गजेंद्र मोक्ष – 7

क्षाद्धरित्वेन समस्त शास्त्रैः
उक्तस्तथा भावयत एव सद्भिः।
किन्तु प्रभोर्यः प्रिय एव तस्य
वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥
वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च
कृपा-सिन्धुभ्य एव च।
पतितानां पावनेभ्यो
वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।
संकर्षणः कारण-तोय-शायी
गर्भोदशायी च पयोऽब्धिशायी।
शेषश्च यस्यांश-कला:
स नित्यानंदाख्यरामः शरणं ममास्तु॥
नमस्ते तु हलग्राम,
नमस्ते मुषलायुध।
नमस्ते रेवतीकान्त,
नमस्ते भक्तवत्सल।।
नमस्ते बलिनां श्रेष्ठ,
नमस्ते धरणीधर।
प्रलम्बारे, नमस्ते तु
त्राहि मां कृष्ण-पूर्वज।।
नमो महावदान्याय,
कृष्ण प्रेम प्रदायते।
कृष्णाय कृष्ण चैतन्य,
नाम्ने गौरत्विषे नमः॥
भुजे सव्ये वेणुं शिरसि शिखिपिच्छं
कटितटे दुकूलं नेत्रान्ते सहचर-कटाक्षं विदधते।
सदा श्रीमद्‍-वृन्दावन-वसति-लीला-परिचयो
जगन्नाथः स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे॥
तप्त-काञ्चन गौरांगी! राधे! वृंदावनेश्वरी!।
वृषभानु सुते देवी प्रणमामि हरि-प्रिये
हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते।
गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते।।
वन्दे नन्दव्रजस्‍त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्॥
भक्त्या विहीन अपराधलक्षैः क्षिप्ताश्च कामादि तरंगमध्ये।
कृपामयि त्वां शरणं प्रपन्ना, वृन्दे! नमस्ते चरणारविन्दम्।।
श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥

सबसे पहले मैं पतितपावन
परमाराध्यतम् श्रीभगवान के अभिन्न प्रकाश विग्रह
श्रीभगवत् ज्ञान प्रदाता
श्रीभगवान की सेवा में अधिकार प्रदानकारी
परम करुणामय
श्रील गुरुदेव के श्रीपाद-पद्म में
अनंत कोटि साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए
उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ।
पूजनीय वैष्णव वृन्द के श्रीचरण में प्रणत होकर
उनकी अहैतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ।
श्रीभगवत्-कथा श्रवण पिपाशु,
श्रीदामोदर व्रत पालनकारी भक्त वृन्दों को
मैं यथा-योग्य अभिवादन करता हूँ,
सभी की प्रसन्नता प्रार्थना करता हूँ।

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥

गजेन्द्र कृष्ण की इच्छा से
इन्द्रद्युम, पाण्ड्य देशीय इन्द्रद्युम महाराज
भगवान की उपासना में निमग्न थे, ध्यान में थे।
अगस्त्य ऋषि शोष्यों के साथ आके
देखे कुछ नहीं व्यवस्था कर रहे हैं;
अभिशाप दिया, यह हाथी है।
कृष्ण की इच्छा से, अगस्त्य ऋषि के चरणों में अपराध नहीं करना;
जय-विजय भी आ गए, कृष्ण की इच्छा से ही हुआ; चतुःसन
उल्टा-पल्टा नहीं समझना
we should not mis-understand, we should understand
जगतवासीओं को शिक्षा देने के लिए, वही
अपना उदाहरण देकर लोगों को शिक्षा दे रहे हैं।
यह शिक्षा लेनी चाहिए।
भक्त का कभी पतन नहीं होता है।
लीला करते हैं
दिखा दिया एकदम बहुत संसार में आसक्त है;
बहुत प्रभाव है,
लेकिन दिखाया
जगत में जितने बद्ध जीव हैं
condition souls of this world
they cannot rescue themself by their own efforts
or by their efforts other conditioned souls
दुनिया में देखते हैं ना? हम देश की बहुत तरक्की कर रहे हैं।
हम तो बहुत… वो हम करेंगे नहीं तो और कौन करेंगे? आपस में लड़ते हैं।
कुछ भी नहीं है
ऐसा दुनिया में देखते हैं ना?
