एक समय मेरे गुरुजी एक स्थान पर गए जहाँ बहुत सारे लोग एकत्रित थे। सभी धर्मों के लोग वहाँ आमन्त्रित थे। इसलिए ऐसा था कि वहाँ आधे लोग मुसलमान थे और आधे हिन्दु । श्रोताओं में से एक मुसलमान ने महाराज जी से प्रश्न किया । “स्वामी जी क्या आपने आत्मा और परमात्मा को देखा है? क्या कोई कह सकता है कि उसने उन्हें देखा है? मैं सोचता हूँ कि किसी ने भी आत्मा और परमात्मा को कभी देखा नहीं है और आप उनके विषय में बोलकर जगत को धोखा दे रहे हैं। सभा के आयोजक और श्रोतागण उस व्यक्ति से बहुत अप्रसन्न हुए, किन्तु श्रील गुरु महाराज जी ने उसे सम्मानपूर्वक उत्तर दिया। उन्होंने कहा, “आप निश्चित ही एक विद्वान व्यक्ति हैं। क्या मैं आपसे एक स्वाल पूछ सकता हूँ। आपके हाथ में जो किताब है उसका नाम क्या है?” व्यक्ति ने किताब का नाम बता दिया। गुरु महाराज जी ने कहा कि मैं देख नहीं पा रहा हूँ। मुझे किताब का नाम नहीं दिख रहा। आप मुझे धोखा दे रहे हैं।” दूसरे मुसलमानों ने वहाँ आकर किताब का कवर देखा और पहले व्यक्ति की बात की पुष्टि की। “स्वामी जी, इस व्यक्ति ने आपको किताब का सही नाम बताया है।”

पुनः श्रील गुरु महाराज जी ने कहा, “देखिए मेरे पास आँखें हैं और मेरी दृष्टि भी ठीक है। तब भी मैं नहीं देख पा रहा हूँ जो आप कह रहे हैं। आप सब मिलकर मुझे धोखा दे रहे हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि एक कौआ स्याही में पैर डुबोकर एक कागज़ पर चला होगा जिससे ये सब निशान बन गये हैं। कौओ के पैरों के निशान के अलावा मुझे और कुछ नहीं दीख रहा है।”

यह सुनकर मुसलमान भड़क गया, “स्वामीजी, क्या आपको उर्दू नहीं आती?” “नहीं, मुझे नहीं आती।”

मुसलमान ने उत्तर दिया, “तब आप इसे समझने की कैसे उम्मीद कर सकते हैं? आपको इस भाषा के अक्षरों का अध्ययन करना पड़ेगा। तब ही आप इसे पढ़ और समझ सकेंगे। आपको इसकी योग्यता अर्जन करनी पड़ेगी।

तब श्रील गुरु महाराज जी ने कहा, “आपने अपने प्रश्न का स्वयं ही उत्तर दे दिया है। हमारे पास बहुत प्रकार की विद्या है। हम अन्य भाषाओं को आसानी से सीख सकते हैं, किन्तु हमारे पास वो योग्यता नहीं है जिससे हम आत्मा और परमात्मा को जान सकें। हम उन्हें तब ही देख पाएँगे जब हम उपयुक्त योग्यता अर्जित कर लेंगे। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे, तब तक हम नहीं समझ पायेंगे। मुझे कौओ के पैरों के निशान दिख रहे हैं, किन्तु बाकी लोग उन्हीं पैरों के निशान में रूप और अर्थ देखते हैं क्योंकि उनके पास अपनी दृष्टि के पीछे उर्दू भाषा का ज्ञान है। यदि मुझे उर्दू का तनिक भी ज्ञान नहीं है, तो आप क्या कर रहे हैं, मैं उसे नहीं देख सकता। एकबार मुझे वह ज्ञान प्राप्त हो जायेगा तो मैं भी देख सकूँगा । इसी प्रकार आत्मा को देखने के लिए भी विशेष योग्यता कि आवश्यकता है। आपको ऐसे लोगों के पास जाकर समझने के लिए प्रार्थना करनी होगी जिन्हें इसका अनुभव हो चुका है।”

जब किसी को वह अविद्या का नाश करने वाला ज्ञान प्राप्त होता है, तब वह ज्ञान उसी प्रकार सबकुछ प्रकाशित कर देता है, जिस प्रकार सूर्य दिन में सब कुछ प्रकाशमान कर देता है। इस प्रकार का ज्ञान स्वयं स्फुरित होता है। आप रात्रि में सूर्य को नहीं देख सकते क्योंकि वह स्वयं-प्रकाशमय है; उसे अन्य प्रकार की रोशनी के द्वारा नहीं देखा जा सकता। जब सूर्य उदय होता है और उसकी किरणें आपके नेत्रों को उजागर करती हैं, तब ही आप सूर्य को देख पाते हैं, अपने आप को देख पाते हैं, और इस जगत कि सभी वस्तुओं को यथार्थ देख पाते हैं।

उसी प्रकार जब स्वयं-प्रकाशमय, स्वयं स्फुरित भगवान् जीव के हृदय में अवतरित होंगे तब ही वह जीव अपने निज स्वरूप को तथा संसार के अन्य वास्तव स्वरूपों एवं अन्य वस्तुओं को उनके यथार्थ रूप में देख पाएगा। समस्त अविद्या विदुरित हो जाएगी और सबकुछ ज्ञान से प्रकाशमय हो जायेगा। किन्तु ऐसा होने के लिए, हमें उनकी शरण लेनी होगी और सब प्रकार से गुरु की सहायता (कृपा) प्राप्त करनी होगी। जब हम भौतिक ज्ञान के लिए गुरु और शिक्षकों कि सहायता लेते हैं तो फिर पारमार्थिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए भेद क्यों होगा? हमें एक आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव के पास जाकर उनसे निर्देश ग्रहण करना होगा; तब भगवान् स्वयं को प्रकाशित करेंगे। हम अपनी सरलता अथवा प्रतिकूल भाव से उन्हें नहीं जान सकते। भगवान् एक अद्वि तीय सत्य हैं। वे अपने आप को केवल एक पूर्ण शरणागत भक्त के पास ही प्रकाशित करते हैं।