सब कुछ भगवान् की इच्छा से ही होता है। उनकी इच्छा के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता। यदि कोई व्यक्ति कहे कि वह भगवान् की इच्छा से स्वतन्त्र होकर कुछ कर सकता है, तो ऐसा कहकर वह भगवान् की भगवत्ता को कम कर रहा है। भगवान् की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। और तो और भगवान् की इच्छा से जो भी होता है सबके नित्य मंगल के लिए होता है। वे सर्व-मंगलमय, सर्व-शक्तिमान और सर्वज्ञ हैं।

कई बार हम ऐसा सोचते हैं कि हमारे साथ जो हो रहा है वह ठीक नहीं है, परन्तु हमें वास्तव में ऐसा बोध नहीं होता कि अपने भाग्य के लिए हम कैसे जिम्मेदार हैं। हमें नहीं पता कि हमने पूर्व में क्या कर्म किये हैं और अब किन कर्मों का फल हमें मिल रहा है। क्या कोई दावा कर सकता है कि उसे अपने पूर्व कर्मों की जानकारी है। हमें तो वर्तमान में दो दिन पहले की घटनाओं को स्मरण रखने में कठिनाई होती है तो फिर दस साल पहले की तो बात ही छोड़ दीजिए। क्या आप सुबह से रात तक किए अपने सब कार्यों को याद कर सकते हैं? हम सब कुछ भूल जाते हैं। ऐसी अवस्था है हमारी। न तो हमें अपने पूर्वकाल में किये कर्मों की जानकारी है और न ही आने वाले भविष्य की ।

जब हम इन सब में सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते, तब हम परेशान हो जाते हैं, यहाँ तक कि अपना संतुलन भी खो बैठते हैं। परन्तु आत्म-अनुभूति प्राप्त जीव विकट से विकट परिस्थितियों में भी सदैव सन्तुलित रहते हैं। इसीलिए वे हमेशा शान्त व धीर-स्थिर होते हैं। और दूसरी ओर, हम लोग उचित दृष्टि व ज्ञान के अभाव में भगवान् की इच्छा को नहीं पहचान पाते।

अब कोई पूछ सकता है, कि यदि भगवान् की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो फिर ऐसा लगता है कि हमारे पास अपनी वास्तविक स्वतन्त्र इच्छा नहीं है। और फिर हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है यदि हमारे पास अपनी स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति ही नहीं है? इसका उत्तर है कि जीव चेतना-युक्त हैं, जिसका भीतरी अर्थ है कि उनके पास सोचने, अनुभव करने और इच्छा-शक्ति का प्रयोग करने की क्षमता है। भले ही इस चेतन वस्तु के पास सोच-विचार करने की स्वतन्त्रता है, किन्तु यह तुलनात्मक (संबंधवाचक) स्वतन्त्रता मात्र है। बहुत-से ऐसे लोग हैं जो एक फिल्म स्टार या राष्ट्रपति बनना चाहते हैं किन्तु अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाते। एक व्यक्ति जो राष्ट्रपति बनना चाहता है शायद अपना लक्ष्य प्राप्त कर ले, लेकिन ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं कर पाएँगे। इसीलिए हमारी स्वतन्त्रता तुलनात्मक है।

हमारी सब इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाती। भगवान् प्रत्येक वस्तु का संचालन करते हैं, परन्तु वे किसी जीव की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप नहीं करते। यदि वे चाहें तो दखल दे सकते हैं, चूँकि वे सर्व-शक्तिमान हैं। पर अगर वे ऐसा करते हैं। तो व्यक्तिगत चेतना (स्वतन्त्रता) क्रियाहीन हो जायेगी; जड़ वस्तु बन जाएगी। व्यक्तिगत चेतना नष्ट हो जाएगी। इसलिए भगवान् स्वयं अवतरित होकर अपने से विमुख जीवों को समझाने का प्रयास करते हैं ताकि वे लोग उनकी (भगवान् की) शिक्षाओं को खुशी-खुशी स्वीकार कर लें। भगवान् उन्हें भजन करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहते। वे ऐसा कर सकते हैं, लेकिन अगर वो ऐसा करते हैं तो जीव की व्यक्तिगत चेतनता (स्वतन्त्रता) नष्ट हो जाएगी। उसका क्या फायदा होगा? चेतनता एक विशेष पूँजी है, इसलिए जीवों की परस्पर स्वतन्त्रता को संरक्षित रखते हुए, भगवान् स्वयं इस जगत में अर्विभूत होते हैं या फिर अपने पार्षदों (निजजनों) को भेजते हैं, जीवों को यह समझाने के लिए कि उन्हें सहर्ष भगवान् के प्रति शरणागत हो जाना चाहिए।