यह बद्ध जीव के अंदर में इस प्रकार है।
वो दिखाया अपनी हिम्मत से हम संसार में कोई चीज प्राप्त करेंगे;
ले आयेंगे, अभिमान करते हैं
यह अपनी चेष्टा से कुछ भी नहीं होगा।
वो इतनी शक्ति धारण करते हैं;
हजार साल तक लड़ाई की
हजार साल तक लड़ाई कर के भी
अपनी चेष्टा से कुछ समाधान नहीं कर पाया।
इतना शाक्तिशाली है।
तुम कहाँ से आये हो? तुम करोगे?
उसके बाद बहुत दीर्घ चिंता की,
कैसे इससे उद्धार हो सकता हूँ?
पहले जो भगवान का भजन किया;
वही संस्कार से जो स्तव करते थे, उनको याद आ गया।
दिखाया, भक्ति एक दफे जो कोई करेगा;
वो भक्ति कभी नष्ट नहीं होती है।
यदि वैष्णव-अपराध उठे हाती माता। उपाड़े वा छिंडे, तार शुखि’ जाय पाता॥
उपाड़े—uprooted

वहाँ पर जीव गोस्वामी अर्थ किए;
भक्ति आत्मा की नित्य वृत्ति कभी
वो कभी नाश नहीं हो सकती है।
cannot be irradicated
but sometimes we may see that it has been enveloped.
when the aparādha will be removed
you need not have to start from the beginning.
upto which you have
have progressed in devotion from there you will start
यदि एक बार जीस प्रकार उन्नत हुआ
वहाँ से वो भजन शुरु करेगा
नष्ट नहीं होता है, करके
तब भगवान को प्रार्थना कर रहा है।
वो प्रार्थना किसलिए कर रहा है?
अभी इन्द्रद्युम महाराज गजेन्द्र रूप से प्रार्थना कर रहे हैं।
एक ही स्तव, ऐसा उतावला होकर
जब बद्ध जीव प्रार्थना कर सके, मैंने उनको
सिर्फ उद्धार नहीं किया, उनकी इच्छा पूर्ति की;
एकदम गरुड़ में बैठकर उनके पास आ गया, सामने में।
चाहते हैं; हम यह हस्ती देह से मुक्त होकर,
ग्राह से मुक्त होकर,
फिर मुक्ति जब प्राप्त करली अब संसार करेंगे
मैं ऐसा नहीं चाहता हूँ; आपके पाद-पद्म की सेवा चाहता हूँ
भगवान का दर्शन चाहते हैं
भगवान उनकी इच्छा पूर्ति के लिए प्रकाशित हुए;
बहुत सुंदर रूप से, गरुड़ पर विराजित होकर
मैं आ गया हूँ
लेकिन भगवान कृपालु हैं
इस प्रकार हम जब स्तव
उसी प्रकार उतावला होकर कर सके;
भीतर से कर सकेंगे तब भगवान हम को भी कृपा करेंगे
इसलिए गजेन्द्र द्वारा यह स्तव करवाया;
यह स्तव याद करने से नहीं होगा
उस प्रकार उतावला भाव से जब करेंगे;
तब हमारी भी संभावना है;
यह संसार रूप ग्राह से मुक्त होके, सिर्फ मुक्त नहीं,
भगवान के पादपद्म प्राप्त करने की।
यह है, जो हर साल
कार्तिक व्रत में हम लोग चिंता करते हैं।
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि॥
भगवान बीज है, प्रणव हैं ॐ
उनको प्रणाम किया।
न—नमस्कार मः—अहंकार
अहंकार छोड़ दिया, छोड़कर
भगवान को प्रणाम किया, ब्रह्म परमात्मा को नहीं
करके ब्रह्म, परमात्मा, भगवान
लेकिन भगवान में उन्होंने, भगवते वासुदेवाय; रूप है
ज्ञानी लोग चेष्टा करते हैं;
मुक्ति प्राप्त करने के लिए, अपनी चेष्टा से
लेकिन आखरी में जब
देखते हैं; अपनी चेष्टा से नहीं हुआ।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
सर्वत्र वासुदेवमय दर्शन करते हैं।
उसी प्रकार वही भगवान
सर्वशक्तिमान भगवान
जिनमे बृहत्व भी है, अणुत्व भी है, मध्यमत्व भी है, सर्वत्र है
वही भगवान को प्रणाम किया
कोई देव-देवी नहीं, ब्रह्म-परमात्मा नहीं।
जिनसे तमाम, यह जगत में जितना वैभव है;
वह सब चेतनवत हुआ।
चेतन कहाँ से आया?
हम लोग जो जीव चेतन हैं; कहाँ से आए?
