राम जी के अयोध्या वापस आगमन के बाद जब तीसरी बाद अश्वमेध यज्ञ का आयोजन हुआ उसमें में सबको आमंत्रित किया गया। महर्षि वाल्मीकि के साथ लव, कुश भी आए। लव-कुश से रामायण सुनकर राम जी को विश्वास हुआ कि यह हमारे पुत्र हैं। ऐसी बात कोई अन्य नहीं कह सकता। उसके बाद सीता देवी को वहाँ बुलाया गया। रामजी ने प्रजा को संतुष्ट करने के लिए उन्हें पुनः परीक्षा देने के लिए कहा। जब तीसरी बार परीक्षा करने के लिए कहा तब सीता देवी ने कहा कि पहले दो बार परीक्षा की, फिर भी सन्देह है? तब सीता देवी ने सबको सुनाते हुए कहा कि मैंने अपने मन में राम जी को छोड़कर अन्य किसी भी चिन्ता नहीं की। हे पृथ्वी देवी! यदि मेरी इंद्रियों ने सब समय राम जी की सेवा की है तथा इसके अतिरिक्त अन्य किसी की सेवा नहीं तब तुम दो भाग हो जाओ। तब पृथ्वी दो भाग हो गई। स्वयं पृथ्वी देवी एक सिंहासन पर बैठकर आईं तथा सीता देवी को लेकर रसातल में चली गईं। सभी प्रजाजन ‘धन्य! धन्य!’ करने लगे। तब रामजी ने क्या किया? राम जी दण्ड का आश्रय लेकर सीता जी के विरह में रोने लगे। उन्हें सीतादेवी पर कोई सन्देह नहीं था। उन्होंने नीति की प्रत्येक लीला की, प्रजा को सुख देने के लिए अपने ऊपर कष्ट उठाया। इसे चिन्ता करना भी मुश्किल है।
जब अश्वमेध यज्ञ के समय रामचन्द्र जी को दूसरे विवाह के लिए परामर्श दिया गया तब उन्होंने इसे अस्वीकार किया तथा सीता देवी की स्वर्ण मूर्ति बनवाकर उसके साथ बैठकर यज्ञ किया। यदि सन्देह होता तो स्वर्ण मूर्ति बनवाते? यदि प्रेम न होता तो ऐसा क्यों करते? सीतादेवी ने इस प्रकार रामचंद्र की सेवा की, इस प्रकार सती-सावित्री स्त्री हैं सीतादेवी। हमारे लिए चिन्ता करना भी मुश्किल है।
२२ अप्रैल २००७ @ कोलकाता