मन ही मुक्ति और मन ही बंधन का कारण है। इसे भगवान् कपिल ने अमल पुराण श्रीमद्भागवत के तीसरे अध्याय में वर्णन किया है। भगवान् कपिल, स्वयं भगवान् का अवतार थे। वे करदम मुनि, और माता देवहुति के पुत्र के रूप में अवतरित हुए थे। एक दिन माता देवहुति ने अपने पुत्र पूछा, “एक बद्ध-जीव का माया के चंगुल अर्थात् जगत की सभी प्रकार की कामना-वासना से कैसे छुटकारा हो सकता है? हम माया के बंधन से खुद को कैसे मुक्त करा सकते हैं?” इस पर कपिल भगवान् ने उत्तर दिया-
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्ताय चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ।।
(३/२५/१५)
“यह मन निश्चित ही बंधन का कारण है, और यह मन मुक्ति का भी कारण है। कैसे? ‘गुणेषु सक्तं बन्धाय’ । जब व्यक्ति का मन भगवान् कि बहिरंगा शक्ति के तीन मूल गुणों (सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण) में आसक्त रहता है, तब वह बंधन में होता है। जब व्यक्ति का मन निर्गुण अर्थात् अप्राकृत परम पुरुष श्रीहरि में आसक्त होगा, तब उसका माया के प्रभाव से छुटकारा हो जायेगा और उसे मुक्ति मिल जाएगी।”
त्रिगुण क्या हैं? प्राणियों कि सृष्टि रजोगुण से होती है। हमारे शरीर की सृष्टि रजोगुण से हुई है, इसका सत्त्वगुण से पालन-पोषण होता है और तमोगुण से इसका नाश हो जाता है । तमोगुण से व्यक्ति की मृत्यु होती है। हमारा शरीर त्रिगुणमय है, क्योंकि इसका जन्म होता है, यह कुछ समय के लिए रहता है और फिर इसका विनाश हो जाता है। हमारा शरीर त्रिगुण का स्थूल स्वरूप है। इसलिए जो व्यक्ति हमेशा अपने शरीर, इसकी ज़रूरतें और इसके सौंदर्य के बारे में ही सोचता रहता है, बंधन में है। इस प्रकार के लोग केवल बाहरी स्वरूप को ही देखते हैं, आत्मा के बाहरी आवरण को, असली स्वरूप को कभी नहीं।
एक चुम्बक और लोहे का उदाहरण लीजिये। चुम्बक का क्या स्वभाव है? चुम्बक का स्वभाव है लोहे को अपनी ओर आकर्षित करना, जब भी वह उसके निकट आता है। और लोहे का स्वभाव है कि जब भी वह एक चुम्बक नज़दीक आता है, तो वह उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। किन्तु कई बार हम देखते हैं कि चुम्बक और लोहा दोनों ही उपस्थित हैं, किन्तु न तो वह चुम्बक उस लोहे को आकर्षित करता हुआ प्रतीत होता है और न ही वह लोहा उस चुम्बक से आकर्षित होता है। क्यों?
भगवान् सब को आकर्षण कर रहे हैं। इसलिए उनका नाम है ‘कृष्ण’ अर्थात् वे जो सबको आकर्षित करते हैं और सबको आनन्द प्रदान करते हैं। श्रीकृष्ण सभी पहलुओं में श्रेष्ठ हैं—वे श्रेष्ठ से भी सर्वश्रेष्ठ हैं अर्थात् ‘ब्रह्म’, अणु से भी अणु हैं अर्थात् ‘परमात्मा’ । वे सर्व-आकर्षक तत्त्व हैं। तब भी कोई कह सकता है, “स्वामी जी आप कहते हैं कि श्रीकृष्ण सबको आकर्षित करते हैं, किन्तु वे मुझे आकर्षण नहीं कर रहे।” इसपर मैं कहूँगा, हाँ वे आपको भी आकर्षण कर रहे हैं, परन्तु आप उसे अनुभव नहीं कर पा रहे हैं? क्यों? चुम्बक और लोहा दोनों ही मौजूद हैं, किन्तु वे एक दूसरे को आकर्षित नहीं कर रहे क्योंकि लोहे को जंग ने ढका हुआ है। इसी प्रकार जंग ने आपकी आत्मा को अब ढक रखा है। इसलिए आप उनके आकर्षण को अनुभव नहीं कर पा रहे। हैं। आपको उस जंग अथवा धूलि को अपने हृदय से साफ करना होगा। यदि आप उसे हटा देंगे तो आपकी स्वाभाविक वृत्ति जाग्रत हो जाएगी।
भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति विमुखता के कारण ही आप उनकी माया शक्ति व विश्व की धूल से ढके हुए हो। अप्रत्यक्ष इच्छाओं की उस धूल को आपको हटाना है। यह कैसे किया जा सकता है? साधु-सन्तों की संगति में आपको रहना होगा। आपको एक पेशेवर वक्ता से नहीं, बल्कि एक ऐसे शुद्ध भक्त से पूर्ण श्रद्धा सहित श्रवण करना होगा जिनका पूरा जीवन श्रीकृष्ण को समर्पित है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो बहुत सारी बातें तो करते हैं, पर उनका स्वयं पालन नहीं करते। वास्तव में स्वयं आचरण किए बिना कोई भी वक्ता किसी श्रोता पर प्रभाव नहीं डाल सकता अर्थात् जब तक कि उसका जीवन अपनी शिक्षाओं के अनुसार न हो।
इसलिए जो स्वयं आचरण कर रहे हैं अर्थात् जिनकी आत्मा जाग्रत है आपको उनके पास जाना होगा। ऐसा व्यक्ति कई सुप्त (सोई हुई) आत्माओं को जगा सकता है। यदि सभी सो जायेंगे तो उन्हें कौन जगाएगा? ऐसा कोई अवश्य ही होना चाहिए अर्थात् ऐसी एक जाग्रत आत्मा जो दूसरों को जगाए । शुद्ध भक्त ही वह जागरूक (जाग्रत) आत्मा है। आपको बहुत ध्यान से उनकी बात सुननी है। उनके मुख से निकलने वाले शब्द अप्राकृत ध्वनि हैं। आपको अपने कानों के द्वारा उस ध्वनि को ग्रहण करना होगा, तब वह ध्वनि आपके नित्य स्वरूप के अप्राकृत स्वभाव को जाग्रत करा देगी। वह स्वभाव अर्थात् कृष्णप्रेम आपके भीतर उपस्थित है, किन्तु माया द्वारा ढका हुआ है इसलिए उसे जगाना होगा।
क्या कोई बीमार व्यक्ति स्वयं की चिकित्सा कर सकता है? जब हम बीमार होते हैं, तब हम किसी विशेषज्ञ से सलाह लेते हैं, वह विशेषज्ञ आँख, कान या हृदय का सुविज्ञ जानकार होता है। हमें डाक्टर के पास जाना पड़ता है। डाक्टर कह सकता है कि “तुम मेरे पास क्यों आए हो?” और हम उत्तर देंगे, “असल में, मुझे दवाई के बारे में कोई जानकारी नहीं है। आप ही मुझे बता सकते हैं कि मेरी बीमारी का कारण क्या है। कृपया मेरी जाँच कीजिये और मुझे बताइए कि मैं किस कारण से बीमार हो गया हूँ। तब दवा एवं पथ्य (समुचित खान-पान) के बारे में भी बताइये ताकि मैं स्वस्थ हो सकूँ।” यदि डाक्टर का रोग निदान (diagnosis) सही हो और हम उसके निर्देश अनुसार दवा व पथ्य लें, तो हमारी बीमारी ठीक हो जाएगी। बीमार व्यक्ति होने के कारण मैं स्वयं अपना इलाज नहीं कर सकता। उसी प्रकार “इस से प्रत्येक व्यक्ति बीमार है, तीन प्रकार के है— अपने शरीर व मन से प्राप्त होने वाले दुःख, संसार में दूसरे जीवों से प्राप्त होने वाले दुःख तथा प्राकृतिक आपदाओं जैसे भुकम्प आदि से मिलने वाले दुःख हम जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहे हैं। हम बहुत से शिशुओं को जन्म लेते देखते हैं आपका भी जन्म हुआ था। एक समय आप भी अन्यों की तरह अपनी माँ के गर्भ में थे। और इसी प्रकार अन्य लोगों की भाँति आपकी भी मृत्यु होगी। आपने देखा होगा कि मृत्यु का समय निकट आते ही गंभीर परेशानियों से ग्रसित होकर लोग कई प्रकार की पीड़ा झेलते हैं।
जब तक हम इस संसार में रहते हैं, तीन प्रकार के ताप बने रहते हैं। कोई भी सुख स्थायी नहीं है। सुख और दुःख का चक्र हमेशा घूमता रहता है। कभी-कभी आपको भौतिक सुख मिलेंगे, लेकिन बाद में पुनः कष्ट ही होगा। सुख और दुःख नियमित रूप से एक-दूसरे का अनुसरण करते रहते हैं। जो लोग भगवान् की माया द्वारा दिए गए त्रिताप से छुटकारा पाने की इच्छा रखते हैं, वे अपने (दुःखी होने के कारणों की जाँच शुरू कर देते हैं तथा सच्चे गुरु की तलाश करते हैं।