श्रील त्रिविक्रम गोस्वामी महाराज अपने गुरुदेव श्रील प्रभुपाद के कथनो को याद करते हुए वे कहते हैं कि आचार्य को नियुक्त किया नहीं जाता है , वह स्वयं प्रकट होते हैं। इसके बाद उन्होंने श्रील परम गुरुदेव और श्रील गुरुदेव की महिमा का गान किया।
आज श्रीरामचन्द्र भगवान् एवं मठ के वर्त्तमान आचार्य श्रीमद् भक्ति वल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज की आविर्भाव तिथि है। इस तिथि पर हरिकथा एवं गुरुदेव की महिमा श्रवण-कीर्तन वैष्णवों के लिए आकांक्षनीय विषय है। भक्त ही, वैष्णवों की कृपा से हरिकथा, भगवान् एवं गुरुदेव की महिमा का कीर्तन कर सकते हैं। मेरे जैसे अज्ञानी एवं मूर्ख व्यक्ति का हरिकथा-कीर्तन करने का अधिकार भी नहीं हैं। किन्तु यहाँ अनेक महान वैष्णव उपस्थित हैं, उनसे हरिकथा श्रवण करने की आकांक्षा लेकर मैं आया हूँ। जो समर्पित आत्मा हैं एवं जिन्होंने गुरुदेव की कथा का श्रवण-कीर्तन किया है वे धन्य हैं। मैंने तो श्रवण किया ही नहीं, कीर्तन तो दूर की बात है। आज जिनका आविर्भाव है उन्होंने उनके गुरुदेव (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) की कृपा से आचार्य-आसन को ग्रहण किया है। सभी लोग आचार्य होने के लिए योग्य नहीं होते हैं।
निशिकांत सन्याल, अर्थात भक्ति सुधारकर प्रभु ने श्रील प्रभुपाद से एक निवेदन किया था, “प्रभुपाद, अभी तो आप अस्वस्थ लीला का अभिनय कर रहे हैं। आगे आपकी क्या लीला होगी कोई जानता नहीं, आपने आपकी भौमलीला संवरण से पहले अपने शिष्यों में से किसी को अपनी संस्था के नियामक रूप में नियुक्त करने के विषय में कुछ विचार किया हैं?” तब प्रभुपाद ने उत्तर देते हुए कहा, “क्या मैं किसी को आचार्य-पद पर नियुक्त कर सकता हूँ? मैं आचार्य नियुक्त कर देता किन्तु आचार्य तो स्वयं प्रकाशित होते हैं। साधू स्वयं प्रकाशित होते हैं।”
हमारे मठ (श्रीचैतन्य गौडीय मठ) के आचार्यदेव (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) महान व्यक्ति थे, परम वैष्णव थे, सूक्ष्म-दर्शी, सूक्ष्म-विचार वाले थे। ऐसे विचार सभी वैष्णवों के नहीं होते। मठ के एक व्यक्ति ने उन्हें वर्धमान मठ में पूछा, “आप अभी अस्वस्थ लीला कर रहे हैं, क्या आप ने अपनी संस्था के भावी आचार्य के विषय में कुछ विचार किया हैं?” तब महाराज ने एक मानपत्र दिया। मैं स्वयं वहाँ पर था एवं दो और व्यक्ति थे।
महाराज ने कहा, “हाँ, मैंने भावी आचार्य तय कर लिया है, किन्तु अभी मैं उनका नाम नहीं बोलूँगा। वे मेरे से भी अच्छे हैं।”
वह व्यक्ति ने उनसे पूछा, “क्या आपका शिष्य आप से भी अच्छा है?”
“हाँ, मेरे से भी अच्छा है।”
बाद में जगमोहन प्रभु ने भी एक दिन श्रील महाराज (श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) से इस विषय में पूछा था। महाराज ने उत्तर देते हुए कहा, “मैं मानपत्र लिख कर जा रहा हूँ। इसे मेरे जाने (शरीर छोड़ने) के बाद खोलना।”
जब वह मानपत्र पढ़ा गया था तब पूज्यपाद भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज, केशव प्रभु, जगमोहन प्रभु एवं अन्य भक्त उस स्थान पर उपस्थित थे। पूज्यपाद पूरी गोस्वामी महाराज ने कहा भारती महाराज वह मानपत्र पढेंगे।
मानपत्र सुनने के बाद श्रील पूरी गोस्वामी महाराज ने तीर्थ महाराज से कहा, “आपके लिए आपके गुरुदेव का आदेश है, इसे आपको पालन करना होगा।” तब उन्होंने आचार्य-पद स्वीकार किया। उनके गुरुदेव उन्हें आचार्य-पद पर अधिष्ठित करके गए हैं।
उनके गुरुदेव (भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज) इस जगत के कोई साधारण मनुष्य नहीं थे। वे एक महान वैष्णव हैं। उनके विचार इतने सुक्ष्म हैं जो बहुत कम वैष्णवों में देखे जाते हैं। प्रभुपाद के शिष्यों में बहुत बड़े-बड़े वक्ता थे किन्तु उनकी वैष्णवता इस जगत के सभी वैष्णवों में विशेष थी। उनके प्रकट समय में ही, जब वे २४ साल के थे तभी बोला जाता था कि उनके विचार अति सुक्ष्म है, इस प्रकार के विचार बहुत कम वैष्णवों में देखे जाते हैं। उनके द्वारा प्रतिष्ठित आचार्य हमें मिले हैं, वे जगत् के मंगल के लिए आये हैं। मैं आशा करता हूँ कि वे उस प्रतिष्ठित आसन (स्थान) से हम पर कृपा करेंगे। उनके सामने उनकी और क्या महिमा बोलें? उनकी महिमा बहुत है। मैंने उनके जैसा धैर्य, सहिष्णुता एवं हृदयता (स्नेह) बहुत कम व्यक्तियों में देखा हैं। बहुत कम आचार्यों में एसे गुण देखे जाते हैं।
जहाँ हरिभक्ति के लिए हरिकथा होती है वही वास्तव हरिकथा है। उससे जीवों का मंगल, स्वयं का मंगल एवं जगत् का मंगल होता है। सभी लोगों के मुख से हरिकथा कीर्तित नहीं हो सकती। हरिभक्त के मुख से ही हरिकथा कीर्तित होती है। भगवान् की कृपा से हमें वर्त्तमान आचार्य के मुख से हरिकथा श्रवण करने का अवसर मिला है। वे परम वैष्णव हैं। उनके गुरुदेव की कृपा उन्हें मिली है। जैसे गुरु वैसा ही शिष्य। उनकी महिमा बहुत है किन्तु उनके सामने और मैं क्या बोलूं? मैं गुरुदेव के चरणों में प्रार्थना करता हूँ, श्रील माधव गोस्वामी महाराज जो मेरे शिक्षा गुरु, सन्यास गुरु एवं मेरे गुरुदेव से अभिन्न हैं, उनके चरणों में प्रार्थना करता हूँ कि मेरा मंगल हो, जगत् का मंगल हो एवं उनके सभी शिष्यों का मंगल हो।