभु के दर्शन करवा दिए। प्रभु को देखते ही मेरा पार्थिव (जागतिक) अहंकार चूर हो गया। में समझता था कि नर – आकार धारण कर सभी मेरी तरह हेय और अधम हैं, किन्तु अपने प्रभु के अलौकिक चरित्र का दर्शन कर में क्रमशः यह जान पाया कि आदर्श-वैष्णव इस जगत में रह सकते हैं।”