लोहा जला नहीं सकता है।
लोहा जब आग के साथ रहता है,
आग का धर्म प्राप्त करता है।
वो लाल हो जाता है; स्पर्श करने से जल जाएगा।
इसलिए इसी प्रकार
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
जो आत्मा के कारण परमात्मा हैं
परमात्मा से सब चेतनवत हुआ।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जातानि जीवन्ति।
यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञासस्व। तद् एव ब्रह्म।
तमाम प्राणी परब्रह्म भगवान से निकले हैं।
भगवान में हैं, भगवान के द्वारा हैं, भगवान के लिए हैं।
इसलिए यह सब चेतनवत हुआ;
आत्मा के साथ यह शरीर
स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर चेतनवत हुआ।
नहीं तो जड़ है, यह सब
आत्मा कहाँ से आई? परमात्मा से आई
इसलिए कहते हैं, सच्चिदानंद
पुरुषायादिबीजाय
पुरुषाय आदि बीज
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥ (गीता 15.16)
गीता में लिखा है
अभी दो प्रकार के पुरुष हैं।
पुरुष दो प्रकार; चेतन बहुत प्रकार हैं भक्ति विनोद ठाकुर ने व्याख्या की
लेकिन देखते हैं दो प्रकार हैं, पुरुष
एक है क्षर
क्षर मतलब जो अपने स्वरुप से च्युत हो जाता है।
क्षर-अक्षर
jivas living being they are kṣara, kṣara means
they are outcome of marginal potency of Supreme Lord ‘tatasta śakti’
they have got the tendency to fall
in this world to be enveloped by the illusory energy
पतन हो सकता है, अपने स्वरुप से पतन हो सकता है।
minutest partical of conscious principle
and part of the potency marginal potency
liable to be enveloped by the illusory energy
भगवान तो पूर्ण हैं;
भगवान तो… भगवान की शक्ति है सब
भगवान को आवरण नहीं कर सकती है।
जीव अणु चेतन, उसको आवरण कर सकती है।
वो अपने स्वरूप से स्कलीत हो सकता है;
पतन हो सकता है; यह होता है जीव
क्षर: सर्वाणि भूतानि
कूटस्थोऽक्षर उच्यते
जो ब्रह्म परमात्मा हैं; अक्षर
ब्रह्म होता हैं, जो सर्व व्यापक हैं।
सर्व व्यापक,
brahma चिन्मय है, transcendantal, brahma
all-pervading spirit brahma
सर्वत्र हैं
but how can we get the conception of brahma?
नेति, नेति, नेति, नेति….
दुनिया की जितनी वस्तु हैं; यह नहीं है, यह नहीं है
indirecly brahma conception has the connection with this world
all-pervading spirit formless.
ओर उसके ऊपर है, परमात्मा
परमात्मा, वही परमात्मा के अंदर में ईश्वरत्त्व है।
इसलिए परमात्मा का संस्पर्श उत्तम है।
ब्रह्म का संस्पर्श उत्तम नहीं है।
वो अवस्था है। ब्रह्म, परमात्मा के अंदर में वो उत्तम है।
वो परमात्मा का दर्शन करने से वो बंधन नहीं होगा।

विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुहः।
एकन्तु महतः स्रष्टृ द्वितीयः त्वंतसंस्थितम्।
तृतीयं सर्वभुतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते॥

यह रूप गोस्वामी ने लिखा है;
लघु भागवतामृत ग्रन्थ में
विष्णु के तीन रूप हैं।
कारणोदक्षायी महाविष्णु, गर्भोदक्षायी विष्णु, क्षीरोदक्षायी विष्णु
यह जो परमात्मा हैं
जब सृष्टी वर्धन करने के लिए इच्छा हुई;
तब महासंकर्षण, वैकुण्ठ से महासंकर्षण दाउजी के रूप में आया।
वो यहाँ पर वहाँ पर महाविष्णु होकर
सब वैकुण्ठ को देखा, प्रकृति को देखा।
एकोऽहं बहुस्यामि
तब एक प्रकृति जड़ा प्रकृति सृष्टी नहीं कर सकती है।
इसलिए चेतन शक्ति
spiritual potency
Karanodakshayi Mahavishnu
first pūrus avatar
अनंत ब्रह्माण्ड पैदा हो गए।
infinite brahmands have been created.