एक जादूगर था। उसके मित्र ने बताया कि उसे अपने वैवाहिक जीवन में कुछ परेशानियाँ आ रही हैं। उसने कहा, है जिसकी मुझे आवश्यकता है, लेकिन “मेरे पास वो सबकुछ मेरी पत्नी अनुकूल नहीं है। वो हमेशा मुझे दुःखी करने के लिए कुछ न कुछ करती रहती है, इसीलिए मैं खुश नहीं हूँ। मैं उसे वश में कैसे करूँ? तुम तो एक जादूगर हो । क्या तुम मेरी सहायता नहीं कर सकते? तुम्हें तो ज़रूर कोई तन्त्र-मन्त्र पता होगा।” इस पर उस जादूगर ने उसे एक जादू की छड़ी दी और कहा, “अब से तुम जो भी अपनी पत्नी को कहोगे, वो मान लेगी।”

वह आदमी अपने घर वापिस गया और उस जादू की छड़ी का प्रयोग करते हुए अपनी पत्नी को कहता, “इधर आओ!”, और उसकी पत्नी आ गई। फिर उसने कहा, “उधर जाओ” और वो चली गई। दोबारा उसने आदेश दिया, “बैठ जाओ” और उसकी पत्नी बैठ गई। परन्तु कुछ देर तक ऐसा करने के बाद, उसे अनुभव हुआ कि वह अभी भी खुश नहीं था। क्यों? क्योंकि उसकी पत्नी एक कुत्ते के समान बन गई थी! उसे एहसास हुआ कि आपस में एक प्रेममय रिश्ता होने के लिए, उसकी पत्नी की स्वतन्त्रता अर्थात् स्वतन्त्र रूप से विचार करने की शक्ति का होना ज़रूरी है। अगर वो केवल अपनी स्वतन्त्र इच्छा से सेवा करती है, तभी सुख की प्राप्ति हो सकती है। अगर चेतन शक्ति को नष्ट कर दिया जाय, तब सुख प्राप्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार भगवान् इतने अबोध नहीं हैं कि वे जीवों की परस्पर स्वतन्त्रता का दमन कर दें। वे इसका संरक्षण करते हैं और उनके (भगवान्) अभिन्न-प्रकाश, श्रीगुरुदेव भी ऐसा ही करते हैं। परन्तु वे (भगवान्) एवं श्रीगुरुदेव, जीवों को यह समझाते हैं कि जीव भगवान् के नित्य दास हैं और भगवान् की सेवा करने से वे सुखी हो जाएँगे। वे अपने आदर्श चरित्र और उदाहरण के द्वारा जीवों को समझाकर व उत्साहित करके उनकी विचार- धारा को बदलने का प्रयत्न करते हैं।

भगवान् अपने विभिन्न अंश (जीव) की परस्पर स्वतन्त्रता को नष्ट नहीं करना चाहते। फिर किसके साथ वे अपनी लीला का रसास्वादन करेंगे? सेवा के लिए, एक सेवक और एक सेव्य का होना अनिवार्य है। केवल तब ही अप्राकृत प्रेम संभव है। जहाँ केवल एक ही व्यक्ति है वहाँ इस प्रकार का प्रेम संभव नहीं है। जो जीव अब यहाँ इस भौतिक जगत में हैं, वे श्रीकृष्ण को भूल गए हैं। परन्तु जब उन्हें आत्मा के नित्य स्वभाव की जागृति का अनुभव होगा, तब वे अत्यन्त तत्परता एवं व्याकुलता के साथ भगवान् के लिए क्रन्दन करेंगे। उधर भगवान् भी उनके उस भाव का रसास्वादन एवं आनन्द लेंगे। फिर हम भगवान् को उस आनन्द से क्यों वंचित करें?