एक समय, श्रीमद् भक्ति प्रसून मधुसूदन महाराज श्रील गुरुदेव के दर्शन के लिए कोलकाता आए। वे मुझे बहुत स्नेह करते हैं। इसलिए एक दिन दर्शन के समय, उन्होंने मेरी ओर इंगित करते हुए श्रील गुरुदेव से कहा, “गुरुजी! कृपया आप इन पर अपनी विशेष कृपा बनाए रखें। ये उच्च शिक्षित और बहुत निष्ठावान व्यक्ति हैं। और आपकी सेवा के लिए अच्छी नौकरी छोड़कर आए हैं। कृपया आप इन पर आशीर्वाद करें ताकि ये आपकी सेवा में बने रहें।”
श्रील गुरुदेव मुस्कुराए और तुरंत इन शब्दों के द्वारा मुझे आशीर्वाद दिया, “श्रीसनातन गोस्वामी और श्रीरूप गोस्वामी के पावन जीवन चरित्र हमें पढ़ने चाहिए। उन्होंने श्रीचैतन्य महाप्रभु की सेवा के लिए अपना धन-ऐश्वर्य और अपने उच्च पद तक को भी त्याग दिया। तथापि उनमें किसी प्रकार का कोई जागतिक अभिमान नहीं था। अत्यधिक दीनता के साथ भिक्षा पर निर्वाह करते हुए उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को भगवान् की सेवा में नियोजित किया। उनके पास आश्रय के लिए कोई घर नहीं था, और ना ही पहनने के लिए कोई अच्छे वस्त्र। वे केवल एक लंगोट पहनकर रहते थे। इससे बड़ा त्याग क्या हो सकता है? इस आदर्श की तुलना में हमारा वैराग्य और समर्पण कुछ भी नहीं है।”
इससे पहले कई अवसरों पर श्रील गुरुदेव ने मुझे- ‘आप इस सेवा को करने में सक्षम हैं,’ अथवा ‘आप में यह योग्यता है,’ – ऐसे कहकर मेरा उत्साह-वर्धन किया था। कदाचित इसलिए कि मुझे मठ में रहकर उत्साह के साथ अपने भजन को जारी रखने के लिए अपने छोटे-छोटे सेवा-कार्यों में प्रोत्साहन और सम्मान की आवश्यकता थी। किन्तु उचित समय आने पर उन्होंने मुझे उपरोक्त उत्तम शिक्षा देकर उचित औषधि दी। साधकों के जागतिक अभिमान को समय-समय पर नियंत्रित नहीं करने से उनका भजन-मार्ग से विचलित हो जाना अवश्यम्भावी है। इसलिए श्रील गुरुदेव अपनी अत्यंत मधुर शैली से साधकों के जागतिक अभिमान को चूर कर देते थे। वे एक ऐसे निपुण चिकित्सक हैं, जो पात्र की क्षमता और उसके रोग की मात्रा के अनुसार सही समय पर उचित औषधि देते हैं।
श्रील गुरुदेव के इस स्नेह भरे आशीर्वाद ने मुझे यह अनुभव करवाया कि चिन्मय वस्तु की प्राप्ति की ओर मेरी यात्रा तो अभी मात्र आरम्भ ही हुई है, और उस गंतव्य स्थान तक पहुँचने के लिए मुझे अभी अनेकों सीढियाँ चढ़नी होगी। उनके इस सन्देश से मुझे यह समझ में आया, ‘हमारी अज्ञानता के कारण ही हमारे अंदर ऐसा जागतिक अभिमान उत्पन्न होता है कि मैंने भगवान् या गुरु की सेवा के लिए बहुत कुछ त्याग किया है। यह हमारी इस जड़ संसार में बद्धता और उसके फलस्वरूप, उस चिन्मय धाम में प्रवेश करने की हमारी अयोग्यता को ही दर्शाता है। श्रेष्ठ-संग के द्वारा ही हम इस दुरावस्था से मुक्त हो सकते हैं। इसलिए, हमें गोस्वामियों के पावन जीवन चरित्र को बार-बार श्रवण और अध्ययन करना चाहिए। हम अपने छोटे-छोटे त्याग या सेवा-कार्यों के द्वारा भगवान् या श्रीगुरु पर कोई उपकार नहीं कर रहे हैं। किन्तु यदि हम अपने मन, शरीर और इंद्रियों को भगवान् और उनके पार्षदों की सेवा में नियोजित कर सकें, तो हमारे कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। उन्हें हमारी सेवा की आवश्यकता नहीं है किन्तु हमें अपने कल्याण के लिए उनकी सेवा में अपने आपको लगाना अत्यावश्यक है।’
सन् १९४७ में ब्रिटिश शासन काल में, जब हाई स्कूल में प्रवेश करना भी एक दुर्गम स्वप्न था, उस समय श्रील गुरुदेव M. A. में स्वर्ण-पदक से पुरस्कृत (gold medalist) थे। उनके पास एक ऐसी सम्मान-जनक सरकारी नौकरी भी थी, जिसकी उन दिनों में कई लोग केवल कल्पना ही कर सकते थे। किन्तु उन सबको सम्पूर्ण रूप से त्यागकर अनन्य भाव से अपने गुरुदेव के चरण-कमलों में समर्पित होने में उन्होंने एक क्षण का भी विलंब नहीं किया। अपने त्याग पर उनको कभी भी अभिमान करते हुए नहीं देखा गया और ना ही उन्होंने कभी इन सांसारिक योग्यताओं के कारण उनके सेवा-भाव में कोई शिथिलता आने दी। बल्कि, नाना प्रकार के सेवा कार्यों में उनकी उत्तम योग्यता होते हुए भी, दीनता, सरलता और सबका सम्मान करने जैसे असाधारण गुण उनमें स्पष्ट रूप से दिखाई देते थे। उनका आदर्शमय जीवन चरित्र सच्चे साधकों के लिए अपने आप में ही एक उत्तम शिक्षा है।
बद्ध जीवों के लिए सांसारिक जीवन त्याग कर मठ में प्रवेश करना बहुत कठिन है, पर मठ की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों को सहन करते हुए लम्बे समय
तक सेवा में रत रहना, इससे कई गुना अधिक कठिन है। साधकों के बीच भक्ति-सिद्धांतों को समझने में, तथा विचारों, संस्कारों और मानसिक-वृत्तियों के भेद के कारण उनके लिए परिस्थितियों के साथ समायोजित (adjust) होकर एक सर्वोत्तम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मठ में रह पाना अत्यंत कठिन हो जाता है। जब साधकों के व्यक्तिगत अहंकार का टकराव होता है, तब उनका आपस में समन्वय साध पाना बहुत ही दुष्कर हो जाता है। किन्तु श्रील गुरुदेव का विशेष स्नेह, मधुर मनमोहक शब्द, प्रीतियुक्त स्मित एवं उचित समय पर उचित शिक्षा ने सब के हृदय को आकर्षित कर मठ की सेवाओं में उत्साही रखा। मठ की सेवाओं के लिए समर्पित प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर व्यक्तिगत रूप से श्रील गुरुदेव की विशेष कृपा और ध्यान के कारण ही वह व्यक्ति सभी परिस्थितियों में समन्वय कर मठ में वास कर पा रहा है।