श्रील गुरुदेव जी ने 2 मार्च (1961), 18 फाल्गुन की गौर पूर्णिमा तिथि के दिन, ‘श्री चैतन्य वाणी’ नामक, एकमात्र पारमार्थिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया।

‘श्रीचैतन्य वाणी’ के प्रकाशन के समय दी गई श्रील गुरु महाराज जी की आशीर्वाद वाणी :-

“श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने कलियुग में सभी जीवों के परमार्थ साधन के लिए श्रीकृष्ण-संकीर्त्तन का ही उपदेश किया। सबसे पहले हम श्रीकृष्ण-संकीर्त्तन के प्रवर्तक, संकीर्त्तनयज्ञ से आराधित, सब सज्जनों को आनन्द प्रदान करने वाले, सभी को सम्मोहन करने वाले, महावदान्य व श्रीकृष्ण-प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँचाने वाले, परम-तत्त्व के अति उत्तम रसमय वपु, श्रीकृष्ण चैतन्य नाम वाले श्रीकृष्ण स्वरूप को प्रणाम करते हैं। आज इस संकीर्त्तन अनि को प्रज्जवलित करने के लिए और इसके संरक्षण व इसकी समृद्धि के निमित्त, प्रेममय के प्रेम- स्वरूप, श्रीरूप गोस्वामी प्रभुपाद और उनके अभिन्न-विग्रह-स्वरूप हमारे गुरुदेव नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद अनन्त श्री श्रीमद् भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर महाशय जी को सपरिकर बार-बार प्रणाम करते हुये, उनके प्रियगणों के सहित उनकी कृपा प्रार्थना करते हैं। प्रभुपाद जी प्रसन्न हों और हमारे जैसे आभासमात्र अयोग्य सेवकों को अपनी मनोऽभीष्ट सेवा में लगाकर, श्रीभक्ति सिद्धान्त-वाणी के रूप से हमारे हृदयों में नित्य विराजमान रहकर और इस पत्रिका के शब्दों के रूप में प्रकटित होकर, अपनी असमोर्द्धव दया की ख्याति को सफल करें।

आपकी अर्थात श्रील 108 भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी जी की प्रकट लीला के आखिरी उपदेश के अनुसार, हम सब आपस में मिलजुल कर श्रीरूप-रघुनाथ जी की वाणी के आचरण में व प्रचार में समर्थ हो सकें। आप ही के स्नेह आशीर्वाद को स्मरण करके, हम आज आपके मनोऽभीष्ट को परिपूर्ण करने के उद्यम स्वरूप, ‘श्री चैतन्य वाणी’ नामक मासिक पत्रिका के प्रकाश में उत्साहित हुए हैं। श्रीहरि- गुरु-वैष्णवों की अहैतुकी कृपा ही इस सेवा चेष्टा का एकमात्र सहारा है। इस ‘श्री चैतन्य’ वाणी के द्वारा परिकर सहित श्रीचैतन्य देव की आरती और उनकी वाणी का प्रकाश होगा, जिसके प्रकाश में आनुषंगिक भाव से हमारे हृदय का कल्मष भी दूर होगा व विश्व-वासियों का वास्तविक कल्याण होगा।”

श्रील गुरुदेव जी की इच्छानुसार डा० एस० एन० घोष ‘श्री चैतन्य- वाणी’ के सम्पादक संघपति बने। उनके लिखे बहुत से ज्ञान से भरे लेख पत्रिका में प्रकाशित हुए। श्रील गुरुदेव जी के बड़े गुरुभाई, पूज्यपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी महाराज जी, जो कि श्रील प्रभुपाद जी के प्रकट काल में ‘श्रीगौड़ीय’ पत्रिका के सम्पादक रहे थे, के श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के साथ जुड़ जाने से और उनके शुद्ध-भ -भक्ति सिद्धान्त पूर्ण निबन्धों के ‘श्री चैतन्य वाणी’ पत्रिका में प्रकाशित होने से सेवकों का उत्साह और अधिक बढ़ गया। उस समय श्रील गुरुदेव अपने गुरुभाई श्रीगुरु वैष्णव-सेवक निष्ठ, निष्कपट, पवित्र चरित्र, शुद्ध-भक्ति-सिद्धान्त विषय में पारंगत, कानूनी विषयों के जानकार- श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी जी को, प्रतिष्ठान के कार्यों में सहायक रूप में प्राप्तकर, मठ की दायित्वपूर्ण सेवा के बारे में काफी निश्चिन्त हो गये। श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी को • कोलकाता मठ के मठरक्षक व ‘श्री चैतन्य वाणी’ पत्रिका के कार्याध्यक्ष का दायित्व समर्पण करके श्रील गुरुदेव निश्चिन्त मन से कोलकाता से बाहर प्रचार में जाने लगे। डा० एस० एन० घोष श्रील गुरुदेव जी का आदेश पालन करने के लिए अपने बौ बाजार रोड पर बने चैम्बर में न जाकर, आर्थिक नुकसान स्वीकार करके भी मठ की सेवा करने का प्रयत्न करते थे। पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज, डा० एस० एन० घोष एवं श्रीमद् जगमोहन ब्रह्मचारी के साक्षात् तत्त्वावधान में तथा श्रील गुरुदेव जी के निर्देशानुसार, श्री कृष्ण बल्लभ ब्रह्मचारी सम्पादक रूप में पत्रिका के प्रूफ संशोधन, प्रचार-प्रसंग, प्रबन्धादि लेखों के लिखने में व ग्रन्थ विभाग की सेवा में नियोजित हुए। पहले-पहले तो बहुत दूर-दूर जाकर, इन सब सेवा कार्यों के लिये उन्होंने अनेक कष्टों को स्वीकार किया। पत्रिका पहले राजलक्ष्मी प्रिंटिंग वर्क्स, 43 रूप नारायण नन्दन लेन, भवानीपुर प्रैस में मुद्रित होती थी।