Harikatha

रास-यात्रा के अवसर पर

इस हरिकथा में श्रील गुरुदेव ने, रास-यात्रा लीला को स्मरण व कीर्तन करने के अधिकार के विषय में शिक्षा दी है। अनधिकारी व्यक्ति यदि इन लीलाओं को स्मरण व कीर्तन करता है तो इसके क्या गंभीर परिणाम हो सकते हैं इस विषय में उन्होंने हमें सावधान किया है।

आज बहुत शुभ तिथि है। कार्तिक महीने की शारदीय रासयात्रा तिथि है। श्रीवेदव्यास मुनि ने श्रीमद्भागवत में शारदीय रासयात्रा की लीला का वर्णन किया है। वर्णन करने के बाद उन्होंने सावधान करते हुए एक श्लोक लिखा। सावधान करने की क्या आवश्यकता थी? जब सावधान करने का कोई उद्देश्य ही नहीं होता, तो उस श्लोक को क्यों लिखते? रासलीला का वर्णन करने के बाद व्यासदेव ने कहा—

नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वर:।
विनश्यत्याचरन् मौढ्याद्यथारुद्रोऽब्धिजं विषम्॥
(श्रीमद्भागवत 10.33.30)

व्यासदेव कहते हैं कि ‘अनिश्वर’ व्यक्ति अर्थात् जो व्यक्ति इन्द्रियों को दमन नहीं कर पाया, जो अजितेन्द्रिय है, जितेन्द्रिय नहीं है, उसे रासलीला श्रवण-कीर्तन करना तो दूर की बात, ‘मनसापि’ मन में भी रासलीला के बारे में सोचना नहीं चाहिए। यदि वह सोचेगा, ‘विनश्यत्याचरन्’ तो उसका नाश हो जाएगा।

जैसे क्षीर सागर से अमृत निकला किन्तु पहले वहाँ विष भी निकला था। विष से सारे संसार का नाश हो सकता था। भगवान स्वयं भी उस विष का पान कर सकते थे किन्तु भक्त का महात्म्य बढ़ाने के लिए उन्होंने शिवजी को सन्देश भेजा। शिवजी ने आकर सारा विष पान किया जिस कारण उनका एक नाम नीलकण्ठ हुआ। कुछ मात्रा में विष धरती पर भी गिरा जिससे सर्प आदि विविध प्रकार के विषधर प्राणी उत्पन्न हुए। अरुद्र(जो शिव नहीं हैं) उसे पान करना तो दूर उस विष की मात्र सुगन्ध लेने से ही समाप्त हो जाएगा।

हमारे गुरु महाराज जी ‘अनिश्वर’ शब्द का अर्थ बताते थे कि जिन्हें यह विश्वास नहीं है कि कृष्ण परमेश्वर हैं। ऐसे बहुत से व्यक्ति भारत में भी हैं। कई व्यक्ति हमारी धार्मिक सभाओं में भी आकर छाती फुलाकर(गर्व के साथ) कहते हैं कि कृष्ण एक महान मनुष्य थे, बहुत बड़े राजनीतिविद् थे, कूटनीतिविद् थे अथवा महामानव थे। वे लोग गीता पढ़ते हैं, गीता में श्रद्धा है तथा गीता की शिक्षा में विश्वास भी है। जब उन्हें पूछा जाए कि आप जो बोल रहे हैं इसका प्रमाण गीता से दीजिए, तब नहीं दे पाते। गीता में किसी भी स्थान पर भगवान को राजनीतिज्ञ, अतिमानव, महामानव इत्यादि कुछ नहीं कहा अपितु इसका विपरीत कहा है—

मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
(श्रीमद्भगवद्गीता 7.7)

इस प्रकार गीता पढ़ने से क्या लाभ है? जिनका भगवान की भगवत्ता में विश्वास नहीं है, उन्हें तो भागवत स्पर्श ही नहीं करनी चाहिए। लीला श्रवण इत्यादि करना तो दूर की बात, उन्हें भागवत स्पर्श करना ही मना है। भगवान की भगवत्ता में ही जिन्हें विश्वास नहीं है, भगवान् में जिनकी मनुष्य बुद्धि है, वे क्या रासलीला सुनेंगे? अन्य व्यक्तियों को क्या सुनाएँगे? कहने वाले व सुनने वाले दोनों ही नरक में जायेंगे। किसी अन्य सम्प्रदाय वाले भी श्रीमद्भागवत से कहते हैं—

विक्रीडितं व्रजवधूभिरिदं च विष्णो:
श्रद्धान्वितोऽनुश‍ृणुयादथ वर्णयेद् य:।
भक्तिं परां भगवति प्रतिलभ्य कामं
हृद्रोगमाश्वपहिनोत्यचिरेण धीर:॥
(श्रीमद्भागवत 10.33.39)

इस श्लोक की व्याख्या करते समय हमारे गुरु महाराज जी इन दो शब्दों की व्याख्या विस्तार से करते थे—‘श्रद्धान्वितोऽनुश‍ृणुयादथ वर्णयेद् य:’। अभी भी मुझे स्मरण है कि गुरु महाराज जी बहुत विस्तारपूर्वक इसकी व्याख्या किया करते थे। श्रद्धा अर्थात् पूर्ण विश्वास कि भगवान श्रीकृष्ण की सेवा करने से अन्य सभी की सेवा हो जाती है। इस प्रकार का पूर्ण विश्वास होना चाहिए। यदि यह विश्वास नहीं है, तो आपको श्रीमद्भागवत को स्पर्श करने का अधिकार नहीं है। रासलीला कहना तो दूर की बात है। जब श्रद्धा ही उत्पन्न नहीं हुई, इसका अर्थ है कि मूल में ही भूल है। जो योग्य अधिकारी है, उन्हें सद्गुरु, शुद्धभक्त यह लीला सुनाएँगे। सुनने के बाद वे वर्णन करेंगे-‘अनुश‍ृणुयात्’। जिसने सुना ही नहीं है, वह कैसे कहेगा? सहजिया सम्प्रदाय वाले इसकी गलत व्याख्या करते हैं। हमारे गुरु महाराज जी ने इसकी सही व्याख्या करके बताई थी। हमें गुरु-वैष्णव-भगवान की कृपा प्रार्थना करनी चाहिए। उनका आनुगत्य करने की चेष्टा करनी चाहिए। आनुगत्य के बिना भक्ति राज्य में प्रवेश ही नहीं होगा। अशरणागत व्यक्ति का भक्ति राज्य में प्रवेश सम्भव नहीं है। भगवद राज्य पूर्ण रूप से आवृत(ढका हुआ) है जिन्होंने अपने आप को भगवान और उनके अभिन्न स्वरूप गुरुदेव में पूर्ण शरणागत नहीं किया है, उन्हें भक्ति राज्य में प्रवेश का अधिकार नहीं है। यह सब शिक्षाष्टक में लिखा है। शिक्षाष्टक में प्रतिष्ठित न होने पर इन सब लीलाओं का अनुभव नहीं होगा। सबसे पहले शिक्षाष्टक की शिक्षाओं में तथा उपदेशामृत(श्रील रूप गोस्वामी विरचित) में प्रतिष्ठित होना होगा। तभी यह सब लीलाएँ प्रकाशित होंगी।

वांछा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।