प्रथम पुरुषावतार
प्रथम पुरुषावातर, पुरुषावातर
He is the god, master
the enjoyer
and all others are to be enjoyed
that conception is manifested here
इसमें clear conception है।
ब्रह्म से भी clear conception है
प्रत्येक जीव के हृदय में है, परमात्मा
एक ही देह रूप शरीर में दो हैं
चिड़िया, एक जीवात्मा और एक परमात्मा
जीवात्मा अपने कर्म-फल भोग करते हैं।
और परमात्मा निरपेक्ष रूप से देखते हैं।
नियंत्रण करते हैं।
वही परमात्मा हैं
अनंत ब्रह्माण्ड सृष्टी होने के बाद और एक अंश में
गर्भोदक्षायी द्वितीय पुरुषावतार हुए।
अपने पसीने से सागर तैयार कर के उसमे शयन किए।
गर्भोदक्षायी विष्णु
तमाम अवतारों के कारण, दशावतार में है।
ब्रह्मा रुद्रादी के कारण सबके कारण गर्भोदक्षायी विष्णु
गर्भोदक्षायी के नाभी कमल से ही ब्रह्मा आए।
सब अवतारों के कारण हैं।
वो द्वितीय पुरुषावतार हैं
तृतीय पुरुषावतार व्यष्टि ब्रह्माण्ड पालन करते हैं।
अन्तर्यामी व्यष्टि जीव के हृदय में जो हैं।
परमात्मा जो होते हैं, क्षिरोदक्षायी विष्णु
तानि ज्ञात्वा विमुच्यते
जो आप देखेंगे; तीन पुरुषावतार भोक्ता हैं।
यह जब अनुभव होगा;
तब हमारे अंदर में पुरुष होकर भोग करने के लिए प्रवृत्ति नहीं रहेगी।
तानि ज्ञात्वा विमुच्यते
विशेष रूप से मुक्ति लाभ करेंगे।
यह जो अनुभव उनके अंदर में लिखा है, रूप गोस्वामी ने
विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुहः।
एकन्तु महतः स्रष्टृ द्वितीयः त्वंतसंस्थितम्।
तृतीयं सर्वभुतस्थं तानि ज्ञात्वा विमुच्यते॥
इसलिए वही पुरुष हमारे हृदय में हैं;
वही एक master हैं, अहं ही सर्व यज्ञानां
भोक्ता है;
तब व्याख्या की;
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:॥
गीता में ही है
यह गौड़ीय मठ का व्यक्ति कोई लिखा नहीं है।
जिसे पृथ्वी में सभी समादर करते हैं
सब ही मानते हैं; उसमे ही लिखा है
पंचदस अध्याय में है
गीता में है
यस्मात्क्षरमतीतोऽहम् ‘क्षर’ जीव से अतीत हूँ मैं
beyond the comprehension of the conditioned souls of the world
क्षरम् अतीतः अक्षराद् अपि च
अक्षर वस्तु जो है कुतस्थोऽक्षर उच्यते, ब्रह्म, परमात्मा
उससे भी मैं श्रेष्ठ हूँ,
Bhagavan conception is the highest conception
वही भगवान को आश्रय कर रहा है
पुरुषोत्तम कौन? जगन्नाथ
पुरुषोत्तम कौन? कृष्ण
आखरी में यह व्याख्या की
श्लोक में व्याख्या की
राम कृष्ण का निर्देश किया
स्वतः सिद्ध रूप से जो प्रकाशित होते हैं
इसलिए वही
पुरुषायादिबीजाय
सब के कारण हैं भगवान
पुरुषोतम भगवान
उनसे ही, भगवान से ही
वहाँ से ही तीन पुरुषावतार आए
पुरुषावतार और उसके बाद आखरी में शेष
और उसके बाद और अवतार नहीं है
परेशायाभिधीमहि
ब्रह्मादि देवता भी हैं
उनके भी ईश्वर हैं परेशाय, वहाँ पर लिखा है
परेशाय
पुरुषाकाराय
पुरुषाकाराय आदि बीजाय
पुरुष आकार में आदि बीज सब के कारण
पुरुषाकारत्वेनैवादि-कारणाय,
अतः परेशाय परमेश्वराय
जो और-और देवता हैं उनके भी कारण हैं
परमेश्वर स्वतंत्र परमेश्वर
वही परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ उनका ध्यान करता हूँ
परमेश्वर कभी दो-तीन हजार नहीं होते हैं
परमेश्वर एक होते हैं
