श्री विद्याधिराज तीर्थ का प्रणाम मंत्र:
मद्य अद्वैत अन्धकार प्रद्योतनम् अहर्निशम्
विद्याधिराजम् स्वगुरुम् ध्यायामि करुणाकरम्
श्री विद्याधिराज तीर्थ का परिचय:
श्रीपाद विद्याधिराज तीर्थ का जन्म 1269 ई. में हुआ था। वे 1388 से 1412 ई. तक उत्तरादि मठ के आचार्य थे। माधव-परंपरा के अनुसार, वे जयतीर्थ के वरिष्ठ शिष्य थे। तथा मठ के भावी आचार्य थे। उनका पुराना नाम कृष्ण भट्ट था। वे शास्त्रों में बहुत निपुण थे। उनके गुरु ने उनका नाम “नृसिंह शास्त्री” रखा तथा उन्हें ब्रह्मचर्य आश्रम से सीधे संन्यास दे दिया।
श्रीविद्याधिराज तीर्थ की विद्वत्तापूर्ण प्रतिभा और लेखन:
श्री विद्याधिराज तीर्थ शास्त्रों के बहुत जानकार थे। उन्होंने वेदान्त के द्वैत मत का प्रचार करने के लिए पूरे भारत का भ्रमण किया। उनकी कृतियाँ हैं छांदोग्य भाष्य टीका , गीता भाष्य और विष्णु सहस्रनाम भाष्य । इन ग्रंथों में विष्णु सहस्रनाम भाष्य सबसे महत्वपूर्ण है। यह पुस्तक माधव सम्प्रदाय में बहुत ऊँचा स्थान रखती है। श्री विद्याधिराज पहले भाष्यकार थे जिन्होंने भाष्य की शुरुआत में ही भगवान विष्णु, श्री व्यासदेव और माधवाचार्य का बहुत श्रद्धापूर्वक आह्वान किया था।
श्री विद्याधिराज तीर्थ की उत्तर भारत यात्रा और गंगादेवी का प्राकट्य:-
एक बार विद्याधिराज तीर्थ अपने कुछ शिष्यों के साथ भारत के विभिन्न भागों की यात्रा पर निकले। यात्रा करते हुए वे महाराष्ट्र में भीमा या चंद्रभागा नदी के तट पर एक स्थान पर पहुंचे। वहां से वे गंगा नदी में स्नान करने के लिए काशी जाने की सोच रहे थे। उस समय देवी गंगा उनके स्वप्न में प्रकट हुईं और उन्हें अनेक प्रकार की सलाह दीं। उन्होंने उन्हें वैष्णव सिद्धांत का प्रचार करने को कहा। उन्होंने निर्देश दिया कि विद्याधिराज तीर्थ को गंगा तक पहुंचने के लिए इतनी लंबी यात्रा करने की आवश्यकता नहीं है। केवल इस भीमा नदी के पवित्र जल में स्नान करने से ही उन्हें वही लाभ प्राप्त होगा। यहीं पर देवी गंगा उनके सामने फिर प्रकट हुईं। अगले दिन जब उन्होंने अपने शिष्यों के साथ उस भीमा नदी में स्नान किया तो देवी गंगा वहां प्रकट हुईं। श्री विद्याधिराज ने भक्ति भाव से देवी की आराधना की। इसके बाद उन्होंने द्वैत वेदांत का प्रचार करने के लिए पूरे भारत की यात्रा की।
श्री विद्याधिराज तीर्थ का तिरोवावा:-
श्रीपाद विद्याधिराज तीर्थ लगभग 143 वर्षों तक इस संसार में रहे। एक बार विद्यानिधि तीर्थ उत्तरादि मठ में थे। अचानक वे बीमार पड़ गए। तब उन्होंने अपने एक प्रमुख शिष्य राजेंद्र तीर्थ को आचार्य बनाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन वे कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गए और दीक्षा समारोह स्थगित कर दिया गया। कुछ समय बाद विद्याधिराज तीर्थ पुनः बीमार पड़ गए। उन्हें एहसास हुआ कि उनकी मृत्यु निकट है। लेकिन राजेंद्र तीर्थ वहां अनुपस्थित थे। विद्यानिधि तीर्थ ने अपने दूसरे शिष्य कविंद्र तीर्थ को आचार्य पद पर अभिषिक्त करने का निर्णय लिया। इस प्रकार विद्यानिधि तीर्थ ने संपूर्ण संस्था उन्हें सौंप दी और 1412 ई. में उनका निधन हो गया।