सभी जीव अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं। हमें जन्म, जीवन में विविध परिस्थितियाँ, परिवेश व उपकरण अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं है।
दो मार्ग हैं 1) प्रवृत्ति मार्ग—गृहस्थ जीवन (स्व-वर्ण-विवाह) व 2) निवृत्ति मार्ग—गृह त्यागी जीवन। साधारणतः लोग प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी हैं। जिन्होंने निश्चय कर लिया है कि वे गृहस्थ जीवन में प्रवेश नहीं करेंगे, वे ही त्यागी जीवन के अधिकारी हैं।
अपने विवाह के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए, आपको अपने माता-पिता से परामर्श लेना आवश्यक है। वे आपकी आन्तरिक व बाह्य स्थिति को अधिक उपयुक्त रूप से जानते हैं।
भविष्य में आप गृहस्थ अथवा आकुमार ब्रह्मचर्य जीवन यापन करेंगे इस निर्णय पर विचार नहीं करते हुए तत्काल भजन (निरपराध हरिनाम ग्रहण आदि) प्रारम्भ करना आपके लिए उपयुक्त है, क्योंकि कब किसे यह संसार छोड़कर चले जाना पड़े यह किसी को ज्ञात नहीं है। जब श्रीमद् रघुनाथ दास गोस्वामी इस भवसागर को पार करने के लिए अत्यंत व्याकुल हो उठे थे, भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु ने प्रारंभ में यह कहते हुए उन्हें शांत किया था कि उन्मत्त नहीं होना है; स्थिर मति होकर अभी घर में वास करना उपयुक्त है। जन्म-मृत्यु के इस भवसागर को अनायास ही कोई पार नहीं कर सकता, इसके लिए समय लगेगा; धीरे-धीरे इससे पार पाया जा सकता है। बाहरी रूप से उन्हें लौकिक कार्यों के प्रति उदासीनता प्रदर्शित करने का प्रयास नहीं करके आतंरिक रूप से वैराग्य का अभ्यास व निष्कपट मति से श्रीकृष्ण-भजन करना है। श्रीकृष्ण अविलंब ही उन्हें सांसारिक संताप से मुक्त कर देंगे।
वर्तमान स्थिति में आपके लिए निवृत्ति मार्ग को ग्रहण करना उपयुक्त नहीं है। निवृत्ति मार्ग किसी पर थोपे जाने वाली वस्तु नहीं है। उसके लिए प्रेरणा स्वतः एवं स्वाभाविक होगी। जब श्रीकृष्ण-प्राप्ति के लिए सुतीव्र उत्कण्ठा होगी, आप जान भी नहीं पाएँगे किन्तु संसार से स्वतः ही वैराग्य हो जाएगा। पूर्व योजना बनाकर इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता।
भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु की शिक्षा में ऐसा कोई विधान नहीं है कि घर में रह कर भजन-साधन करने के लिए विवाह करना ही होगा। प्रवृत्ति मार्ग उन लोगों के लिए अनुकूल है जो हरिभजन करने के इच्छुक हैं किन्तु अपनी इन्द्रियों के वेग को नियंत्रित करने में असमर्थ हैं। ऐसे व्यक्तियों के लिए शास्त्र विधि अनुसार स्व-वर्ण-विवाह करना उपयुक्त है; किन्तु उन्हें विवाहित-जीवन में भक्ति-सदाचार का दृढ निष्ठा से पालन करना होगा। यदि कोई निवृत्ति मार्ग को ग्रहण करने में सक्षम है तो नि:संदेह यह प्रवृत्ति मार्ग से श्रेष्ठ व सर्वोत्तम है।
निवृत्ति मार्ग में निर्बाध भजन संभवपर है। भाव के आवेश में कुछ करना उचित नहीं है। निवृत्ति मार्ग को ग्रहण करने से पूर्व गंभीर चिंतन आवश्यक है। श्रीकृष्ण-प्राप्ति की तीव्र लालसा स्वतः ही निवृत्ति मार्ग के लिए प्रेरित करेगी। यह भाव किन्तु अन्तर्हृदय से स्फुरित होना है; ऐसी मनोवृत्ति बलपूर्वक आरोपित नहीं की जा सकती। इस समय आप अनन्य भाव से दृढ़ निष्ठा के साथ भजन करते रहें। श्रीकृष्ण अंतर्यामी रूप से आपका मार्गदर्शन करेंगे व आपको सुपथ पर अग्रसर करेंगे।
कृष्ण-भजन के लिए स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित करने के इच्छुक व्यक्ति, निर्बाध हरिभजन के उद्देश्य से, निवृत्ति मार्ग ग्रहण करते हैं। और जो इन्द्रिय-भोग की इच्छा परित्याग करने में असमर्थ हैं किन्तु भजन करने के भी इच्छुक हैं, वे प्रवृत्ति मार्ग ग्रहण करते हैं। किसी को यदि प्रवृत्ति मार्ग ग्रहण करना है तो इसे उचित समय और आयु में करना आवश्यक है और इस स्थिति में उसे धन उपार्जन करने का कष्ट भी वहन करना होगा।
अपनी पूर्व-संचित सुकृति के फलस्वरूप, यदि किसी जीव में श्रीकृष्ण-पादपद्म में पूर्ण शरणागत होकर उनकी सेवा करने की प्रवृत्ति है, तो उसकी इस सेवा-प्रवृत्ति में बाधा देना उसके प्रति घोर हिंसा है। हमें किसी भी जीव की श्रीकृष्ण-सेवा करने की प्रवृत्ति में बाधा नहीं देनी है। आशा करता हूँ आप मेरे मन्तव्य को समझेगें।
सभी जीव अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं। हमें जन्म, जीवन में विविध परिस्थितियाँ, परिवेश व उपकरण अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं है। कर्म करने में हमारा अधिकार है, किन्तु फलदाता श्रीकृष्ण हैं। हमें अधीर नहीं होना है। भजन में क्रमशः उन्नति करते हुए हम जन्म-मृत्यु के सागर से पार हो सकते हैं। हमें श्रीकृष्ण, श्रीनित्यानन्द प्रभु व श्रीगौरांग महाप्रभु के श्रीनाम-कीर्तन को सदा-सर्वदा करते रहना है व निरन्तर उनकी कृपा प्रार्थना करनी है। वे निर्णय करेंगे कि हमारे लिए गृहस्थ जीवन अनुकूल है या त्यागी जीवन। सर्वशक्तिमान श्रीकृष्ण के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।