असीम के बाहर एक रेत का परमाणु नहीं रह सकता
यह माला उनके बाहर है तब सीमा हो जाएगी
असीम के अंदर में तमाम वस्तु हैं
उनके अंदर में है
दूसरा सब उनके अधीन, उनके बाहर कुछ नहीं है
परमेश्वर बहुत हैं बहुत आदमी कहते हैं westerners
some of the persons without knowing
these all these hindus, they believe in different gods
बहु ईश्वर को मानते हैं
बहु ईश्वर नहीं
ईश्वर के वैभव हैं they are the potency
potency this jiva potency
by marginal potency, all the jivas are created
infinite potencies
infinite transcendental realms, infinite material realms
the material potencies
that potency is not the Supreme Lord
Supreme Lord is the possessor of all potencies
Supreme Lord is one
He is Vishnu
Vishnu but He may have
different forms, innumerable forms
transcendental spiritual forms
and different pastimes
the highest pastime is Nandnandan Krishna
you can get all the kinds of delightful relations
by which you can love Krishna
बहुत किस्म के रस हैं
शांत, दास्य, साख्य, वात्सल्य, मधुर
और सप्त गौण रस, बारह रस सारे ही कृष्ण में हैं
और किसी में नहीं है
किसलिए? वो अवतारी हैं
इसलिए कहते हैं परमेश्वर कहने से
परमेश्वर एक ही हैं राम, नरसिंह, कृष्ण तत्त्व में एक ही हैं
लीला में फरक है
राम चन्द्र का अपूर्व रूप देख कर
दंडकारण्य ऋषियों ने राम को पति रूप से सेवा करने की इच्छा की
रामायण में है
राम कहते हैं, मैंने इस लीला में एक पत्नी-व्रत धारण किया है
मर्यादा पुरुषोत्तम लीला
यह लीला में नहीं हो सकता है
जब दुर्निती रहेगी तब जीव का मंगल नहीं होगा
इसलिए दुर्नीति को हटाने के लिए
मेरी यह निति की प्रतिक लीला है
तो इसमें नहीं होगा लेकिन मैं जब गोकुल में गोपीगृह में जन्म लूँगा
तुम लोग भी गोपीगृह में जन्म ले लो
गोपी के अनुगत्य में मैं कृष्ण रूप से मिलूँगा
राम रूप से नहीं
इसमें समस्त रस कृष्ण नन्दनंदन कृष्ण के स्वरुप में है
तत्त्व में फरक नहीं है लेकिन लीला में फरक है
परेशाय उनको हम ध्यान करते हैं
उसके बाद

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्।
योऽस्मात् परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्॥

यस्मिन् (अधिष्ठाने)
इदं (चिदचिदात्मकं जगत् प्रलीनम् भवति)
यतः (उपदानात्)
च इदं (स्थूलं जगत् जातं भवति)
येन (कत्रा)
इदं (सृष्टम् जगत् रक्षितं भवति)
यः स्वयं (एव)
इदं (विश्वं भवति)
यः अस्मात (कार्यात्)
परस्मात् च (कारणात् च)
परः (विलक्षणः भवति)
तं स्वयंभुवं (स्वतः सिद्धं भगवन्तं अहं)
प्रपद्ये (शरणम् व्रजामि)
यहाँ पर कहते हैं
जिन में यह विश्व है
और जो
उपादान से उद्भूत हुआ
वो भी जिनका जिनकी इच्छा से
और जिनके द्वारा ही सृष्ट हुआ
जो स्वयं ही विश्व हैं
विश्व के कारण हैं
कार्य कारण से भी भिन्न हैं
मैं स्वतः सिद्ध भगवान,
भगवान का आश्रय करता हूँ
यहाँ पर उदहारण दिया जैसे
एक घर है
घर के अंदर में घट है
और घट कैसे बना?
घट मिट्टी से बना
मिट्टी से बना घट है
और वो दंड चक्र की भी जरुरत है
दंड चक्र है, मिटटी है, तब भी घट नहीं बनता है
तब एक कुम्भार चाहिए
कुम्भार कहते हैं ना क्या कहते हैं?
