नारद गोस्वामी ने भक्त ध्रुव को कुछ उपदेश दिए थे, और ध्रुव की माता सुनीति ने भी उसे यही परामर्श दिया: “हे ध्रुव! यदि तुम्हारे मन में अपनी सौतेली माता के प्रति कोई शत्रुभाव है, तो तुम भगवान की आराधना में सफलता प्राप्त नहीं कर पाओगे। तुम्हें उनकी कृपा प्राप्त नहीं होगी। तुम्हारे दुःखों का कारण तुम्हारी सौतेली माता नहीं है। उनके लिए किसी प्रकार का दोषारोपण करना उचित नहीं है। इन दुःखों के कारण तुम स्वयं हो। यह तुम्हारे किसी पूर्व जन्म के व्यवहार का फल है। अब तुम उसी कर्म का फल भोग रहे हो, जो तुमने पूर्व में दूसरों को दिया था।”
“ममांगलं तात परेषु मां स्थितं ममांगलं
भुक्ते जनो यत् परदुःखदस्ततः”
(श्रीमद्भागवत ४.८.१७)
“हे पुत्र! दूसरों को अपने दुःखों के लिए दोष मत दो। तुम नहीं जानते कि तुम्हें वही दुःख प्राप्त हो रहे हैं, जो तुमने कभी दूसरों को दिए थे। भगवान सर्वज्ञ हैं। उनके न्याय में कोई भूल नहीं हो सकती। इसलिए तुम्हें इन कष्टों को सहन करना चाहिए।”
साधुजन ऐसा ही विचार करते हैं। एक साधु कभी भी दूसरों द्वारा किए गए अत्याचार का प्रतिकार नहीं करता। उसके हृदय से सदा शुभभाव ही प्रकट होता है। वह किसी भी प्राणी को पीड़ा नहीं पहुँचा सकता, क्योंकि उसमें किसी को हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति सर्वथा अनुपस्थित होती है। जब उसमें किसी प्रकार की हिंसा की प्रवृत्ति ही नहीं है, तो वह किसी को क्षति कैसे पहुँचा सकता है? वह तो सदा ही सबका कल्याण करता है।
प्रह्लाद महाराज की पावन जीवनी में हमें यही दृष्टान्त मिलता है कि उन्होंने हिरण्यकशिपु द्वारा किए गए अत्याचारों को सहन किया। श्री चैतन्य महाप्रभु के समय में हरिदास ठाकुर ने भी अत्याधिक उत्पीड़न सहा — यही है “तितिक्षवः”।
यदि गन्ने को टुकड़ों में काट दिया जाए, तो क्या वह कहेगा, “अरे! तुमने मुझे कष्ट दिया है! अब मैं अपनी मिठास छोड़ दूँगा! मैं अब कड़वा या खट्टा हो जाऊँगा!”? नहीं, गन्ना चाहे जितना भी काटा जाए, वह अपनी मिठास नहीं त्यागता। उसका स्वभाव ही मिठास देना है। उसमें कोई अन्य प्रवृत्ति नहीं होती।
यदि सोने को अग्नि में तपाया जाए, तो क्या वह कहेगा, “मुझे जलाया गया है, अब मैं अपना तेज छोड़ दूँगा और काला हो जाऊँगा”? नहीं, जितना अधिक सोने को तपाया जाएगा, उतना ही अधिक उसका तेज प्रकट होगा।
उसी प्रकार, यदि किसी साधु को कष्ट दिया जाए, तो उसकी महिमा और अधिक प्रकट होती है। वह संसार के किसी भी जीव को कोई क्षति पहुँचाने में असमर्थ होता है। इसीलिए हमें इस विचार का अच्छे से बोध चाहिए कि जिस व्यक्ति में यह आचरण होता है, वही वास्तव में साधु है।