कुम्भार, कुम्भार चाहिए
potters, there should be a potter
efficient cause
material cause उपादान कारण
and instrumental cause
instrumental cause, wheel and rode हैं
वो जिस चक्के में घुमाता है
घुमाके वो
वो मिट्टी का पात्र तैयार करते हैं
वो भी चाहिए ना instrumental cause है
वो जो है और
जो मिट्टी के रहने से ही घट नहीं बनता
दंड चक्र रहने से ही घट नहीं बनता
कुम्भार रहने से तब बनता है
इसलिए वो होता है efficient cause
and another is material cause
एक घट के अंदर में इस प्रकार भगवान के अंदर में विश्व है
भगवान के भीतर में ही सब कुछ हैं
उनके अंदर में ही है ‘इदं’, ‘इदं’ शब्द बार-बार व्यवहार किया ना
‘इदं’ यहाँ पर लिखा है
वो इदं यतश्च
परमेश्वरस्य जगदुपादानादि कारण-कलापत्वंचाह
यस्मिन् इदम् जगत्
गृहे घटादिकमिव
इदम् जगत्
जैसे घर में घट रहता है
उसी प्रकार भगवान के अंदर में विश्व रहता है
अंदर में ही है उनके बाहर में नहीं
यतश्च कुम्भकारादि
वो कुम्भकार.. कुम्भार चाहिए
और चक्रदंडादिनेव यः मृत्पिंड इव
योहस्य विश्वस्य स्वयमेव
सर्वाणि कारणानि भवतित्यर्थी।
कार्य कारण जितने हैं… विश्व भी भगवान हैं
भगवान को विश्व कहने से दोष नहीं होता है
दोष होता है? नहीं होता है
लेकिन हम लोग समझता नहीं
भगवान को अभी
गुरु महाराज जी एकदफे वहाँ पर गया
गेंदाराम जी के यहाँ
अम्बाला केन्ट में। अम्बाला केन्ट में सनातन धर्म सभा में गेंदाराम जी ने गुरुजी को बुलाया
तो गुरुजी उस वक्त
उनका निमंत्रण स्वीकार करके चंडीगढ़ से गए
वही सनातन धर्म सभा में
और लक्ष्मी नारायण मंदिर में भाषण हुआ
वहाँ पर अभी गभीर भाषण हुआ
वो भाषण में उसके बाद एक स्वामीजी वहाँ पर आ गया
स्वामी मनीषानंद, मुझसे भी उम्र छोटा है
वो आकर गेंदाराम जी से
प्रार्थना किया मुझे भी मौका दीजिए भाषण देने के लिए
तब गेंदाराम जी कहा, गेंदाराम जी हमारे गुरुजी को गुरुजी बोलते थे
गुरुजी को तो हम ले आए
वो उन लोगों का तो श्रवण नहीं मिलता है अभी नहीं होगा
गुरुजी के चले जाने के बाद
और थोड़ा दिन यहाँ पर रहेगा
चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा का बारे में हम लोगों ने सुनने के लिए उनको बुलाया है
इसलिए अभी नहीं हो सकता है
लेकिन बार-बार उनका पीछे में लगा है
तब गेंदाराम जी गुरुजी के पास आए
आपको प्रार्थना की हम लोगों ने चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा पढ़ने के लिए
यहाँ पर और एक स्वामीजी आया है
उनकी इच्छा है कुछ बोलने के लिए
मैं उनको बोल दिया अभी तो…
क्यों इतनी चिंता करते हो? बाद में होगा
वो बार-बार बोलता है इसलिए आपके पास आया हूँ। मैं क्या करूँ?
हाँ उनको बोलने दीजिए, उनको बोलने दीजिए
वो आधा घंटा बोलेंगे ठीक है
तो वो बोल दिए हाँ गुरुजी का हुक्कुम हुआ
आप आधा घंटा बोलेंगे
तो उसके बाद
वहाँ पर भाषण दिया हम लोग तो… अभी थोड़ा-थोड़ा तो
पंजाबी कुछ समझ में आता है तुसी असी… ताड़े-साड़े.. ऐसा कुछ बोल सकते हैं
लेकिन पहले तो मालुम नहीं था गुरुजी को भी मालुम नहीं था
तो उनको ध्यान देकर सुन रहे हैं
बहुत उर्दू भाषा बोलते हैं, उर्दू गाना गाते हैं
गुरुजी तो उर्दू नहीं जानते हैं
और लोग तो पंजाब में उसे अच्छा समझते हैं
तो अभी उसमे एक बात बोला
गुरुजी का तो संदेह हुआ
‘मैं तो राम का रूप हूँ सजदा करूँ किसका?’
इसका मतलब क्या होता है?
वो नहीं समझा तो
मठ में आकर हमारे पुरी महाराज
पुरी महाराज तो वहाँ पर थे उनके साथ में
पुरी महाराज
तो अभी उनसे गुरु महाराज जी ने पूछा
इन्होने जो है
यह स्वामीजी मनीषानंद बोला
इसका मतलब क्या होता है?
‘मैं तो वही राम हूँ मैं किसकी उपासना करूँ?’
‘मैं तो वही राम हूँ’
अभी वो क्या किया, सुबह को हमको भेज दिया
भाषण देने के लिए रात में गुरु महाराज जाते हैं
वो स्वामी मनीषानंद तो शिष्य के माफिक है, गुरुजी की मूर्ति लम्बी चौड़ी है ना?
इसलिए गुरुजी को प्रणाम किया
गुरुजी ने उनकी तारीफ़ की
आपका भाषण सुनके सबका दिल खुश हो गया
आईए अंदर आईए
अंदर में ले गए, हम बैठ गए सब
वो उनसे बातें हो रही है, वो कहते हैं हम लोगों का तीन जगह में मठ है
और goverment से कुछ रूपया देकर school करेगा, ये करेगा, ये करेगा, बहुत कुछ बोला
आपकी एक बात मेरी समझ में नहीं आई
-उसको थोडा समझायेंगे? -क्या बात हैं?
‘मैं तो राम का रूप हूँ सजदा करूँ किसका?’ इसका मतलब क्या है?
वो व्यक्ति सरल है, कपट नहीं है, अच्छा है
‘मैं तो वही राम हूँ मैं किसकी सेवा करूँ?’ वो [मनीषानंद] समझता है,
यहाँ पर जो आते हैं सभी मायावादी हैं
यह जो हैं हमारे गुरुजी भी ऐसे ही हैं
सामने बोलने से गुरुजी को बहुत प्रसन्नता हो जाएगी होगी
‘मैं तो वही राम हूँ’
तो गुरुजी बोलें, देखिये यहाँ पर कोई नहीं है।
आप और मैं हूँ।
आप मेरा पास कहिये, आप राम हैं? आप राम हैं?
घबरा गया वो… क्या बोलूं? क्या बोलूं?
क्यों मानते हैं ये बात?
नहीं ऐसा हम सुना है जैसा सुना वैसा बोल दिया।
“मैं और संन्यास छोड़ दूंगा छोड़कर घर में चला जाऊँगा”
वो तो दिल में हताश भाव आ गया। गुरुजी देख रहे हैं
तब थोड़ा सुना दिया, “ठीक किया, ठीक किया, अच्छा किया।”
वो व्यक्ति सरल है
वो कपट नहीं है
तो अभी गुरुजी ने उनको समझाया इसका एक अर्थ हो सकता है
‘मैं तो राम का रूप हूँ सजदा करूँ किसका?’
रूप और स्वरुप में फरक है
जो शक्ति है, शक्ति को रूप कहा जाता है
भगवान की बहिरंगा शक्ति का प्रसिद्ध प्रकाश विश्व है
विश्व भगवान का रूप है
कहने में दोष नहीं होता है
लेकिन स्वरुप नहीं है
जीव भी भगवान का रूप है
लेकिन स्वरुप नहीं है, वस्तु नहीं है
मैं तो राम की शक्ति का अंश हूँ
राम का हूँ
राम से आया हूँ, राम में हूँ, राम के द्वारा हूँ
राम के लिए रहना चाहिए
‘मैं तो राम का रूप हूँ सजदा करूँ किसका?’
मैं तो राम की शक्ति का अंश हूँ सदजा करूँ किसका? राम का
राम का ही भजन करना चाहिए, यह अर्थ होता है
ऐसा नहीं कि मैं ही राम हूँ
इसलिए विश्व कहने से शास्त्र में है विश्व
कहने से दोष नहीं होता है लेकिन तात्पर्य समझा होगा
इसलिए कहते हैं तमाम कार्य कारण जितने हैं
सब भगवान से आया
और यह जो कार्य कारण दुनिया में हैं
इससे अलग हैं
भगवान होते हैं स्वप्रकाश
वो किसी के द्वारा प्रकाशित नहीं होते हैं
वो धर्म जो होता है ना, धर्म वो होता है
भगवान का…
नारायण जो हैं, नारायण से ही धर्म आया
जो धर्म और अधर्म का जो…
इसमें आपको षष्ट अध्याय… षष्ट स्कन्ध में
जो विचार हुआ, नाम के महात्म्य के बारे में, वहाँ पर
जो यमदूत ओर विष्णुदूत में बात हुई
उसमे पूछा, धर्म का लक्षण क्या है?
अधर्म का लक्षण… सभी..
-दंड योग्य है -कोई दंड योग्य नहीं है
ऐसा विष्णुदूत ने यमदूत के पास पूछा
हम उनको ले के जा रहे हैं वहाँ से, उनको धर्मराज के किंकर कहते हैं
कौन धर्म? धर्म किसको कहते हैं?
अधर्म किसको कहते हैं?
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:।
वेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥
वेद विहित जो है वही धर्म है
और वेद निषिद्ध है वही अधर्म है
वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्यय:।
वेदो नारायण: साक्षात् वेद कौन हैं?
वेद अखंड ज्ञान हैं।
नारायण संभूत जीव,
उनका आश्रय एक अर्थ होता है
यह भी खंड ज्ञान है
वेदो नारायण: साक्षात्स्वयम्भूरिति शुश्रुम॥
स्वतः सिद्ध हैं
भगवान होते हैं स्वतः सिद्ध
इसलिए, वो स्वतः सिद्ध भगवान
सर्व कारण के कारण हैं
self-effulgent, ब्रह्म व परमात्मा के कारण हैं

यदद्वैतम् ब्रह्मोपनिषदि तदप्यस्य तनुभा
य आत्मान्तर्यामी पुरुष इति सोहास्यांशविभवः।
(चै. च. आदि 1.3)

यह कहते हैं तो चैतन्य चरितामृत में कविराज गोस्वामी लिखें
जो अद्वैत ब्रह्म हैं
वही भगवान की ही अंग द्युति है
halo of the person Krishna
श्लोक
ज्योति देखकर उसमे निमग्न हो जाते हैं
लेकिन ज्योति भीतर में, श्यामसुंदर मूर्ति
उसकी ही रोशनी है, उसमे निमग्न रहते हैं लेकिन उसका कारण
और उनके अंश होते हैं
जो अंतर्यामी रूप से रहते हैं वो परमात्मा
वो होते हैं षड़ ऐश्वर्य पति भगवान, पहले हम लोगों ने सुना
भगवान तो षड़ ऐश्वर्य पति हैं इसलिए
वही भगवान स्वतः सिद्ध भगवान
स्वयं प्रकाशित भगवान will descend
there is no cause of Bhagavan
ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्द विग्रहः।
अनादिरादि गोविन्दः सर्वकारण कारणम्॥
सब के कारण हैं गोविन्द
कोई उनका कारण नहीं है
इसलिए स्वयं प्रकाशित होते हैं
शरणागत के हृदय में प्रकशित होते हैं
इसलिए स्वयम्भुवम्
यहाँ पर लिखा है
‘इदं’ शब्दे
जो है ‘यस्मिन् इदं’ — गृहे अवस्थित घटादिका के माफिक
जैसे आधार है, जगत
या जगत का आधार है
कुम्भकार है, उसके ऊपर कुम्भार है
मृत पिंड है उपादान, यह समस्त हैं, जान लिया
यह ‘इदं’ शब्द द्वारा पुनः पुनः उल्लेख किया
वही सम्बन्ध निर्धारण किया
मूल कारण और उपादान कारण, निम्मित कारण
यह कार्य-कारण जो दुनिया में दिखता हैं इससे अलग हैं, स्वयंभु है
यह स्वतः सिद्ध तत्त्व को…
राम कृष्ण आदि रूप से प्रकट हैं
वही राम कृष्ण आदि जो उनको ही मैं [प्रणाम करता हूँ]
यह
य: स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्‍वचिद् विभातं क्‍व च तत् तिरोहितम्।
अविद्धद‍ृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्पर:॥
ऐसा है, वही भगवान जो है
भगवान यहाँ प्रकटित होते हैं
ब्रह्मा के दिन में
सृष्टि होती है, भगवान की आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि करते हैं
और ब्रह्मा की रात्रि में प्रलय होता है
सब नाश हो जाता हैं
भगवान निरपेक्ष रूप से उसको देखते हैं
सब नाश हो गया
अभी
महाराष्ट्र में भूचाल में 33,000 आदमी मर गए
गुजरात में भूचाल में लाखों आदमी मर गए
भगवान तो देखते नहीं
सारी दुनिया का प्रलय हो जाता है तब भी देखते नहीं
करोड़ करोड़ करोड़ करोड़… प्राणी एकदम अनंत प्राणी मर जाते हैं
भगवान देखते नहीं
किसलिए? असल में कोई प्राणी मरता नहीं
उसका जन्म भी नहीं है, मृत्यु भी नहीं है
हम लोग गीता में पढ़ते हैं
लेकिन वो मेरी माया से मोहित होकर
वो समझते हैं
मैं जन्म लिया, त्रिताप भोग किया, मेरी मृत्यु हो गई
तो मैं क्या करूँ? मेरे शरणागत होने से
तो मैं माया से उद्धार कर सकता हूँ
करने से सब चला जाएगा सब झूठ है
सारी दुनिया
ध्वंश हो जाएगी, क्या बात है? कुछ भी बात नहीं
आत्मा का नाश नहीं होता है